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अहमदाबाद। परम मंगलकारी मानव का यह भव मिला है, गुरु का संग पाया तो शुभ प्रेरणा मिलेगी, जबकि संसारी का संग पाया तो शुभ के साथ अशुभ की प्रेरणा ज्यादा मिलने की संभावना है। मानवी को बचपन से ही अलग अलग प्रकार की प्रेरणा मिलती है। जैसे कि महाराज साहेब के पास व्याख्यान में जाएंगे तो सतत शुभ कार्यों को करने की प्रेरणा मिलेगी। दीक्षा लेने जैसी है, उपधान श्रावक के बारह व्रत-साधर्मिक भक्ति-जीवदया-तीर्थ यात्रा तप-स्वाध्याय-जिनवाणी श्रवण विगेरे शुभ कार्यों करने जैसे है। संसार में ज्यादातर अशुभकार्य करने की ही प्रेरणा मिलती है। जैसे धंधे में अनीति करनी ही चाहिए नहीं तो घर नहीं चलेगा, किसी के साथ बोलो तो सिंह की तरह निर्डर बनो, बकरे की तरह चुप रहकर नहीं जीना। यह जीवन मौज शोक करने के लिए ही है, इसलिए होटल-हिल स्टेशन वगैरह स्थानों में मजा लेने जाना ही चाहिए।
अहमदाबाद में बिराजित प्रखर प्रवचनकार, संत मनीषि, प्रसिद्ध जैनाचार्य, प.पू. राजयश सूरीश्वरजी महाराजा श्रोताजनों को संबोधित करते  हुए फरताते हंै शुभ-अशुभ इन दोनों प्रेरणा में से कौन सी प्रेरणा ग्रहण करने जैसी है वह हमारी हाथ में है। शुभ प्रेरणा जीवन में आशीर्वाद रूप बनती है तथा जीवन का विकास करने वाली बनती है। माता-पिता-परिवार-समाज का नाम रोशन करने वाली बनती है। अशुभ प्रेरणा जीवन में अभिशाप रूप बनकर जीवन का विनाश करने वाले तथा माता-पिता-परिवार समाज का नाम बदनाम करने वाली बनती है।
धनावह शेठ की कन्या वज्रस्वामी के गुणों को सुनकर उस पर मोहित हुई। उसने मन ही मन तय कर लिया था कि मैं शादी करूंगी तो सिर्फ वज्रस्वामी से ही ओर किसी से नहीं। यह बात पिता जान जाता है अपनी बेटी को खूब समझाने की कोशिश करता है फिर भी वह मानने को तैयार नहीं होती है आखिर में पिता, वज्रस्वामी के पास सुवर्ण का थाल लेकर जाते है। अरे। ये क्या है मेरे चरणों में क्यों रखा है। साहेब! आप मेरी बेटी के साथ शादी करो उसकी यह भेंट है। वज्रस्वामी ने कहा, आप घर जाकर अपनी बेटी को मेरे पास भेजो। सेठ खुश होकर घर गए। दूसरे दिन अपनी बेटी को साथ ले जाए। गुरू भगवंत ने सेठ की कन्या को संसार की असारता का उपदेश दिया। आज तक जीव ने अनंती बार एक दूसरे के साथ संबंध किए। देवलोक में अप्सरा जैसी देवीओं के साथ अनेक बार विषय सुखों को इस जीव ने भोगा है फिर भी उसे संतोष नहीं है तो इस भव में उसे संतोष कहां से होगा?
प्रवचन की धारा को आगे बढ़ाते हुए पूज्यश्री फरमाते है विषय सुख किंपाक फल की तरह है। जिस तरह किंपाक फल खाने में मीठा है परंतु थोड़ी देकर में उसका जहर चढऩे लगता है तब मानव मृत्यु की गोद में चला जाता है इसी तरह विषयसुख शुरू शुरू में अच्छा है परंतु उसी विषय सुख के द्वारा उत्पन्न हुए पाप उदय में आते है विषय सुखों को छोड़कर आत्म सुखों का अनुभव करने के लिए प्रयत्नशील बनों। उसके लिए संयम ही एक श्रेष्ठ उपाय है। सेठ की पुत्री रागी में से विरागी बनी तथा विरागी में वीतराग बनने के लिए प्रभु वीर के पंथ पर चल पड़ी।
वज्रस्वामी के धनावह सेठ की पुत्री की अशुभ भावना को नहीं स्वीकारी। जीवन को बरबाद होने से बचाया। सेठ की पुत्री ने वज्रस्वामी की शुभ प्रेरणा को स्वीकार करके अपने जीवन को आबाद बनाया। शुभ प्रेरणा जीवन को नंदनवन बनाती है जबकि अशुभ प्रेरणा जीवन को रेगिस्तान बनाती है पूज्यश्री फरमाते है आज तक हमने संसार के कार्यों करने के लिए दूसरों को खूब प्रेरणाओं करके पाप की ही गटरी बांधी है। हमें अबतय करना है कि अच्छे कार्य की प्रेरणा करने में कभी पीछे नहीं हटूंगा तथा खराब कार्य की प्रेरणा करने में कभी आगे नहीं आऊंगा। शुभकार्य की प्रेरणा में प्रयत्नशील बनकर शीघ्र आत्मा से परमात्मा बनूं-बस।