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नीरज कुमार दुबे
हमें कोई भी विश्लेषण करने से पहले देश की जनता के बदले मिजाज को समझना चाहिए। देश में जब वर्ष 2014 में स्पष्ट बहुमत की सरकार बनी थी तो ऐसा 30 वर्ष से ज्यादा समय के बाद हुआ था। देश ने गठबंधन सरकारों की मजबूरियों को बहुत सहा है।
कहा जा रहा है कि पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय दलों ने जिस तरह अपना बोलबाला दिखाया है वह राष्ट्रीय दलों के लिए खतरे की घंटी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि विधानसभा चुनाव परिणामों के बाद ममता बनर्जी, एमके स्टालिन, पिनारायी विजयन और एन. रंगासामी पहले से और ज्यादा मजबूत क्षेत्रीय ताकत के रूप में उभरे हैं। इसलिए ममता बनर्जी के बारे में तो भविष्यवाणी की जाने लगी है कि वह 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को टक्कर देने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन बनाने का प्रयास कर सकती हैं। इसके पीछे यह भी तर्क दिया जा रहा है कि विधानसभा चुनावों के प्रचार के बीच ही तृणमूल कांग्रेस की ओर से कहा गया था कि ममता बनर्जी प्रधानमंत्री को टक्कर देने के लिए वाराणसी जा सकती हैं इसलिए मोदी अपने लिये कोई दूसरी सीट ढूँढ़ लें। अब तृणमूल ने उस समय भले जो कहा हो लेकिन सवाल उठता है कि क्या ममता बनर्जी वाकई केंद्र की राजनीति में लौटना चाहती हैं? यह भी सवाल उठता है कि क्या ममता बनर्जी नेता के रूप में संयुक्त विपक्ष को मान्य होंगी? सवाल यह भी उठता है कि क्या कांग्रेस ममता बनर्जी के नेतृत्व में चुनाव लडऩा चाहेगी ? यहां यह भी याद रखे जाने की जरूरत है कि 'लोकतंत्र बचाओÓ अभियान के तहत ममता बनर्जी ने 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले भी राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी महागठबंधन बनाने का प्रयास करते हुए कोलकाता में बड़ी रैली का आयोजन किया था लेकिन वह प्रयास सफल नहीं हो सका था।
यहाँ हमको यह भी ध्यान रखे जाने की जरूरत है कि राज्यों के चुनाव में भाजपा को मात देने वाले क्षेत्रीय दल के नेता को एकाएक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुकाबले लाकर खड़ा कर दिया जाता है। अब चूँकि कांग्रेस राहुल गांधी के अलावा प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ खड़ा होने का मौका पार्टी के किसी और नेता को नहीं दे रही है और राहुल से इस कड़े मुकाबले का सामना किया नहीं जा रहा हो तो क्षेत्रीय दलों के नेताओं की महत्वाकांक्षा जागेंगी ही। अगर हम क्षेत्रीय दलों के बड़े नेताओं की बात करें तो उसमें एचडी देवेगौड़ा, शरद पवार, ममता बनर्जी, पिनारायी विजयन, नवीन पटनायक, एमके स्टालिन, अरविंद केजरीवाल, वाईएस जगन मोहन रेड्डी, के. चंद्रशेखर राव, फारुख अब्दुल्ला, चंद्रबाबू नायडू, उद्धव ठाकरे और मायावती जैसे नाम शामिल हैं। लेकिन सवाल उठता है कि क्या केंद्रीय स्तर पर बनने वाले संभावित मोर्चे के नेता के रूप में इनमें से किसी भी नाम को समर्थन देने के लिए कांग्रेस राजी होगी ? कांग्रेस की तो छोडिय़े इनमें से कुछ दल के नेता तो आपस में ही एक दूसरे की टाँग खींचने में लगे रहते हैं। दूसरा हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इनमें से अधिकांश दल या तो कांग्रेस से टूट कर बने हैं या समय-समय पर कांग्रेस की दया पर निर्भर रहे हैं। 
इसके अलावा हमें कोई भी विश्लेषण करने से पहले देश की जनता के बदले मिजाज को समझना चाहिए। देश में जब वर्ष 2014 में स्पष्ट बहुमत की सरकार बनी थी तो ऐसा 30 वर्ष से ज्यादा समय के बाद हुआ था। देश ने गठबंधन सरकारों की मजबूरियों को बहुत सहा है और 2014 तथा 2019 की स्पष्ट बहुमत वाली सरकार की कोई भी कार्य करने की राजनीतिक ताकत का कमाल भी देखा है। इसलिए आज की पीढ़ी स्पष्ट बहुमत वाली सरकार ही चुन रही है। केंद्र ही क्यों पिछले दस साल में जहां-जहां चुनाव हुए हैं तो एकाध अपवाद को छोड़ दें तो जनता ने सभी जगह या तो किसी एक पार्टी या फिर किसी चुनाव पूर्व गठबंधन को बहुमत प्रदान किया है। त्रिशंकु विधानसभाएं ही जब लगभग पुराने समय की बात हो गयी है तो त्रिशंकु संसद की तो कल्पना ही छोड़ दीजिये। ऐसे में महागठबंधन बनाने को आतुर रहने वाले क्षेत्रीय नेताओं को समझना होगा कि केंद्र में भाजपा से मुकाबला कांग्रेस के नेतृत्व में ही किया जा सकता है ना कि किसी क्षेत्रीय दल के नेतृत्व में बनने वाले गठबंधन से। जिस तरह विधानसभा चुनावों के समय क्षेत्रीय दल के नेता राष्ट्रीय दलों के नेताओं को यह समझाते हैं कि विधानसभा चुनाव क्षेत्रीय मुद्दों के आधार पर लड़े जाने चाहिए उसी तरह उन्हें समझना होगा कि देश के आम चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं। 
यह सही है कि बड़ी महत्वाकांक्षाएं रखनी ही चाहिए लेकिन अगर कोई नेता या पार्टी देश पर राज करना चाहती है तो उसका पूरा एजेंडा भी स्पष्ट होना चाहिए। जो लोग आज ममता बनर्जी या पिनारायी विजयन, अरविंद केजरीवाल या एमके स्टालिन को भविष्य के राष्ट्रीय नेता के रूप में देख रहे हैं उनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या भाजपा और कांग्रेस के अलावा किसी दल की कोई स्पष्ट आर्थिक या विदेश नीति है ? और अगर है तो क्या वह उसके बारे में जानत हैं। इसी तरह यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि रक्षा, संचार अथवा अन्य बड़े महकमों को चलाने का या उनको नयी दिशा देने का क्षेत्रीय दलों के पास क्या रोडमैप है ? बहरहाल, विधानसभा चुनाव 2021 के परिणाम भाजपा के लिए झटका कहे जा रहे हैं क्योंकि पार्टी ने जिस तरह की ऊर्जा इन चुनावों में लगायी थी उसके अनुरूप तो यह परिणाम नहीं ही हैं। अब पार्टी को अगली चुनौती अगले साल होने वाले पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में मिलेगी जहां उसे उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड में अपनी पार्टी की सरकार को बचाना है। यदि वह ऐसा करने में सफल रहती है तो कितने भी महागठबंधन बन जायें 2024 में उसकी राह रोकना आसान नहीं होगा। यदि उत्तर प्रदेश भाजपा के हाथ से फिसला तो यकीनन केंद्र के लिए मुश्किलें खड़ी हो जायेंगी क्योंकि यह तो सभी जानते हैं कि दिल्ली का गद्दी का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है।

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