विवेक ओझा
पड़ोसी देशों के प्रति भारत का रवैया हमेशा से उदार रहा है। भारत ने श्रीलंका में भारतीय मूल के तमिलों को मानवतावादी सहायता प्रदान करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। वर्तमान परिदृश्य के तहत थोड़ा पीछे जाएं तो 1956 में श्रीलंका सरकार ने 'सिंहलीज ओनली बिलÓ पारित किया जिसका मुख्य उद्देश्य तमिलों को उनके अधिकारों से वंचित करना था, ताकि सिंहली बहुसंख्यक समुदाय का सामाजिक, राजनीतिक, आॢथक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में प्रभुत्व बना रह सके। वर्ष 1972 में श्रीलंका का नया संविधान निॢमत किया गया और तमिलों की अपेक्षाएं इसमें भी पूरी नहीं की गईं।
नए संविधान में सिंहली को राष्ट्रभाषा और बौद्ध धर्म को आधिकारिक मान्यता दी गई। तमिलों ने अपने लिए जिन मांगों को श्रीलंका सरकार के समक्ष रखा था उनको नहीं माना गया। उनकी मुख्य मांगें हैं : प्रथम श्रेणी की नागरिकता का दर्जा, निर्णय निर्माण प्रक्रिया में हिस्सेदारी के साथ राजनीतिक प्रतिनिधित्व, सामाजिक आॢथक नियोजन में हिस्सेदारी, तमिल भाषा को आधिकारिक मान्यता, तमिल संस्कृति, सभ्यता और जीवन शैली के साथ भेदभाव और हस्तक्षेप न करने की मांग, बुनियादी सुविधाओं और अवसंरचनाओं के निर्माण की मांग जिसमें प्राथमिक शिक्षा, स्वास्थ्य, विद्युत, सड़क, कृषि आदि शामिल थे।
इसी क्रम में श्रीलंकाई सेना ने 1976 के बाद लिट्टे विद्रोहियों का भीषण दमन करना शुरू किया। तमिल स्वायत्तता की मांग के साथ तमिलों ने सिंहलियों की हत्याएं भी कीं। वर्ष 1983 में कोलंबो में तमिल विरोधी हिंसा शुरू हो गई। तमिलों के मारे जाने से तमिलनाडु की भावनाएं आहत हुईं। उस समय भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने वायु मार्ग और समुद्री जहाजों से तमिलों को खाद्य सामग्री, दवाइयां और अन्य आवश्यक रसद सामग्री उपलब्ध कराई थी। तब तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमजी रामचंद्रन ने इसके लिए नई दिल्ली जाकर भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मुलाकात कर उन्हें 1971 के पूर्वी पाकिस्तान के प्रकरण में भारतीय सहायता के तर्ज पर तमिलों को सहायता देने का निवेदन किया था। इसी समय जब भारत सरकार को एक रिपोर्ट के जरिये सूचना मिली कि श्रीलंका सरकार ने तमिल सिंहली विवाद में अमेरिका, ब्रिटेन, पाकिस्तान और बांग्लादेश से सहायता का निवेदन किया है तो भारत के विदेश मंत्री ने दो अगस्त, 1983 को विभिन्न विदेशी शक्तियों से श्रीलंका के नृजातीय संघर्ष के मामले से बाहर रहने का आग्रह किया। पाकिस्तान जो कथित तौर पर श्रीलंका के गृहयुद्ध में राहत सहायता और सैन्य सहायता उपलब्ध करा रहा था, उसे इस संघर्ष में हस्तक्षेप करने का कोई अवसर भारत नहीं देने का पक्षधर था। इंदिरा गांधी ने कहा था कि तमिलों के साथ किए जाने वाले अन्याय की स्थिति में भारत मूकदर्शक नहीं बना रह सकता। 29 जुलाई 1983 को भारतीय विदेश मंत्री नरसिंह राव को श्रीलंका भेजा गया, ताकि हालात का सही मूल्यांकन किया जा सके। भारत के इन सब सक्रिय पहलों को श्रीलंका और सिंहलियों ने अपने आंतरिक मामलों, संप्रभुता और प्रादेशिक अखंडता का अतिक्रमण समझा। कालांतर में भारत ने तमिल पृथकतावादियों और श्रीलंका की सरकार के मध्य मध्यस्थता कराने का प्रयास किया। इधर 1987 तक लगभग डेढ़ लाख श्रीलंकाई तमिल शरणार्थी भारतीय राज्य तमिलनाडु में आ चुके थे।
इसके बाद अस्तित्व में आए राजीव-जयवर्धने एकॉर्ड के क्रियान्वयन के लिए श्रीलंका का 13वां संविधान संशोधन लाया गया जिसमें तमिलों की मांग को पूरा करने के लिए अनेक प्रविधान किए गए। इसमें तमिल क्षेत्रों में वित्तीय मामलों और उनके हितों को सुनिश्चित करने के लिए वित्त आयोग के गठन का भी प्रविधान किया गया। इस समझौते में तमिल को श्रीलंका की आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दिया गया। सर्वाधिक महत्वपूर्ण रूप में इसमें उत्तरी पूर्वी प्रांत में उच्च न्यायालयों की स्थापना का भी प्रविधान किया गया। साथ ही, 13वें संविधान संशोधन के तहत श्रीलंका को नौ प्रांतों में वर्गीकृत किया गया जिसका प्रशासन एक निर्वाचित मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाले परिषद द्वारा किया जाना था। इस संशोधन के तहत उत्तर और पूर्वी प्रांत का विलय कर एक एकल उत्तर पूर्वी प्रांत बनाया गया। इसके बावजूद 13वें संविधान संशोधन के कई प्रविधानों को अभी तक लागू नहीं किया गया है जिससे तमिल स्वायत्तता की मांग सही अर्थो में अभी भी पूरी नहीं हो सकी है। भूमि और वित्तीय अधिकार अभी भी तमिलों को प्रदान नहीं किया गया है। श्रीलंका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति ने भी जनवरी 2020 में स्पष्ट किया कि 13वें संविधान संशोधन के कुछ प्रविधानों को लागू नहीं किया जा सकता और श्रीलंका सरकार कुछ वैकल्पिक व्यवस्था पर विचार करेगी।
श्रीलंका सरकार का साथ देने का औचित्य : वर्तमान भू-अर्थ प्रधान विश्व में दक्षिण एशिया उभरती अर्थव्यवस्थाओं के क्षेत्र के रूप में महत्वपूर्ण शक्ति का केंद्र बनता जा रहा है। ऐसे में भारत अपनी पड़ोसी प्रथम नीति के तहत पड़ोसी देशों के साथ विवादों के शांतिपूर्ण समाधान और सहयोग के अवसरों की तलाश पर अधिक बल दे रहा है। भारत का प्रयास सुरक्षा प्रदायक और विकास भागीदार के रूप में पड़ोसी देशों में विद्यमान बिग ब्रदर सिंड्रोम को दूर करने के लिए भी जारी है। इस संदर्भ में भारत के लिए भौगोलिक रूप से रणनीति के केंद्र में अवस्थित श्रीलंका महत्वपूर्ण हो जाता है, लेकिन दोनों देशों के परंपरागत संबंध तमिल संकट, मछुआरों से संबंधित विवाद जैसे मुद्दों के कारण अविश्वास और पूर्वाग्रह पर आधारित रहे हैं। हालांकि तमिल अतिवादी संगठन लिट्टे की समाप्ति के बाद दोनों देशों के संबंधों में सुधार की व्यापक उम्मीद जताई गई थी, लेकिन इस दौरान भी भारत की घरेलू राजनीति और तमिल क्षेत्रीय दलों के दबाव के कारण भारत की श्रीलंका से दूरी बनी रही। इस संदर्भ में वर्ष 2003-2009 के मध्य श्रीलंका में हुए गृहयुद्ध में श्रीलंकाई सेना पर निदरेष तमिलों के गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन का आरोप लगा था। जबकि इसी दौरान चीन द्वारा न केवल मानवाधिकार उल्लंघन के प्रश्न पर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर श्रीलंका का समर्थन किया गया, बल्कि गृहयुद्ध और प्राकृतिक आपदा से प्रभावित श्रीलंका की कमजोर अर्थव्यवस्था को व्यापक स्तर पर आॢथक मदद भी दी गई।
परिणामस्वरूप श्रीलंका चीन पर अत्यधिक निर्भर होता गया और भारत के स्वाभाविक क्षेत्र में चीन का नियंत्रण बढ़ता गया। लेकिन वर्ष 2014 के बाद दोनों देशों के संबंधों में फिर से सकारात्मक बलवाव आया। वर्ष 2014 में भारत में एक पूर्ण बहुमत की सरकार गठित हुई, अत: अब तमिल क्षेत्रीय दलों की भारतीय विदेश नीति के निर्धारण में भूमिका नहीं रही। इसी पृष्ठभूमि में भारतीय प्रधानमंत्री की श्रीलंका यात्र हुई, जहां उनके द्वारा सागर नीति की घोषणा की गई और श्रीलंका के साथ संबंधों को नए सिरे से परिभाषित किया जाने लगा। दूसरी ओर श्रीलंका निरंतर चीन के कर्ज जाल में फंसता गया और हंबनटोटा बंदरगाह चीन के पास जाने के बाद उसकी संप्रभुता पर ही प्रश्न उठने लगे। अत: श्रीलंकाई सरकार वर्तमान में सामरिक स्वायत्तता की नीति के आधार पर अपनी विदेश नीति को विविधीकृत करने का प्रयास कर रही है, जिससे चीन पर बढ़ती निर्भरता कम की जा सके। अत: वर्तमान श्रीलंका सरकार भारत से संबंधों को प्राथमिकता दे रही है।
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