डॉ. एके वर्मा
बंगाल की विशाल चुनावी रैलियां हों या हरिद्वार कुंभ में स्नान के लिए श्रद्धालुओं की भीड़, चैत्र-नवरात्र में माता दुर्गा के स्वागत की धूम हो या रमजान में खरीदारी की चहल-पहल, लगता है कि कोरोना के कहर को हम सभी दु:स्वप्न की तरह भूलना चाहते हैं, पर वैक्सीन आने के बावजूद कोविड-19 महामारी सुरसा के मुंह की तरह अपना प्रकोप बढ़ाती ही जा रही है। कोई भी महामारी सामान्यत: स्वास्थ्य संबंधी संकट होती है, लेकिन कोरोना वायरस से उपजी कोविड-19 महामारी तो उससे बहुत आगे जाकर हमारे लोकतंत्र, समाज, संस्कृति और जीवन के सभी पहलुओं को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। पिछले वर्ष अक्टूबर-नवंबर में जैसे-तैसे बिहार विधानसभा चुनाव हुए।
अभी बंगाल में विधानसभा चुनाव समेत कई राज्यों में पंचायत चुनावों की गूंज है, जिनमें मास्क, सैनिटाइजर और शारीरिक दूरी का पालन नहीं हो पा रहा है। भारी मतदान इसका सूचक है कि हमारे लोकतंत्र का जुनून कोरोना के हमले को निष्प्रभावी करने पर आमादा है, चाहे उसकी कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े, पर यह कीमत बहुत भयानक है। पिछले वर्ष हमारा ध्यान केवल र्आिथक-मंदी तथा मजदूरों और गरीबों की बदहाली पर गया था। र्आिथक संकटों को सहने का तो हमें अनुभव है, पर कोरोना के अभूतपूर्व हमले ने न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था, वरन राजनीतिक व्यवस्था, पारिवारिक वातावरण, सामाजिक संबंधों, सांस्कृतिक मूल्यों, र्धिमक क्रिया-कलापों और वैयक्तिक एवं सामाजिक मनोविज्ञान को भी चुनौती दी है। कैसे इस चुनौती से निपटा जाए?
देश में प्राय : लोकसभा, विधानसभा, शहरी-निकाय या पंचायत के चुनाव चलते ही रहते हैं। लोकतांत्रिक चुनावों का स्वरूप ऐसा है कि उसमें कोरोना प्रोटोकॉल का पालन करना व्यावहारिक नहीं होता। प्रत्याशियों का जुलूस में चलना, पदयात्राएं निकालना, मतदाताओं से हाथ-मिलाना, गले-मिलना, पैर-छूना, आशीर्वाद प्राप्त करना, भोजन और जल आदि ग्रहण करना आदि अनेक ऐसी क्रियाएं हैं, जो चुनावों के दौरान अपरिहार्य हैं। भारत में इस पर विराम नहीं लग सकता, चाहे कितनी भी कोशिश कर ली जाए। क्या कोरोना को अपनी संक्रामकता बढ़ाने का इससे बेहतर कोई अवसर मिल सकता है? तो क्या लोकतंत्र और करोना के कहर में कोई संतुलन बनाया जा सकता है? यह एक चुनौती है, जो हमें चुनावों की बारंबारता घटाने और एक-साथ सभी चुनाव कराने पर गंभीरता से सोचने का अवसर देती है, जिससे लोकतंत्र और कोविड-19 अथवा ऐसी किसी अन्य महामारी के टकराव को न्यूनतम किया जा सके।
इसके अलावा चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों में आम सहमति बनाकर लोकसभा और विधानसभा चुनावों में रैलियों और सभाओं को वर्चुअल मोड पर लाने की कोशिश करनी चाहिए। सभी राजनीतिक दलों के स्टार प्रचारकों को रेडियो और टीवी पर मतदाताओं को संबोधित करने का अवसर मिले, जिससे रैलियों और सभाओं में मास्क न पहनने तथा शारीरिक दूरी का पालन न करने आदि की समस्याओं से छुटकारा मिल सके। इतना ही नहीं, चुनाव आयोग मतदाताओं को मतदान तिथि से पूर्व मतदान का विकल्प दे सकता है, जैसा अमेरिका में है। वहां कोई भी मतदाता मतदान तिथि से 40 दिन पूर्व निर्वाचन कार्यालय जाकर अपना मत दे सकता है। भारत में भी ऐसी व्यवस्था बनाई जा सकती है।
कोरोना का पारिवारिक और सामाजिक संबंधों पर हमला कुछ ज्यादा ही गंभीर है। ये संबंध भावनात्मक होते हैं। कोरोना के डर से जन्मोत्सव, शादी-विवाह, तीज-त्योहार या मृत्यु के अवसर पर परिवार के लोग भी उसमें शामिल नहीं हो पा रहे हैं। सबको अपने प्राण प्यारे हैं। प्राणांत या एकांत में चयन का कोई विकल्प नहीं। इससे वैयक्तिक एवं पारिवारिक भावनाओं को जो ठेस पहुंच रही है और उससे सामाजिक संबंधों में जिस तरह का बदलाव हो रहा है, वह अपनी संस्कृति के विपरीत है। रहीमदास ने कहा है, 'रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाए, टूटे से फिर न जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाए।Ó कोरोना हमारे पारिवारिक और सामाजिक संबंधों में प्रेम के जिस धागे को तोड़ रहा है, वह हमें आगे बहुत भारी पडऩे वाला है। आज इंटरनेट मीडिया सामाजिक संबंधों को सहेजने के विकल्प के रूप में आया है, लेकिन उस पर बन-बिगड़ रहे वर्चुअल संबंधों को अपने वास्तविक सामाजिक संबंधों के रूप में परिभाषित करने से बचना होगा। इंटरनेट मीडिया प्लेटफॉर्म जैसे फेसबुक, वाट्सएप, ट्विटर आदि को ये अधिकार नहीं देना है कि वे हमारे संबंधों की कोमलता, भावनात्मकता और प्रगाढ़ता को नियंत्रित करें।
कोरोना ने सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन को भी बुरी तरह आहत किया है। भारतीय समाज एक उत्सवधर्मी समाज है, जिसमें हर समय कोई न कोई उत्सव चलता रहता है। सबसे मिलना-जुलना, साथ में खाना-पीना, हंसना-बोलना आदि हमारे दैनिक जीवन के अभिन्न अंग हैं, जो हमें ऊर्जा, उत्साह, उमंग और उम्मीद से भर देते हैं। कोरोना ने उसे छीनने का काम किया है। लोग एक-दूसरे से बच रहे हैं। शायर इकबाल अजीम ने इसे कुछ यूं कहा है, 'जो नजर बचा के गुजर गए, मेरे सामने से अभी-अभी; ये मेरे ही शहर के लोग थे, मेरे घर से घर है मिला हुआ।Ó कोरोना तो एक दिन चला जाएगा, लेकिन सामाजिक संबंधों और जीवन के मूल्यों पर जो घाव दे जाएगा, उसे भरने में लंबा वक्त लगेगा। इसके प्रति हम सभी को सतर्क रहना होगा। कोरोना का हमला चौतरफा है। इसे केवल स्वास्थ्य समस्या के रूप में नहीं, वरन सामाजिक-सांस्कृतिक एवं राजनीतिक-आर्थिक समस्या के रूप में देखने की जरूरत है। प्रत्येक समाज को अपनी-अपनी सामाजिक संरचना और मूल्यों के अनुसार इससे लडऩा होगा, लेकिन एक बात साझा है कि इस संघर्ष में वैयक्तिक स्तर पर अपना मनोविज्ञान ठीक रखने की बेहद जरूरत है। सामान्यत: अस्वस्थ होने पर हमें अपने स्वजनों और शुभचिंतकों की बहुत जरूरत होती है, पर यह एक ऐसी समस्या है कि इसमें हम अपने और अपनों से काट दिए जाते हैं। बेहद अकेले हो जाते हैं। इस स्थिति में केवल अपना आत्मबल, संकल्प-शक्ति, सकारात्मकता और आशावादी दृष्टिकोण ही हमारा सबसे बड़ा हथियार है।
उसी के सहारे कोरोना के हमले को निष्प्रभावी करने में हम अपना गिलहरी-प्रयास कर सकते हैं।
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