जयंत घोषाल, वरिष्ठ पत्रकार
यह 1960 के दशक के आखिरी वर्षों की बात है। तब पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री अजॉय मुखर्जी थे। वह वाम मोर्चा और बांग्ला कांग्रेस की संयुक्त सरकार 'यूनाइटेड फ्रंटÓ की अगुवाई कर रहे थे। मगर एक दिन वह खुद ही कलकत्ता (अब कोलकाता) में इसलिए धरने पर बैठ गए, क्योंकि उनके मुताबिक, पश्चिम बंगाल में कानून-व्यवस्था काफी खराब हो चली थी। यह घटना किसी को भी अप्रत्याशित लग सकती है कि भला कोई मुख्यमंत्री अपनी ही सरकार के खिलाफ क्यों आंदोलन करेगा? लेकिन ऐसा पश्चिम बंगाल में हुआ, क्योंकि राज्य में उस समय गृह मंत्री माकपा नेता ज्योति बसु थे, जिनके और जिनकी पार्टी के साथ मुख्यमंत्री मुखर्जी की तनातनी चल रही थी। यानी, बांग्ला कांग्रेस के मुख्यमंत्री का वह माकपा के गृह मंत्री के खिलाफ धरना था।
इस घटना की याद फिर से हो आई है, क्योंकि इसी राज्य में एक मुख्यमंत्री ने चुनाव आयोग के खिलाफ धरना दे दिया। विधानसभा के कुरुक्षेत्र में ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि चुनाव आयोग ने उनको 24 घंटे के लिए चुनाव प्रचार से रोक दिया था। मगर इस धरने से कई सवाल उठ खड़े हुए हैं? क्या एक सांविधानिक पद पर बैठा कोई व्यक्ति किसी सांविधानिक संस्था के खिलाफ धरना दे सकता है? क्या इससे हमारी लोकतांत्रिक परंपरा कमजोर होती है? क्या इससे चुनावी लोकतंत्र के प्रति लोगों का मोहभंग होगा? या क्या ऐसी कोई घटना हमें अराजकता की ओर ले जाएगी? चुनावी रण इन उलझनों को कितना सुलझा पाएगा, यह तो वक्त के हवाले है, लेकिन कूच बिहार की घटना पूरे 'नैरेटिवÓ को ही बदलती दिख रही है। इसकी शुरुआत सबसे पहले किसने की, यह कहना मुश्किल है, क्योंकि सुरक्षा बलों की फार्यंरग में हुई मौतों के बाद ममता बनर्जी ने संवाददाता सम्मेलन में आरोप लगाए थे कि केंद्र सरकार की शह पर गोलियां चलाई गईं। उनके ये भी सवाल थे कि पांव के बजाय गोली शरीर के ऊपरी हिस्से में क्यों मारी गई? लाठीचार्ज वगैरह क्यों नहीं किया गया? जवाब में सुरक्षा बलों ने यही कहा है कि भीड़ उनके हथियार छीनने की कोशिश कर रही थी। मगर दिलचस्प यह है कि पूरी घटना का एक भी वीडियो फुटेज किसी पार्टी ने जारी नहीं किया है। आम जनता ने भी ऐसा कोई वीडियो सोशल मीडिया पर नहीं डाला है। सीपीएम नेता इस ओर इशारा कर भी रहे हैं और पूछ रहे हैं कि जब आज हर घटना मोबाइल के कैमरे में कैद हो जाती है, तब कूच बिहार का एक भी वीडियो फुटेज क्यों नहीं सामने आ रहा? बहरहाल, ममता बनर्जी को जवाब देने खुद प्रधानमंत्री मैदान में उतर आए। उन्होंने मुख्यमंत्री को कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि 'दीदीÓ शुरू से ही चुनावों में केंद्रीय अद्र्धसैनिक बलों की तैनाती के खिलाफ थीं, इसलिए उन्होंने आम जनता को उकसाया। आज भी वह 'घेरावÓ की बात कर रही हैं। नतीजतन, भाजपा और तृणमूल कांग्रेस में जबर्दस्त 'तू-तू, मैं-मैंÓ शुरू हो गई है। एक समय था, जब ममता बनर्जी विपक्ष की नेता के तौर पर आक्रामक राजनीति खूब किया करती थीं। एक मूक-बधिर लड़की से बलात्कार की वारदात के बाद वह उसे लेकर मुख्यमंत्री ज्योति बसु के खिलाफ 'राइटर्स बिल्डिंगÓ चली आई थीं। पुलिस ने उनको रोकने के लिए लाठीचार्ज किया था, जो उन दिनों की एक बड़ी घटना बन गई थी। सिंगूर, नंदीग्राम जैसे इलाकों में भी जब वाम सरकार की नीतियों के कारण लोगों को परेशानी हुई, तब ममता सामने आईं, जिनका उन्हें पर्याप्त राजनीतिक लाभ भी मिला और चुनावों में उन्होंने वाम सरकार को सत्ता से बेदखल कर दिया। दिलचस्प यह है कि ममता की इस आक्रामक राजनीति का जवाब दिल्ली में बैठे प्रकाश कारात या सीताराम येचुरी जैसे नेता शायद ही देते थे। मगर आज जब ममता मुखर हैं, तो खुद प्रधानमंत्री और गृह मंत्री उनके खिलाफ 'काउंटर नैरेटिवÓ गढ़ रहे हैं। ऐसा पश्चिम बंगाल में पहले कभी नहीं हुआ था। गृह मंत्री ने तो यहां तक कहा है कि ममता बनर्जी कूच बिहार की घटना में मारे गए चार लोगों का तो जिक्र कर रही हैं, लेकिन पांचवीं मौत पर चुप हैं, क्योंकि उन्हें मृत्यु में भी तुष्टीकरण करनी है। ममता बनर्जी मतदान की शुरुआत से ही भाजपा पर हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण के आरोप लगाती रही हैं। इसीलिए उन्होंने चुनावों में 'बंगाली अस्मिताÓ का कार्ड खेला है और भाजपा नेताओं के खिलाफ बार-बार 'बाहरीÓ जैसे शब्दों को दोहरा रही हैं। यह काफी हद तक दक्षिण की तमिल राजनीति की तरह है। भाजपा इस रणनीति को बखूबी समझ रही है, इसीलिए वह भी हिंदू मत के साथ-साथ अब बंगाली अस्मिता की वकालत कर रही है। प्रधानमंत्री खुद इतना ज्यादा बांग्ला बोल रहे हैं, जितना पूर्व में किसी प्रधानमंत्री ने शायद ही बोला होगा। हालांकि, बंगाली अस्मिता को लेकर कभी यहां आमार बांगाली पार्टी का भी जन्म हुआ था, लेकिन वह सफल नहीं हो सकी। तो क्या यह चुनाव 'जय श्रीरामÓ बनाम 'बंगाली अस्मिताÓ का होगा? फिलहाल ऐसा नहीं लगता, क्योंकि अब तक के चारों चरणों में कोई एक मुद्दा प्रभावी नहीं रहा है। हां, कूच बिहार की घटना के बाद जिस तरह से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशें हो रही हैं, वे अगले चरणों में कितना असर डालेंगी, इस पर नजर बनी रहेगी। अभी बंगाल के उत्तरी और दक्षिणी हिस्सों में मत डाले जाएंगे, जहां मुस्लिम वोट काफी ज्यादा है। मगर ये वे मुसलमान हैं, जो बांग्ला अधिक बोलते हैं, उर्दू कम। रही बात इंडियन सेक्युलर फ्रंट की, तो भाजपा की आक्रामक राजनीति के कारण मुस्लिम वोट शायद ही उसके पाले में जाते दिख रहे हैं, अलबत्ता अल्पसंख्यकों के तृणमूल के साथ जाने के अनुमान ही लगाए जा रहे हैं। ऐसे में, देखना दिलचस्प होगा कि कूच बिहार की घटना, गृह मंत्री के बयान और मुख्यमंत्री के पलटवार से जो सियासी माहौल बन रहा है, उसका कितना असर मतदाताओं पर होता है। पश्चिम बंगाल की आम जनता राजनीतिक रूप से काफी मुखर मानी जाती रही है, लेकिन फिलहाल उसने चुप्पी ओढ़ रखी है।
यह 'अंडर करेंटÓ किसके लिए है, यह जानने के लिए हमें 2 मई का इंतजार करना होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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