Head Office

SAMVET SIKHAR BUILDING RAJBANDHA MAIDAN, RAIPUR 492001 - CHHATTISGARH

डॉ. दर्शनी प्रिय
हाल ही में शिक्षा के विज्ञापन से जुड़ी एक रिपोर्ट सार्वजनिक हुई, जो न केवल चौंकाती है, बल्कि संबंधित मानकों पर प्रश्न चिन्ह भी लगाती है। भारतीय विज्ञापन मानक परिषद के अनुसार शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाप्रदाता कंपनियों के विज्ञापन ग्राहकों को ब्रांड के बारे में सबसे ज्यादा भ्रमित करते हैं। चालू वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में कुल शिकायतों में लगभग दो-तिहाई इस क्षेत्र से संबंधित हैं। जाहिर है, शिक्षण संस्थान अपना हित साधने के लिए छात्रों के हितों से खिलवाड़ करने से बाज नहीं आ रहे।
एक पुरानी मार्केटिंग रणनीति कहती है, जो दिखता है वही बिकता है। प्रतियोगी दबाव और अभिभावकों की आकांक्षाओं के कारण कोचिंग क्लासेज और शैक्षिक संस्थानों की बाढ़ आ गई है। आज यह क्षेत्र आय के सबसे बड़े क्षेत्रों में से एक है, फिर भी इसे देश के सबसे अनियमित क्षेत्रों में गिना जाता है। इन स्थितियों से निपटने के लिए देश में प्रभावी कानून नहीं है। शैक्षिक संस्थानों के बीच छात्रों को आकर्षति करने के लिए दावे आश्चर्यजनक रूप से सबसे महत्वपूर्ण माध्यम बनकर उभरे हैं, जिनमें बड़े होर्डिंग से लेकर चमचमाते बैनर शामिल होते हैं। लेकिन इनकी वास्तविकता को मापने का कोई मानक तरीका नहीं है। 
शिक्षा के व्यवसायीकरण और गलाकाट प्रतियोगिता ने ऐसी स्थितियों के रास्ते सुगम बनाए हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं से संबंधित विज्ञापनों की हालत तो और भी ज्यादा खराब है, जहां नामचीन संस्थानों का हवाला देकर ऐसे दावे किए जा रहे हैं जिनमें बेहतर भविष्य के सपने होते हैं। आकर्षक नारों वाले ऐसे संस्थान बाजार में एक खास रणनीतिक सोच के साथ उतरते हैं, जहां येन केन प्रकारेण विस्तृत नामांकन सूची दिखा भारी संख्या में छात्रों को अपने संस्थानों के प्रति आकर्षति करना ही उनका अंतिम लक्ष्य होता है। सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों से आए छात्र बिना जांच-पड़ताल किए केवल बड़े-बड़े दावे और लुभावने पोस्टर देख आसानी से इनके जाल में फंस जाते हैं। भारत जैसे देश में जहां 45 करोड़ से ज्यादा लोगों के पास आज इंटरनेट की आसान पहुंच है, विशेषकर युवाओं तक इसकी सुलभता को देखते हुए शैक्षिक संस्थान इसका जमकर फायदा उठा रहे हैं। प्रिंट माध्यमों से सूचनाएं जहां अपेक्षाकृत धीमी गति से पहुंचती हैं, वहीं इंटरनेट मीडिया के जरिये ये ज्यादा तेजी से छात्रों के मन-मस्तिष्क पर दस्तक दे रही हैं। चमकीले विज्ञापनों के जरिये शिक्षा का नुकसान ही किया जा रहा है। 
शिक्षा किसी भी राष्ट्र की रीढ़ है। अनुकूल परिस्थितियों में उन्नत व उत्पादक शिक्षा के माध्यम से सर्वव्यापी सफलता अर्जति की जा सकती है। लेकिन यदि भ्रामक दावों और खोखली शिक्षा पद्धति के जरिये शिक्षा का विपणन होने लगे तो यह अधोपतन की ओर अग्रसर करती है। शिक्षा का पेशेवराना चलन भावी पीढ़ी की शैक्षिक जड़ों को खोखला करेगी जिससे उनका बौद्धिक विकास प्रभावित होगा और उत्पादकता शून्य होगी। हाल ही में राष्ट्रीय शिक्षा आयोग ने कहा है कि शिक्षा वस्तु नहीं है और छात्र उपभोक्ता नहीं है, और इसे सभी मानक शैक्षिक संस्थानों को मानना चाहिए। 
राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग ने कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के खिलाफ छात्रों द्वारा दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा कि असत्य दावों को अनुचित व्यापार व्यवहार माना जाए और उन पर सख्त कार्रवाई की जाए। विडंबना है कि हमारे समाज में जागरूकता की कमी के चलते ज्यादातर लोग वस्तुओं या शिक्षा संबंधी विज्ञापनों के दावों को सही मान लेते हैं और वास्तविकता की पड़ताल नहीं करते। जबकि किसी भी उपभोक्ता का चाहे वह शिक्षा का ही क्यों न हो, उसे यह अधिकार होना चाहिए कि वह उत्पाद के विज्ञापन में दर्शाए गए गुणवत्ता की मांग करे और ऐसा न होने पर संबंधित संस्थान के खिलाफ शिकायत करे।