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राजीव दासगुप्ता, प्रोफेसर, सामुदायिक स्वास्थ्य, जेएनयू

देश में कोरोना मरीजों की संख्या 12 लाख तक पहुंच जाना हमारे लिए चिंता की बात तो है ही, वैश्विक स्तर पर भी शोचनीय है, क्योंकि यह संकेत है कि अब दक्षिण एशिया विश्व में नए हॉटस्पॉट के रूप में उभर रहा है। शुरुआत में कुछ उम्मीदें बंधी हुई थीं, क्योंकि यहां संक्रमण और मौत के आंकडे़ बड़ी आबादी व जनसंख्या घनत्व को देखते हुए कम थे। लॉकडाउन भी अपेक्षाकृत जल्दी लगाया गया, जो कुछ पड़ोसी देशों की तुलना में कहीं ज्यादा सख्त भी था। मगर अब अनलॉक की तस्वीर सामने है। आर्थिक और रोजगार संबंधी चुनौतियों को देखते हुए लोगों को बहुत ज्यादा दिनों तक घरों में रोकना संभव नहीं था।

अनलॉक के दौरान देश भर में कोरोना के नए मामलों की संख्या 8,500 रोजाना से बढ़कर 40,000 तक हो चुकी है। बेशक मरीज के ठीक होने की दर भी सुधर रही है, लेकिन सक्रिय मामले और सेहतमंद हो चुके मरीजों के बीच एक बड़ा अंतर है। लॉकडाउन-1 में आर-जीरो (रीप्रोडक्शन नंबर, यानी संक्रमित मरीज द्वारा अपने संक्रमण-काल में दूसरे लोगों को संक्रमित करने की औसत संख्या) 1.74 थी, जो लॉकडाउन-4 में घटकर 1.09 हो गई। यह लॉकडाउन का एक बड़ा फायदा था। मगर अनलॉक में यह संख्या बढ़कर 1.17 हो चुकी है, जिस पर गौर करने की जरूरत है। साफ है, प्रतिदिन सामने आ रहे नए मामलों में हाल-फिलहाल किसी तरह की कमी की संभावना नहीं है।

बहरहाल, संक्रमण के दैनिक मामलों को कुछ हद तक थामने में दिल्ली ने उल्लेखनीय सफलता हासिल की है। तमिलनाडु भी स्थिति पर काबू पाता दिख रहा है। गुजरात में भी सुधार के संकेत हैं। मगर कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बिहार जैसे कई सूबों में वायरस का प्रसार अब तेजी से हो रहा है।
तो क्या देश में सामुदायिक संक्रमण की शुरुआत हो चुकी है? विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, कुछ कारकों के आधार पर स्थानीय स्तर पर व्यापक संक्रमण की पुष्टि की जा सकती है। जैसे, ज्यादातर मामलों में संक्रमण की कड़ी, यानी ट्रांसमिशन चेन का पता न चल पाना, सेंटिनल निगरानी (कंटेनमेंट जोन या आस-पास के अस्पतालों में बीमारी के लक्षण वाले मरीजों के रिकॉर्ड रखने का काम) में बड़ी संख्या में संक्रमण का सामने आना, और/ अथवा देश, क्षेत्र या इलाके के विभिन्न हिस्सों में जहां-तहां समूह में मरीजों का मिलना। भारत सरकार फिलहाल विश्व स्वास्थ्य संगठन को ‘क्लस्टर ऑफ केसेज’ की इत्तिला दे रही है, जिसका अर्थ है कि झुंड के रूप में मामले सामने आ रहे हैं। इंडोनेशिया और बांग्लादेश जैसे देशों को छोड़कर, जहां की सरकारों ने सामुदायिक संक्रमण को कुबूल किया है, उपमहाद्वीप के दूसरे तमाम पड़ोसी राष्ट्र ‘क्लस्टर ऑफ केसेज’ शब्दों का ही इस्तेमाल कर रहे हैं।

जाहिर है, आगे की चुनौतियां कई हैं। कल ही बेंगलुरु में सप्ताह भर के लॉकडाउन की समाप्ति की घोषणा करते हुए राज्य के मुख्यमंत्री ने जोर देकर कहा कि लॉकडाउन समाधान नहीं है... काम पर लौटना लोगों की जरूरत है। उनका यह बयान बताता है कि हमारे देश में लॉकडाउन कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि यहां काम करने वाली एक बड़ी आबादी अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़ी है और कॉन्ट्रेक्ट (संविदा) पर नौकरी कर रही है। सामाजिक सुरक्षा के नाम पर भी ये लोग खाली हाथ हैं। हालांकि, कई राज्यों में सप्ताह के अंत में या हफ्ते में दो-तीन दिनों के  लॉकडाउन की वापसी हो गई है, लेकिन इससे बहुत ज्यादा फायदा होने की उम्मीद नहीं है। हां, थोड़ा-बहुत लाभ जरूर मिल सकता है।

हमें ट्रेस-ट्रैक-टेस्ट-ट्रीट की रणनीति पर आगे बढ़ना चाहिए, जिससे धारावी (मुंबई) में उल्लेखनीय सफलता मिली है। इस रणनीति के तहत देश की इस सबसे बड़ी झोपड़पट्टी में मरीजों के संपर्क-जाल को खोजा गया, सभी के टेस्ट किए गए और उनके इलाज की व्यवस्था की गई। एक सच यह भी है कि बृहन्मुंबई महानगरपालिका हमारे देश की सबसे प्रभावशाली नगर निकायों में एक है। दूसरे और तीसरे दर्जे के शहरों की अपेक्षाकृत कम संपन्न नगरपालिकाओं के लिए इस रणनीति को दोहराना मुश्किल होगा। शोचनीय यह भी है कि आईसीएमआर द्वारा मई में देश के 10 हॉटस्पॉट के कंटेनमेंट जोन में किए गए सीरो-सर्वे का नतीजा बताता है कि धारावी में एकत्र किए गए 36 फीसदी सैंपल में कोविड-19 के खिलाफ एंटीबॉडी मौजूद थे। इस सर्वे में सबसे अधिक अहमदाबाद के एक इलाके में 40 फीसदी सैंपलों में एंटीबॉडी पाए गए हैं। यह साफ संकेत है कि इन क्षेत्रों में संक्रमित मरीजों की जो संख्या सामने आ रही है, वह असलियत से बहुत कम है। धारावी में तेजी से संक्रमण थमने की एक वजह यह भी है, जबकि वहां सख्त लॉकडाउन के बावजूद संक्रमण का प्रसार ज्यादा था, क्योंकि शहरी झुग्गी बस्तियों और अधिक जनसंख्या घनत्व वाले पुराने शहरों में दो गज की दूरी का पालन बहुत संभव नहीं हो पाता।

ब्लूमबर्ग  की रिपोर्ट बताती है कि बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, झारखंड और ओडिशा जैसे राज्यों में महानगरीय हॉटस्पॉट से प्रवासी कामगारों के अत्यधिक संख्या में वापस लौटने के कारण नए मामलों में तेज वृद्धि हुई है। नीति आयोग भी मानता है कि देश के 112 अतिगरीब ग्रामीण जिलों में से 98 में अब यह वायरस अपने पांव पसार चुका है। एक लंबे लॉकडाउन का मकसद देश के स्वास्थ्य तंत्र को मजबूत बनाना भी था। साफ है, अब इन इलाकों में इस तंत्र की परीक्षा होगी। यहां स्वास्थ्य ढांचा को बेहतर बनाने और उन्हें लगातार मदद दिए जाने की जरूरत है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने अपने हालिया बयान में बताया है कि देश भर में अब तक 100 से अधिक डॉक्टरों की मौत कोरोना से हो चुकी है, जबकि 1,300 से अधिक संक्रमण के शिकार हुए हैं। नर्सों व अन्य स्वास्थ्यकर्मियों की भी मौत हुई है और व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (पीपीई किट) की कमी को लेकर भी तमाम तरह के बयान सामने आ रहे हैं। जाहिर है, महामारी के कई नए मोर्चे हमारे सामने हैं। हम सामूहिक प्रयास और सहयोग से ही इन चुनौतियों से पार पा सकते हैं।
(उक्त लेख लेखक के अपने निजी विचार हैं)