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क्षमा शर्मा
दो-तीन दिन पहले की बात है, बाहर जा रही थी। इन दिनों जब तक कोई बहुत जरूरी काम न हो, बाहर कम ही निकलना होता है। पार्क पर नजर गई, तो एकाएक एहसास हुआ कि छोटे-बड़े सभी पेड़-पौधे रंग-बिरंगे फूलों से भरे हैं। सर्दी के डर से कहीं छिपी हुई तितलियां और मधुमक्खियां बाहर निकल आई थीं। उन्हें भी तो पूरे साल वसंत के आगमन का इंतजार रहा होगा। कब गेंदा, गुलाब, बेला, चमेली, चंपा, बगुनवेलिया सब अपने फूलों के भार से झुके-झुके जाएंगे और तितलियां, मधुमक्खियां उनके कान में कुछ गुनगुनाकर उन्हें अपना परिचय देंगी। कोयल भी पुकारेगी- मैं भी हूं, मैं भी हूं। आओ, आओ। कोयल का याद आना था कि नजर सोसाइटी की दीवार से सटे आम के मंझोले कद के पेड़ पर गई। ढेर सारा बौर। इतना कि पत्तों को आम्रमंजरियों के पीले रंग ने ढक लिया है। जरूर कोयल भी कहीं छिपी बैठी होगी। बाजार जाना भूलकर आम के पेड़ के पास जाकर देखने लगी। बौर की मीठी गंध कहने लगी कि यहां से जाना मत। मगर कोयल कहां है? चारों तरफ देखा, कोयल कहीं दिखाई नहीं दी। क्या पता उसे अभी तक आम्र मंजरियों का पता ही न चला हो! जब भी आम के पेड़ों पर बौर देखती हूं, हजारी प्रसाद द्विवेदी का वह अनोखा निबंध याद आ जाता है –आम फिर बौरा गए। बौराने के भी कितने अर्थ हैं! 
गेट से बाहर निकलते लगा कि हवा भी तेज चलने लगी है। इन दिनों की हवा, जिसे सब वसंती हवा कहते थे। जहां नीचे गिरे पत्ते हवा में उड़ते दिखाई देते थे। यानी कि नए पत्तों का मौसम भी आ गया। मशहूर कवि केदारनाथ अग्रवाल की कविता है बसंती हवा। इसकी कुछ पंक्तियां देखिए- हवा हूं, हवा हूं/बसंती हवा हूं। सुनो बात मेरी अनोखी हवा हूं/ बड़ी बावली हूं, बड़ी मस्तमौला। नहीं कुछ फिकर है/ बड़ी ही निडर हूं। जिधर चाहती हूं उधर घूमती हूं/ मुसाफिर अजब हूं। न घर बार मेरा/ न उद्देश्य मेरा/न इच्छा किसी की/ न आशा किसी की/ न प्रेमी न दुश्मन/जिधर चाहती हूं/ उधर घूमती हूं। हवा हूं, हवा मैं/ बसंती  हवा हूं। जहां से चली मैं/ जहां को गई मैं/शहर, गांव, बस्ती/नदी, रेत, निर्जन/हरे खेत, पोखर/झुलाती चली मैं। झुमाती चली मैं/हवा हूं, हवा मैं बसंती हवा हूं। चढ़ी पेड़ महुआ/थपाथप मचाया/ गिरी धम्म से फिर/चढ़ी आम ऊपर/उसे भी झकोरा/किया कान में कू/उतरकर भगी मैं/हरे खेत पहुंची/वहां गेहुओं में लहर खूब मारी। बसंती हवा में/ हंसी सृष्टि सारी हवा हूं/ हवा मैं/ बसंती हवा हूं। इस कविता में केदार जी ने हवा के माध्यम से हमारे कृषि जीवन का भी कितना सुंदर वर्णन किया है। लेकिन इस मौसम में जहां प्रकृति की खूबसूरती अपने चरम पर होती है, वहीं इम्तिहान के डर से बच्चे थरथराते हैं। वे मनाते हैं कि होली उनके इम्तिहानों के बीच में न आए। वे इन दिनों पढऩे में इतने व्यस्त रहते हैं कि न वसंत को महसूस कर सकते हैं, न ही फूलों पर उड़ती तितलियों के पीछे दौड़ सकते हैं। फूलों की भीनी खुशबू उनकी पढ़ाई के बंद कमरों में शायद ही कभी पहुंचती है। सर्दी की विदाई हो गई, वसंत आ गया, होली भी आ जाएगी, लेकिन बच्चों को तब तक मुक्ति कहां, जब तक आखिरी पेपर न हो जाए। और वे जब तक परीक्षाओं के भार से मुक्त होंगे, तब तक बढ़ते तापमान के कारण पार्कों से फूल गायब हो जाएंगे। पंछियों का भी गरमी के कारण कुछ पता नहीं चलेगा कि वे किस पेड़ की पत्तियों के बीच गर्मी से बचने के लिए छिपे हैं। बच्चे अकसर वसंत के कोमल मौसम का आनंद नहीं उठा पाते। जिस वसंती हवा का लेखक, कलाकार, कवि, नाटककर, चित्रकार, बांहें फैलाकर स्वागत करते हैं, उस हवा को बच्चे वसंती हवा न कहकर इम्तिहानों की हवा कहते हैं। जिसकी सांय-सांय उन्हें याद दिला देती है कि पेपर बस सिर पर हैं। बच्चों की यह शिकायत आज से नहीं है। बच्चे सब कुछ भूलकर पढऩे में लगे हैं, तब कैसे महसूस करें कि वसंत आ गया है और होली आने को है।काश कि इम्तिहानों के दिन, महीने बदल सकते और हमारे बच्चे भी गा सकते-हवा हूं, हवा हूं/बसंती हवा हूं।