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रमेश सर्राफ धमोरा
वर्तमान दौर में महिलाओं ने अपनी ताकत को पहचान कर काफी हद तक अपने अधिकारों के लिए लडऩा भी सीख लिया है। अब महिलाओं ने इस बात को अच्छी तरह जान लिया है कि वे एक-दूसरे की सहयोगी हैं। महिलाओं का काम अब केवल घर चलाने तक ही सीमित नहीं है।
महिलाओं के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिये हर वर्ष 8 मार्च को विश्व भर में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है। हमारे देश की महिलायें आज हर क्षेत्र में पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर अपनी ताकत का अहसास करवा रही हैं। भारत में रहने वाली महिलाओं के लिये इस वर्ष का महिला दिवस कई नई सौगातें लेकर आया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी महिलाओं के अधिकार को बढ़ावा और सुरक्षा देने के लिए दुनियाभर में कुछ मापदंड निर्धारित किए हैं। 
महिलाओं के लिए अच्छी खबर यह है कि लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या बढ़कर 78 हो गयी है जो अब तक की सबसे ज्यादा है। सेना में महिलाओं को स्थाई कमीशन मिलने से अब सेना में महिलायें भी पुरुषों के समान पदों पर काम कर पायेंगी। इससे महिलाओं का मनोबल बढ़ेगा। उनके आगे बढऩे का मार्ग प्रशस्त होगा। स्वतंत्रता प्राप्ति के 74 वर्ष बाद भी भारत में 70 प्रतिशत महिलाएं अकुशल कार्यों में लगी हैं। जिस कारण उनको काम के बदले कम मजदूरी मिलती है। पुरुषों की तुलना में महिलाएं औसतन हर दिन छ: घण्टे ज्यादा काम करती हैं। चूल्हा-चौका, खाना बनाना, सफाई करना, बच्चों का पालन पोषण करना तो महिलाओं के कुछ ऐसे कार्य हैं जिनकी कहीं गणना ही नहीं होती है। दुनिया में काम के घण्टों में 60 प्रतिशत से भी अधिक का योगदान महिलाएं करती हैं। जबकि उनका संपत्ति पर मात्र एक प्रतिशत ही मालिकाना हक है।
वर्तमान दौर में महिलाओं ने अपनी ताकत को पहचान कर काफी हद तक अपने अधिकारों के लिए लडऩा भी सीख लिया है। अब महिलाओं ने इस बात को अच्छी तरह जान लिया है कि वे एक-दूसरे की सहयोगी हैं। महिलाओं का काम अब केवल घर चलाने तक ही सीमित नहीं है। बल्कि वे हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही हैं। परिवार हो या व्यवसाय, महिलाओं ने साबित कर दिखाया है कि वे हर काम करके दिखा सकती हैं जिसमें अभी तब सिर्फ पुरुषों का ही वर्चस्व माना जाता था। शिक्षित होने के साथ ही महिलाओं की समझ में वृद्धि हुयी है। अब उनमें खुद को आत्मनिर्भर बनाने की सोच पनपने लगी है। महिलाओं ने अपने पर विश्वास करना सीखा है और घर के बाहर की दुनिया को जीतने का सपना सच करने की दिशा में कदम बढ़ाने लगी है। 
सरकार ने महिलाओं के लिए नियम-कायदे और कानून तो बहुत सारे बना रखे हैं किन्तु उन पर हिंसा और अत्याचार के आंकड़ों में अभी तक कोई कमी नहीं आई है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 15 से 49 वर्ष की उम्र वाली 70 फीसदी महिलाएं किसी न किसी रूप में कभी न कभी हिंसा का शिकार होती हैं। इनमें कामकाजी व घरेलू महिलायें भी शामिल हैं। देशभर में महिलाओं पर होने वाले अत्याचार के लगभग डेढ़ लाख मामले सालाना दर्ज किए जाते हैं। जबकि इसके कई गुणा अधिक मामले दबकर रह जाते हैं। घरेलू हिंसा अधिनियम देश का पहला ऐसा कानून है जो महिलाओं को उनके घर में सम्मानपूर्वक रहने का अधिकार सुनिश्चित करता है। इस कानून में महिलाओं को सिर्फ शारीरिक हिंसा से ही नहीं बल्कि मानसिक, आर्थिक एवं यौन हिंसा से बचाव करने का अधिकार भी शामिल है। भारत में लिंगानुपात की स्थिति भी अच्छी नहीं मानी जा सकती है। लिंगानुपात के वैश्विक औसत 990 के मुकाबले भारत में 941 ही हैं। हमें भारत में लिंगानुपात सुधारने की दिशा में विशेष काम करना होगा ताकि लिंगानुपात की खराब स्थिति को बेहतर बनाया जा सके। दुख की बात यह है कि नारी सशक्तिकरण की बातें और योजनाएं केवल शहरों तक ही सिमटकर रह गई हैं। एक ओर शहरों में रहने वाली महिलाएं शिक्षित, आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं जो पुरुषों के अत्याचारों का मुकाबला करने में सक्षम हैं। वहीं दूसरी तरफ गांवों में रहने वाली महिलाओं को तो अपने अधिकारों का भी पूरा ज्ञान नहीं है। वे चुपचाप अत्याचारों को सहती रहती हैं और सामाजिक बंधनों में इस कदर जकड़ी हैं कि वहां से निकल नहीं सकती हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले दोगुने से भी अधिक हुए हैं। पिछले दशक के आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर घंटे महिलाओं के खिलाफ अपराध के 26 मामले दर्ज होते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार महिलाओं के प्रति की जाने वाली क्रूरता में वृद्धि हुई है। 
कहने को तो सम्पूर्ण विश्व की महिलाएं एकजुट होकर महिला दिवस मनाती हैं। मगर हकीकत में यह सब बातें सरकारी दावों व कागजों तक ही सिमट कर रह जाती हैं। देश की अधिकांश महिलाओं को तो आज भी इस बात का पता नहीं है कि महिला दिवस का मतलब क्या होता है। महिला दिवस कब आता है कब चला जाता है। भारत में अधिकतर महिलायें अपने घर-परिवार में इतनी उलझी होती हैं कि उन्हें बाहरी दुनिया से मतलब ही नहीं होता है, लेकिन इस स्थिति को बदलने का बीड़ा महिलाओं को स्वयं उठाना होगा। जब तक महिलायें स्वयं अपने सामाजिक स्तर व आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं करेंगी तब तक समाज में उनका स्थान गौण ही रहेगा।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान का जरूर कुछ असर दिखने लगा है। इस अभियान से अब देश में महिलाओं के प्रति सम्मान बढऩे लगा है। जो इस बात का अहसास करवाता है कि आने वाले समय में महिलाओं के प्रति समाज का नजरिया सकारात्मक होने वाला होगा। विकसित देशों की तुलना में हमारे देश में महिलाओं की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी नहीं है। आज भी महाराष्ट्र के बीड़, गुजरात के सूरत, भुज में घटने वाली महिला उत्पीडऩ की घटनायें सभ्य समाज पर एक बदनुमा दाग लगा जाती हैं। देश में आज भी सबसे ज्यादा उत्पीडऩ महिलाओं का ही होता है। आये दिन महिलाओं के साथ बलात्कार, हत्या, प्रताडऩा की घटनाओं से समाचार पत्रों के पन्ने भरे रहते हैं। महिलाओं के साथ आज के युग में भी दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है। बाल विवाह की घटनाओं पर पूर्णतया रोक ना लग पाना एक तरह से महिलाओं का उत्पीडऩ ही है। कम उम्र में शादी व कम उम्र में मां बनने से लड़की का पूर्ण रूपेण शारीरिक व मानसिक विकास नहीं हो पाता है। 
आज हम बेटा बेटी एक समान की बातें तो करते हैं मगर बेटी होते ही उसके पिता को बेटी की शादी की चिंता सताने लग जाती है। समाज में जब तक दहेज लेने व देने की प्रवृत्ति नहीं बदलेगी तब तक कोई भी बाप बेटी पैदा होने पर सच्चे मन से खुशी नहीं मना सकता है।

महिला दिवस पर देश भर में अनेकों स्थान पर कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। मगर अगले ही दिन उन सभी बातों को भुला दिया जाता है। समाज में अभी पुरुषवादी मानसिकता मिट नहीं पायी है। समाज में अपने अधिकारों एवं सम्मान पाने के लिए अब महिलाओं को स्वयं आगे बढऩा होगा। देश में जब तक महिलाओं का सामाजिक, वैचारिक एवं पारिवारिक तौर पर उत्थान नहीं होगा तब तक महिला सशक्तिकरण की बातें करना बेमानी होगा।

-रमेश सर्राफ धमोरा
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