महेंद्र वेद
पाकिस्तान की अपनी पहचान की तलाश उतनी ही पुरानी है जितना कि वह मुल्क। वहां का शासक वर्ग भारत से दूर जाना चाहता है, जहां से उसका जन्म हुआ। भारतीय संविधान सभा के सदस्य मिर्जा अब्दुल कयूम इस्पानी ने ब्रिटेन में पाकिस्तान के उच्चायुक्त (1950-52) के तौर पर अपने कर्मचारियों और उनकी पत्नियों को निर्देश दिया था कि उन्हें 'पाकिस्तान दिवस' पर भारत की पहचान से जुड़ी साड़ी नहीं पहननी चाहिए।
गंगा-जमुनी तहजीब का जश्न मनाने वाली पीढ़ी अब नहीं है। वहां के छात्रों के लिए इतिहास के पाठ मोहम्मद बिन कासिम से शुरू होते हैं, जिसने सिंध पर आक्रमण किया था और जीत हासिल की थी। इस्लाम पूर्व के अतीत को नजरंदाज किया जाता है। मोहन-जोदारो, हड़प्पा और तक्षशिला का धार्मिक संदर्भों के बिना सभ्यता के संदर्भ में अध्ययन किया जाता है।
सैन्य गौरव को गोरी और गजनवी (जो अफगानी थे, पाकिस्तानी नहीं) के नाम की मिसाइलों के जरिये व्यक्त किया जाता है। यह सब तो पुरानी बातें हैं, अब वहां ड्रिलिस-एर्तुग्रुल के जरिये अपनी पहचान गढ़ने की कोशिश हो रही है, पांच सौ एपिसोड का यह तुर्की टीवी सीरियल मुस्लिम पुनर्जागरण की महिमा को पुनर्जीवित करता है।
इसकी शुरुआत 13 वीं शताब्दी के तुर्की के कबीलों की रैली और ओटोमन साम्राज्य की स्थापना से हुई है, जो यूरोप, मध्य एशिया और उत्तरी अफ्रीका के कुछ हिस्सों में फैला था। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद खलीफा का अंत हो गया। उसके बाद तुर्की एक आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष, मगर सैन्यवादी राज्य बन गया। अतीत की महिमा को तुर्की के मौजूदा राष्ट्रपति एर्दोगन के शासन में पुनर्जीवित किया गया है।
उन्होंने ही भारत के रामायण और महाभारत जैसे धारावाहिकों, यहां तक कि बाहुबली की तरह निर्माण के लिए इस सीरियल को प्रयोजित किया, वह अपने परिवार के साथ एनातोलिया गए थे, जहां इसकी शूटिंग की गई। गाजी एर्तुग्रुल की वीरता और बौद्धिकता से पाकिस्तान के परिवार पवित्र रमजान के पहले दिन से रूबरू हुए और लॉकडाउन के दौरान इस मुश्किल समय में लोगों के मानस पर यह छाई हुई है।
खुद प्रधानमंत्री इमरान खान ने आधिकारिक रूप से इसका समर्थन किया, जो नियमित रूप से इसे देखते हैं और मानते हैं कि एर्तुग्रुल हॉलीवुड और बॉलीवुड की अश्लीलता का जवाब है, जिसे पाकिस्तानी दर्शक देखते हैं। इसका राजनीतिक नतीजा यह हुआ कि खान के समर्थक उन्हें एर्तुग्रुल के गुणों से लैस मानते हैं। विपक्ष को लगता है कि यह गुण इमरान में नहीं, बल्कि मरियम में है, जो तीन बार प्रधानमंत्री रहे नवाज शरीफ की बेटी और राजनीतिक उत्तराधिकारी हैं। लाहौर में एर्तुग्रुल की एक प्रतिमा लगाई गई है और दूसरी तैयार की जा रही है। इस तरह से इस सीरियल ने राजनीतिक, सांस्कृतिक पहचान बना ली है।
आयातित सामग्री पर इस तरह की निर्भरता कुछ पाकिस्तानी कलाकारों, निर्माताओं और निर्देशकों के लिए निराशा का कारण है, जो एक विदेशी शो के लिए प्राइम-टाइम स्लॉट्स देते हैं। पीटीवी कभी उपमहाद्वीप के सबसे बेहतर सोप ओपेरा का निर्माण करता था, लेकिन उसे निजी चैनलों की बढ़ती प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा।
लेकिन तुर्की पाकिस्तानी बुद्धिजीवियों के बीच लोकप्रिय है। पूर्व सैन्य तानाशाह जनरल परवेज मुशर्रफ एक सैनिक के रूप में वहां तैनात थे, जो तुर्की के प्रशंसक माने जाते हैं। तुर्की ड्रामा और टीवी सीरियल पाकिस्तान में काफी प्रभाव डालते हैं। पिछले वर्ष भारतीय फिल्मों पर प्रतिबंध लगाने के बाद इस्लामाबाद ने उसे तेजी से अपनाया है।
इसको लेकर एक बहस शुरू हो गई है। क्या एर्तुग्रुल ऐतिहासिक है? यहां तक कि इसके निर्देशक मेहमत बोजदाग भी ऐसा कोई दावा नहीं करते हैं, क्योंकि बहुत कम ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध हैं। पाकिस्तान के अग्रणी विज्ञान शिक्षक और विद्वान परवेज हुडभोय कहते हैं कि यह 'झूठा इतिहास' है। वह पुनरुत्थानवाद के प्रति चेताते हैं, जो आम आम जनता के लिए अफीम का काम करता है।
आज जब इस्लाम के अनुयायी 'इस्लामोफोबिया' का सामना कर रहे हैं, तो इस्लाम को तलवार और पिछले ईसाई-मुस्लिम धर्मयुद्ध के माध्यम से नहीं प्रदर्शित करना चाहिए। वास्तव में यह सीरियल इस्लामोफोबिया को बढ़ावा देता है। हालांकि इसकी लोकप्रियता से पता चलता है कि आम जनता घोड़े पर सवार योद्धा की हिंसा, धूम-धड़ाका, महिमा और ग्लैमर की भूखी है।
हुडभोय पाकिस्तान के उन चंद विद्वानों में से हैं, जिन्होंने धारा के खिलाफ बोलने की हिम्मत दिखाई है। सबसे कठोर आलोचना विदेशों में काम करने वाले लोगों की तरफ से आई है। वे पूछते हैं कि पाकिस्तान किस तरह की पहचान चाहता है। जब मुल्क में राष्ट्रवाद को आकार देने की बात आती है, तो पाकिस्तान विदेशी विचारों, नायकों और इतिहास को आयात करने के प्रति जुनून क्यों दिखाता है?
हुडभोय एक और बात कहते हैं, 'अधिकांश लोग आक्रमणकारियों को पसंद नहीं करते हैं, लेकिन पाकिस्तान का मानस कुछ खास है। शायद एर्दोगन की आक्रामक शैली से अभिभूत प्रधानमंत्री इमरान खान ने गर्व से ट्वीट किया कि तुर्कों ने 600 वर्षों तक भारत पर शासन किया। जाहिर है, इस पर इतिहासकार सवाल उठाएंगे, इसमें बहुत कम सच्चाई है। लेकिन किसी प्रधानमंत्री द्वारा अपनी जमीन पर शाही शासन की प्रशंसा करना दुर्लभ है।' तथ्य यह है कि तुर्क, जो कई अन्य विदेशियों की तरह सैनिक और प्रशासक थे, ने कभी भारत में सीधे शासन नहीं किया।
अब अपनी सफलता पर उत्साहित तुर्की को सुन्नी इस्लाम के गढ़ से चुनौती मिल रही है। एर्तुग्रुल पर जमकर नकारात्मक प्रतिक्रिया हुई है। संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब, दोनों ने इस सीरियल की आलोचना की है और प्रतिबंध लगा दिया है। मिस्र के अधिकारियों ने ओटोमन शासन के तहत पूर्व में अरब देशों पर तुर्की आधिपत्य को फिर से लागू करने के इस 'घातक प्रयास' के खिलाफ फतवा जारी किया है।
गजनफर अली ग्रेवाल इसे आयातित भ्रम कहते हैं। वह बताते हैं कि पाकिस्तान सिंधियों, बलूचियों, पश्तूनों और पठानों का एक विविध बहु-जातीय राष्ट्र है, जिसकी जातीय पहचान अभी अनिश्चित है। यह पाकिस्तानी पहचान यानी पाकिस्तानियत की खोज को भ्रमित करता है। निष्कर्ष के रूप में वह कहते हैं कि कठोर सच्चाई यह है कि पाकिस्तानियत कभी था ही नहीं और न ही क्षितिज में इसके उभरने का कोई संकेत है।
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