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शशि शेखर
आज से ठीक एक साल पहले के आशंकित और आतंकित दिनों को याद कीजिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 22 मार्च को 'जनता कफ्र्यूÓ का आह्वान किया था। समूचे देश के पहिए थम गए थे, दुकानों के शटर नहीं उठे थे, कल-कारखानों की मशीनें बंद हो गई थीं और बेहद जरूरी सेवाओं के अलावा लोगों ने सब कुछ खुद-ब-खुद ठप कर दिया था। प्रधानमंत्री ने स्वास्थ्यकर्मियों, पुलिस बलों और जरूरी कामकाज से जुड़े लोगों का हौसला बढ़ाने के लिए उसी शाम पांच बजे पांच मिनट ताली, थाली और घंटी बजाने का आह्वान किया था। जाहिर है, वह देश के खास-ओ-आम को मानसिक तौर पर आने वाले दिनों के लिए तैयार कर रहे थे।
दुनिया के तमाम हिस्सों से उन दिनों भयावह खबरें आ रही थीं। चीन का वुहान एक ऐसे शहर में तब्दील हो गया था, जहां अनजाना वायरस उसकी संतानों को लीले चला जा रहा था। यूरोप और अमेरिका दहशत की गर्त में डूब-उतरा रहे थे, पर भारत में हालात उतने खराब नहीं थे, इसीलिए जनता कफ्र्यू को लोगों ने तैयारी का प्रतीक माना था। यह बात अलग है कि कुछ सयाने जरूरी सामान अपने घर में इक_ा करने लग पड़े थे। हालांकि, उन्हें मालूम न था कि यह तो सिर्फ ढलती दोपहर है, अवसाद की कालिख अब लंबे समय तक हमें जकड़े रहेगी। यही वजह है कि 24 मार्च से जब लॉकडाउन की घोषणा की गई, तब कोई सोच भी नहीं सकता था कि अगले 69 दिन घरों में बंद रहने के हैं। यह महामारी बेघरों और बदनसीबी के मारों के लिए तो और अधिक निर्मम साबित होने जा रही थी। महानगरों के दड़बों और चॉलों में रहने वाले लोग एक झटके में बेरोजगार हो गए। हजारों किलोमीटर दूर से अपना वतन छोड़कर वे इन शहरों में अच्छे जीवन और आने वाली पीढिय़ों के लिए जो सपने बुनकर आए थे, वे तार-तार होने लगे। कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले दिनों में हमने मुंबई, दिल्ली, हैदराबाद और बेंगलुरु जैसे महानगरों से मुफलिसों के कारवां उस मिट्टी की ओर लौटते देखे, जिसके पास उन्हें अपनाने की कुव्वत नहीं थी। वे मोहभंग के दिन थे।
लोग अक्सर सरकार पर आरोप लगाते हैं कि उसने बेहद कड़ा लॉकडाउन थोपकर इन लोगों के पेट पर लात मारी। ऐसा कहने वाले भूल जाते हैं कि भारत जैसे देश में, जहां स्वास्थ्य सेवाएं आधी-अधूरी और अपरिपक्व हैं, वहां इस वैश्विक महामारी से लोगों की जीवन-रक्षा के लिए कोई और उपाय भी तो नहीं था। कुछ लोगों को यह आरोप शुरुआती तौर पर इसलिए सच लगा, क्योंकि उस दिन तक संक्रमण के कुल 536 मामले पुष्ट हुए थे और लगभग 135 करोड़ की आबादी वाले देश में दस लोगों ने इस महामारी से जान गंवाई थी। कुतर्क दिए जा रहे थे कि इससे ज्यादा लोग तो एक छोटे से भूभाग में प्रतिदिन होने वाली सड़क दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं। वे बोल तो सही रहे थे, पर संसार के सबसे प्रतिष्ठित शोध संस्थानों को आशंका थी कि भारत जैसी घनी आबादी वाले विकासशील देश में मृतकों की संख्या करोड़ों में हो सकती है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने तो अपनी संसद में यहां तक कह दिया था कि हम लोगों को अपने कुछ प्रियजनों से विछोह के लिए तैयार हो जाना चाहिए। वह कुछ दिनों पहले तक तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ कोरोना का मजाक उड़ा रहे थे। उसी दौरान हमने संसार के सबसे धनी-मानी देश अमेरिका के विचलित करने वाले चित्र देखे, जिनमें वर्तुल नहर की शक्ल में भूमि का लंबा टुकड़ा खोदकर लाशें दफनाई जा रही थीं, क्योंकि कब्रिस्तान पहले से पट चुके थे। ऐसे में, आशंका शास्त्रियों द्वारा भारत के प्रति व्यक्त किए गए अनुमान डराते थे। आज एक साल बाद भारत के आंकड़े उन्हें गलत साबित करते हैं। अब तक एक करोड़, 15 लाख से अधिक लोग आधिकारिक तौर पर इस वायरस के शिकार हुए हैं और एक लाख, 59 हजार लोगों को जान गंवानी पड़ी है। उन लोगों के प्रति अफसोस रखते हुए भी यह कहने की इजाजत चाहूंगा कि भारत में अपेक्षाकृत मृत्यु-दर एक फीसदी के आसपास रही, जो विश्व के धनी और व्यवस्था संपन्न देशों से काफी कम है। क्या बिना लॉकडाउन के यह संभव था?
ऐसा नहीं है कि सरकार लॉकडाउन लगाकर सो गई थी। देश में पिछली 31 मार्च तक वायरस जांच के लिए कुल 183 लैब उपलब्ध थीं। आज 2,400 से ज्यादा प्रयोगशालाएं इस काम में जुटी हुई हैं। अस्पताल भी ऐसी महामारियों के लिए तैयार नहीं थे। इस दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद कमान संभाली और कई दौर में मुख्यमंत्रियों से संवाद किया, स्वास्थ्यकर्मियों का हौसला बढ़ाया और टीके के शोधकर्ताओं से लगातार संपर्क करते रहे। यही वजह है कि भारत अपनी सीमाओं के बावजूद टीका विकसित करने वाले देशों की अग्रिम पंक्ति में जा खड़ा हुआ। आज हम लगभग 70 देशों को टीके की खुराक मुहैया करवा रहे हैं। यह लड़ाई अभी जारी है। इस दौरान राजनीतिक मतभेदों के बावजूद केंद्र और राज्य सरकारों ने तालमेल की अनूठी मिसाल कायम की। जो लोग भारत के संघीय ढांचे पर सवाल उठाते रहते हैं, उनकी आंखों में आंखें डालकर कहा जा सकता है कि गुजरा एक साल हमारी जिजीविषा और एकात्मकता की जीती-जागती मिसाल है। इस दौरान सामाजिक, आर्थिक और आचार-व्यवहार के मामले में तमाम तकलीफदेह उदाहरण सामने आए, पर इसमें कोई दोराय नहीं कि आम हिन्दुस्तानी में दुख-दर्द सहकर आगे बढऩे की अद्भुत क्षमता है। यह ठीक है कि कोरोना ने करारा आर्थिक झटका दिया है, पर यह भी तथ्य है कि भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी के दौर से बाहर निकल खरामा-खरामा आगे बढ़ चली है। 
यह सिलसिला तभी जोर पकड़ सकेगा, जब हमारी दुनिया कोरोना के चंगुल से पूरी तरह मुक्त हो जाएगी। ऐसा कब संभव होगा, इस सवाल का जवाब आज देना असंभव है, क्योंकि कोरोना के कहर ने फिर से तेजी पकड़ ली है। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश में लॉकबंदी के दिन लौट आए हैं। सार्वजनिक जलसों पर पाबंदी लगा दी गई है। स्कूल-कॉलेज बंद कर दिए गए हैं। विवाह समारोहों में 50 और अंतिम संस्कार के मौके पर महज 20 व्यक्तियों के इक_ा होने की इजाजत है। पंजाब, गुजरात में रात्रि कफ्र्यू की वापसी हो चुकी है। प्रधानमंत्री मोदी इस मामले में ढील नहीं देना चाहते, इसीलिए उन्होंने गुजरे बुधवार को मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक की। हो सकता है कि आने वाले दिनों में कुछ और पाबंदियां लागू की जाएं, पर मसला सिर्फ सरकारी प्रयासों का नहीं है।
इससे जूझने के लिए जरूरी है कि हम-आप उस सामाजिक दूरी और अनुशासन का पालन करें, जिसमें कुछ दिनों से हिन्दुस्तानियों ने ढील दे रखी है। भूलें नहीं, महामारी से निपटने का एक ही उपाय है- हमारी, आपकी, सबकी सावधानी।