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मारूफ रजा
इस संघर्ष विराम समझौते ने यह दिखाया है कि हमारा राष्ट्रीय सुरक्षा प्रतिष्ठान न केवल चीन और पाकिस्तान द्वारा पेश की चुनौतियों का मुकाबला करने की क्षमता रखता है, बल्कि यह इन दोनों उद्दंड पड़ोसियों के साथ समझौता कर पाने में भी सक्षम है। देश के सीमाई विवादों के इतिहास के बीच यह एक बड़ी उपलब्धि है। पिछले दिनों जिस तरह चीन ने वास्तविक नियंत्रण रेखा से हटने का फैसला लिया; यह अलग बात है कि इस पर कैसे अमल किया गया, उसी तरह भारत और पाकिस्तान के डीजीएमओ (डायरेक्टर जनरल ऑफ मिलिटरी ऑपरेशन्स) ने नियंत्रण रेखा पर संघर्ष विराम समझौते पर पूरी तरह अमल करने का एलान किया, और यह विगत 24-25 फरवरी की मध्य रात्रि से लागू भी हो गया।
इस सफलता का श्रेय निश्चय ही हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल और पाकिस्तान में सुरक्षा मामलों पर प्रधानमंत्री के प्रमुख सहायक मोइद यूसुफ के साथ पर्दे के पीछे की उनकी कूटनीति को जाता है, हालांकि यूसुफ ने डोवाल के साथ ऐसी किसी मुलाकात से इनकार किया है। अलबत्ता यह घटनाक्रम हमें याद दिलाता है कि पहले की तरह इस बार भी समझौते को भारत को सतर्कता से लेना चाहिए। पाक सत्ता प्रतिष्ठान हमेशा ही सैन्य मामले में भारत की बराबरी करने की कोशिश में गर्व का एहसास करता है, और अपने लोगों को बताता रहा है कि भारत के साथ स्थायी शांति तभी संभव है, जब भारत कश्मीर में उसका दावा स्वीकारे। ऐसे में, आश्चर्य नहीं है कि 2019 से ही, जब हमारी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35 ए हटाया, पाकिस्तान ने एक तरफ भारत के खिलाफ कूटनीतिक अभियान शुरू किया, जिसका उसे कोई लाभ नहीं मिला, वहीं सीमा पर संघर्ष विराम का लगातार उल्लंघन भी जारी रखा, जहां हमारी सेना ने इसका करारा जवाब दिया। वर्ष 2019-20 में 740 किलोमीटर लंबी नियंत्रण रेखा लगातार सुर्खियों में रही, क्योंकि पाकिस्तान ने वहां से अपने प्रशिक्षित आतंकवादियों को इस पार भेजने के लिए तमाम तरीके अपनाए। पर जब भारतीय सेना की जवाबी गोलीबारी पाकिस्तान को नुकसान पहुंचाने लगी, तब पाक सेना प्रमुख जनरल बाजवा ने भारत के प्रति अपने रुख में नरमी दिखानी शुरू की। बालाकोट पर हवाई हमले के बाद से ही बाजवा का भारत के प्रति यह रुख रहा, और विगत दो फरवरी को उन्होंने कहा, 'यह समय सभी दिशाओं से दोस्ती का हाथ बढ़ाने का है।' हैरानी की बात तो यह थी कि विगत पांच फरवरी को कश्मीर एकता दिवस के अवसर पर भी इस्लामाबाद ने पहले जैसी आक्रामकता के बजाय भारत के प्रति नर्म रुख दिखाया। इसी से साफ हो गया था कि पाकिस्तान फिलहाल भारत के प्रति आक्रामकता का परिचय नहीं देना चाहता। अलबत्ता इससे पाकिस्तान के प्रति भारत का यह रुख नहीं बदला है कि पड़ोसी देश को पहले आतंकवाद को संरक्षण देने की नीति खत्म करनी होगी। इसके बावजूद नियंत्रण रेखा तथा वास्तविक नियंत्रण रेखा से संबंधित मुद्दों को सुलझाए बिना ही, हालांकि पाकिस्तान के मामले में नियंत्रण रेखा को ही सीमा मान ली गई है, पाकिस्तान और चीन के साथ संबंधों को आगे बढ़ाने का एक अवसर हमारी सेना को मिला है। दोनों तरफ के डीजीएमओ द्वारा सीमा पर संघर्ष विराम की घोषणा का विचार शायद पाकिस्तान का था। पाकिस्तान की ताकतवर सेना, जिसके ज्यादातर निर्देश और फैसले गोपनीय होते थे, शायद अब दोतरफा रिश्तों में सुधार से जुड़े भविष्य के फैसलों को सार्वजनिक तौर पर अपने हाथ में लेना चाहती है, क्योंकि इमरान सरकार की पाकिस्तान में कोई साख नहीं है।
अगर ऐसा है, तो यह अच्छा ही है, क्योंकि कश्मीर मुद्दा, परमाणु मुद्दा तथा पड़ोसी देशों सहित अमेरिका से संबंधित मुद्दों पर फैसले वहां की सेना ही लेती है। पाकिस्तान के साथ हमारा संघर्षविराम समझौता अगर इतने लंबे समय तक टिका हुआ है, तो इसकी एक ही वजह है कि इस पर पाक सेना ने दस्तखत किया था। सिंधु जल समझौते को तो जनरल अयूब खान ने लागू कवाराया था। तथ्य यह है कि पाक सेना अगर किसी समझौते पर दस्तखत नहीं करती, तो उस समझौते का पालन भी नहीं करती। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पहल से हुए लाहौर समझौते का हश्र हमने देखा ही है। पाकिस्तान ने उसका पालन इसलिए नहीं किया, क्योंकि सेना ने दस्तखत नहीं किया था। दूसरी तरफ, हमारी सेना को नियंत्रण रेखा और जम्मू-कश्मीर में भी कार्रवाई की छूट मिलने के बावजूद राजनीतिक नियंत्रण में काम करना पड़ता है। अगर पाकिस्तान के डीजीएमओ नियंत्रण रेखा पर अपनी प्रतिबद्धता पर अटल रहे तथा हमेशा की तरह पाक सेना तथा आतंकियों की मिलीभगत का नमूना वहां देखने को न मिले, तो भारत की तरफ से यह आश्वासन मिलना कठिन नहीं है कि नियंत्रण रेखा पर पाक उकसावे के बावजूद इस तरफ से कमोबेश संयम का परिचय दिया जाएगा। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हमारी सेना जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों के खिलाफ अभियान छोड़ देगी। बल्कि जरूरत पडऩे पर नियंत्रण रेखा के पार जाकर आतंकवादियों के ठिकानों को निशाना बनाने का काम भी जारी रहेगा। दोनों ओर के डीजीएमओ द्वारा मुलाकात करने के पहले के विचार पर अब अमल करने की बात कही गई है, जो व्यावहारिक है। बेशक हॉटलाइन के फायदे हैं, पर व्यक्तिगत मुलाकात से बेहतर कुछ नहीं है। बल्कि हमें नियंत्रण रेखा पर तनाव और तनातनी खत्म करने के लिए डीजीएमओ स्तर की हॉटलाइन व्यवस्था से आगे निकलते हुए दोनों तरफ के ब्रिगेड, डिविजन और कॉर्प्स कमांडर स्तर पर टेलीफोन व्यवस्था के बारे में तत्काल सोचना चाहिए।