Head Office

SAMVET SIKHAR BUILDING RAJBANDHA MAIDAN, RAIPUR 492001 - CHHATTISGARH

ललित गर्ग
भारतीय चिंतन में उन लोगों को ही राक्षस, असुर या दैत्य कहा गया है जो समाज में तरह-तरह से अशांति फैलाते हैं। असल में इस तरह की दानवी सोच वाले लोग सिर्फ अपना स्वार्थ देखते हैं। ऐसे लोग धन-संपत्ति आदि के जरिए सिर्फ अपना ही उत्थान करना चाहते हैं, भले ही इस कारण दूसरे लोगों और पूरे समाज का कोई अहित क्यों न हो रहा हो। धर्म कहता है कि विश्व को श्रेष्ठ बनाओ। यह श्रेष्ठता तब ही आएगी जब कुटिल चालों से मानवता की रक्षा की जाएगी। ऐसा करने की आवश्यकता कोरोना महामारी ने भलीभांति समझायी है।
आज भौतिक मूल्य अपनी जड़ें इतनी गहरी जमा चुके हैं कि उन्हें निर्मूल करना आसान नहीं है। मनुष्य का संपूर्ण कर्म प्रदूषित हो गया है। सारे छोटे-बड़े धंधों में अनीति प्रवेश कर गई है। यदि धर्म, प्रकृति एवं जीवन मूल्यों को उसके अपने स्थान पर सुरक्षित रखा गया होता तो कोरोना महाव्याधि की इतनी तबाही कदापि न मचती। संकट इतना बड़ा न होता।
समाज की बुनियादी इकाई मनुष्य है। मनुष्यों के जुडऩे से समाज और समाजों के जुडऩे एवं संगठित होने से राष्ट्र बनता है। यदि मनुष्य अपने को सुधार ले तो समाज और राष्ट्र अपने आप सुधर जायेंगे। इसलिए परोपकार, परमार्थ की महिमा बताई गई है। मनुष्यों के जीवन और कृत्य के परिष्कार के लिए उससे बढ़कर रास्ता हो नहीं सकता। अगर मनुष्य का आचरण सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, त्याग एवं संयम आदि पर आधारित होगा तो वह अपने धंधे में किसी प्रकार की बुराई नहीं करेगा और न जीवन में विसंगतियों की धुसपैठ नहीं होने देगा। जीवन की शुद्धता कर्म की शुद्धता की आधार-शिला है। धर्म मनुष्य के भीतर की गंदगी को दूर करता है और जिसके भीतर निर्मलता होगी, उसके हाथ कभी दूषित कर्म नहीं करेंगे। मन को निर्मल बनाने के लिये कृतज्ञ होना जरूरी है। लेखिका-शिक्षिका डेना आकुरी कहती हैं कि जो कुछ भी आपके पास है, आप उसके लिए अगर कृतज्ञता जाहिर कर पाते हैं तो आप वास्तव में वर्तमान में जी पाते हैं। मनोवैज्ञानिक शोध भी बताते हैं कि कृतज्ञ बनने से न सिर्फ शरीर, बल्कि दिल की सेहत भी अच्छी रहती है।Ó कोरोना महामारी से मुक्ति के लिये कृतज्ञता का भाव जरूरी है।
कृतज्ञता तब जन्म लेती है, जब हम नकारने की बजाय स्वीकार्यता या सराहना का दृष्टिकोण अपनाकर जीवन से अपना नया रिश्ता कायम करते हैं। यहां ग्रीक दार्शनिक एपिक्यूरस की इस उक्ति को याद करने की जरूरत है- जो नहीं है, उसके बारे में सोचकर उन चीजों को न खोएं, जो आपके पास हैं। याद रखें, आज जो कुछ भी आपके पास है, कभी वह भी सिर्फ एक उम्मीद ही रहा होगा।Ó कोरोना महामारी ने जीवन को नये सिरे से, नये मूल्यों के साथ जीने की सीख दी है, विवशता दी है। मनुष्य अब ज्यादा दु:खी हो रहा है। वह समझने लगा है कि धर्म, प्रकृति एवं नैतिकता के बिना उसका विस्तार नहीं है, किन्तु भोगवादी जीवन का वह अब इतना अभ्यस्त हो गया है कि बाह्य आडम्बर की मजबूत डोर को तोड़कर सादा, संयममय और सात्विक जीवन अपनाना उसके लिए कठिन हो रहा है। इसी कठिनता से उबारने के लिए नीति एवं नैतिकता का जीवन जरूरी है। नीति बल यानी धर्म की शक्ति सर्वोपरि है। जातियां, प्रजाएं, सत्ताएं न पैसे से टिकती हैं और न सेना से। एकमात्र नीति की नींव पर ही टिक सकती है। अत: मनुष्य मात्र का कर्तव्य है कि इस विचार को सदा मन में रखकर परमार्थ और परोपकार रूपी नीति का आचरण करें।
जिन्होंने जिंदगी में दुख नहीं देखा हो, जो लोग कठिनाइयों से नहीं गुजरे हों, जिन्हें सबकुछ आसानी से मिल गया हो, वे जीवन की गहराइयों को नहीं समझ पाते। ऐसे लोगों को कोरोना ने जीवन की गहराई को समझने का अवसर दिया है, भले ही ऐसे लोग जरा सी मुश्किल आने पर दूसरों को कोसते हैं और खुद निराशा में घिर जाते हैं। कष्ट एक अभ्यास है। परेशानी अपने आप में एक पुरुषार्थ है। विपरीत परिस्थितियां विकास का मार्ग हैं। जो इनसे गुजरते हैं वे अपनी मनोभूमि और अंतरात्मा में अत्याधिक सुदृढ़ हो जाते हैं। इनके लिए हर संकट अगले नए साहस का जन्मदाता होता है। जीवन में जब ऐसी स्थितियां आएं तो हमेशा मस्त रहिये। मस्त रहना है तो व्यस्त रहना सीखें। यही कहा जाता है। बात भी गलत नहीं है। लेकिन हम व्यस्त तो बहुत दिखते हैं, मस्त नहीं। दरअसल हम अस्त-व्यस्त ज्यादा होते हैं। बिजी होना और माहिर होना एक बात नहीं है। बिजी दिखने से ज्यादा जरूरी है प्रोडक्टिव होना, सकारात्मक होना।
तुम तो बिजी ही होंगे! यह कहकर दोस्त तो सरक गया। पर सुनने वाले का सुकून भी चला गया। यूं आजकल सभी बहुत बिजी होते हैं। बिजी होना एक फैशन भी है। कुछ देर के लिए खास होने का एहसास भी दिला सकता है। लेकिन ज्यादातर अपने बिजी होने की दुहाई देने को मजबूर दिखते हैं और यह चुभता है ऐसे बिजी लोगों को कोरोना ने कटू सच्चाइयां का साक्षात्कार करा दिया है। शोध तो कहते हैं कि बिजी होना सफल होना भी है, यह कोरा भ्रम है। सफलता के लिए हर समय व्यस्त रहने या दिखने की जरूरत नहीं है।
जोडऩा और जुडऩा हमारी जरूरत है। पर हर चीज जोड़ी नहीं जाती, न ही जोड़े रखी जा सकती। भले ही आपको बहुत सारा जोड़कर ही खुशी मिलती है तो भी बुराई नहीं है। पर तब समेटने और संभाल कर रखने का हुनर होना भी जरूरी है। सामान हो या रिश्ते, अगर हर समय बिखरे रहते हैं तो यह जानना जरूरी है कि पोटली का हल्का होना ही क्यों बेहतर होता है। हम ऐसे समय में जी रहे हैं, जहां हमें ज्यादा से ज्यादा सामान खरीदने के लिए उकसाया जाता है। थोड़ा हमारे पास होता है। थोड़े की जरूरत होती है। जरूरत पूरी हो जाती है, पर और ज्यादा जमा करने की चाह पीछा नहीं छोड़ती। आगे-पीछे के नाम पर हम बस जोड़ते ही रहते हैं। कई बार झुंझलाते है। अपने ही जोड़े हुए से उकता भी जाते हैं, पर जमा करते रहने से बाज नहीं आते। चीजें बिखरी रहती हैं। कई बार समय पर नहीं मिलतीं। उन चीजों को खरीद बैठते हैं, जो पहले से ही पास होती हैं। बेवजह का बोझ उठाए रखना ही जरूरी लगने लगता है। यह बात देर में समझ आती है कि जरूरत तो थोड़ी ही थी। हमारी परिग्रह की यह सोच अनेक समस्याओं का कारण बनती है। धन हर समस्या का समाधान नहीं है। इसी चिंतन में ठीक लिखा है ''जिसके पास केवल धन है उससे बढ़कर गरीब कोई नहीं।ÓÓ एक महापुरुष ने यहां तक कहा है कि मुझसे धनी कोई नहीं है क्योंकि मैं सिवाय परमात्मा के किसी का दास नहीं हूं। यदि धन संपत्ति ही सब कुछ होती तो संसार में कोरोना महामारी से अमीर नहीं मरते। 
कोरोना का शिकार अमीर और गरीब दोनों हो रहे हैं। क्यों उसको त्यागते और क्यों उस पारसमणि को पाने की लालसा रखते जिसके स्पर्श से लोहा भी कुंदन बन जाता है? वह पारसमणि आत्मा है। इसकी प्राप्ति के उपरांत पाने को कुछ शेष नहीं रह जाता। इसलिए जरूरी है कि हम आत्मा से आत्मा को देखे, आत्मा से आत्मा का मिलन करे। यही आत्मा से परमात्मा तक की हमारी यात्रा होगी जो हमारे जीवन को सार्थक दिशा दे सकेगी और यही कोरोना जैसे महासंकट में कैसे जीया जाये, को वास्तविक दिशा देगी। अब जीवन में सबकुछ बदल चुका है, इस बदले हुए जीवन के अर्थ को समझना ही कोरोनामय वातावरण में जीवन को सुखी, स्वस्थ एवं सार्थक करने का माध्यम है। प्रेषक: