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 संजय गुप्त 
कोविड महामारी की दूसरी लहर इतनी तेज और भयंकर है कि उसकी कल्पना सरकार और जनता के साथ-साथ चिकित्सा जगत के विशेषज्ञों ने भी नहीं की थी। फिलहाल यह कहना कठिन है कि यदि संक्रमण की इतनी तेज लहर की चेतावनी पहले से होती तो क्या चिकित्सा जगत और सरकारी मशीनरी उसका सामना आसानी से कर पाती और जनहानि को रोका जा सकता था? आज अस्पतालों में अव्यवस्था के जैसे हृदयविदारक दृश्य इंटरनेट मीडिया और टीवी चैनलों पर देखने को मिल रहे हैं, उनसे तो यह लगता है कि यदि दूसरी लहर की व्यापकता का भान होता तो सैकड़ों लोगों की जान बचाई जा सकती थी। आज संकट केवल ऑक्सीजन की कमी का ही नहीं, जीवनरक्षक दवाओं का भी है और अस्पताल बेड का भी।
कुछ दवाइयों की किल्लत तो इसलिए पैदा हो गई है, क्योंकि कोरोना संक्रमण का असर कम होने पर उनके उत्पादन में कटौती कर दी गई थी। अब स्थिति यह है कि मुनाफाखोरों ने इन दवाओं की कालाबाजारी शुरू कर दी है। इसके अलावा लोगों ने जरूरत न होते हुए भी उन्हें खरीदकर रख लिया है। इस समय ऑक्सीजन की भी खासी किल्लत है और इसकी वजह यह है कि योजना के बाद भी समय पर नए ऑक्सीजन प्लांट नहीं शुरू किए जा सके। अभी ऑक्सीजन को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने के लिए विदेशों से कंटेनर लाए जा रहे हैं। साथ ही वे उद्योग भी उसकी आपूर्ति अस्पतालों को कर रहे हैं, जो उसका उपयोग अपने यहां करते थे। इसके बाद भी उसकी कमी देखने को मिल रही है। कुछ लोग बिना जरूरत इस कारण ऑक्सीजन सिलेंडर घर पर रखे हुए हैं कि शायद आगे काम आए। इससे यही पता चलता है कि लोग चिकित्सा तंत्र पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं।
अपने देश का स्वास्थ्य ढांचा पहले से ही कमजोर है। हमारे अस्पतालों में मरीजों के साथ तीमारदार भी होते हैं और मरीजों की हालत को लेकर डॉक्टरों से सवाल करते रहते हैं। कई बार डॉक्टरों के पास इन सवालों के जबाव देने का समय नहीं होता। इससे लोगों का शिकायती स्वर तेज होता है। आम भारतीयों का अस्पतालों पर भरोसा इसलिए भी नहीं, क्योंकि चिकित्सा तंत्र को सुधारने के अपेक्षित प्रयास नहीं किए गए। सरकारी अस्पतालों का हाल तो इतना खराब है कि वहां पर उच्च मध्यम वर्ग के लोग जाना ही नहीं चाहते। दूसरी ओर निजी अस्पताल मुनाफाखोरी के लिए जाने जाते हैं। वहां लोग ऐसे अनुभवों से खूब गुजरते हैं कि जब तक एक निश्चित रकम जमा न कर दी जाए, तब तक मरीज का उपचार शुरू नहीं होता, भले ही वह कितनी भी गंभीर हालत में हो। भारत में अनावश्यक टेस्ट कराने, उपचार में देरी करने या गलत दवाएं देने या फिर बढ़ा-चढ़ाकर बिल बनाने की शिकायतें भी आम हैं। कई बार ये शिकायतें सही भी होती हैं। यह कहना कठिन है कि ऐसी स्थिति विकसित देशों में नहीं है, क्योंकि वहां तीमारदार या मीडिया अस्पतालों के अंदर नहीं घूम रहा होता। 
इन दिनों देसी-विदेशी मीडिया देश के कमजोर स्वास्थ्य ढांचे की खबर लेने के साथ सरकार को कठघरे में खड़ा कर रहा है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया का एक वर्ग सरकार पर कुछ ज्यादा ही हमलावर है। वह इसकी अनदेखी कर रहा है कि 130 करोड़ की आबादी वाले भारत में मृत्यु दर यूरोप और अमेरिका से कहीं कम है। जिन कारणों से विकसित देशों में कोरोना मरीजों की मौत हुई, उन्हीं कारणों से भारत में भी हो रही है, लेकिन विदेशी मीडिया भारत के मामले में अलग मापदंड अपनाए हुए है। जब अमेरिका और यूरोप में प्रतिदिन हजारों की संख्या में कोरोना मरीज मर रहे थे, तब विदेशी मीडिया अपने अस्पतालों की बदहाल स्थिति और सरकारी तंत्र की नाकामी पर सवाल उठाने से बच रहा था। उसके दोहरे रवैये से यह सच छिपने वाला नहीं कि एक समय अमेरिका और यूरोप में भी स्वास्थ्य ढांचा नाकाफी साबित हो रहा था और इस कारण वहां भी अव्यवस्था थी। 
विकसित देशों और भारत में एक फर्क यह भी है कि यहां मरीजों के तीमारदार आइसीयू तक के वीडियो बनाने में सक्षम हो जाते हैं। इसी कारण भारत में अस्पतालों और कोरोना मरीजों की बदहाली की जैसी करुण कहानियां चारों ओर नजर आ रही हैं, वैसी विदेश में नहीं दिखतीं। विकसित देशों में तीमारदार अस्पतालों के चक्कर नहीं काटते, न मरीज की मौत के बाद सड़क पर हंगामा करते हैं और न ही इंटरनेट मीडिया पर भड़ास निकालते हैं। भारत में मरीज के मरने पर डॉक्टरों को पीटने और अस्पतालों में तोडफ़ोड़ की घटनाएं आम हैं। कई बार इन घटनाओं के फोटो और वीडियो मीडिया से लेकर अदालत तक में चर्चा का विषय बन जाते हैं। इससे भी लोगों का चिकित्सा जगत पर अविश्वास और बढ़ जाता है। 
यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि भारत में कोई भी यह अनुमान नहीं लगा सका कि कोरोना की दूसरी लहर इतनी व्यापक होगी। इस दूसरी लहर से निपटने के लिए कोई खास तैयारी नहीं की गई। अगर भारत को कोविड महामारी से बचना है तो टीकाकरण अभियान और तेज करना होगा। दुर्भाग्य से टीकाकरण पर भी सस्ती राजनीति हो रही है। बहुत दिन नहीं हुए, जब कांग्रेस शासित राज्य और खासकर पंजाब एवं छत्तीसगढ़ कोवैक्सीन लेने से इन्कार कर रहे थे। कुछ और राज्य टीकाकरण के प्रति उत्साह नहीं दिखा रहे थे या फिर टीकों के खराब होने की परवाह नहीं कर रहे थे। कम से कम अब तो उन्हे चेत जाना चाहिए, क्योंकि यह महामारी लंबे समय तक रह सकती है। सरकारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि अगले दो-तीन महीने में कम से कम देश की आधी आबादी का टीकाकरण हो जाए। ऐसा तभी हो पाएगा, जब टीकों की उपलब्धता बढ़ाकर सचमुच युद्धस्तर पर टीकाकरण किया जाएगा।  चूंकि इसकी पूरी आशंका है कि भारत में कोरोना संक्रमण की तीसरी लहर दूसरी से भी घातक हो सकती है, इसलिए यह जरूरी है कि समाज डॉक्टरों और चिकित्सा तंत्र पर विश्वास बनाए रखे। आखिरकार वे ही हमें मुसीबत से निकालेंगे और वे ही तीसरी लहर का मुकाबला करेंगे। संकट के इस दौर में ऐसा कुछ नहीं किया जाना चाहिए जिससे डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मियों का मनोबल प्रभावित हो। नि:संदेह यह भी जरूरी है कि अस्पताल बेड, ऑक्सीजन प्लांट, दवाओं की उपलब्धता बढ़ाने के साथ स्वास्थ्य कर्मियों की संख्या भी बढ़ाई जाए।
 यदि ऐसा नहीं किया गया तो हालात हाथ से निकल सकते हैं।