अनिल त्रिवेदी
आजकल बच्चे मजे में हैं। बड़े बहुत परेशान हैं। महामारी से नहीं, माथापच्ची और बेबात की मारामारी से। बड़ों को इस समय बच्चों के भविष्य की भी बड़ी चिंता है। होना भी चाहिए बच्चे देश का भविष्य जो हैं। पर बच्चों को न तो वर्तमान की चिंता है, न भविष्य की। चिंता बच्चों का क्षेत्राधिकार नहीं, बड़ों का विशेषाधिकार है। बड़े इससे बड़े परेशान हैं कि बच्चे पढ़ाई में पिछड़ न जाएं।
पर ये तो उनकी बात हैं, जो स्कूल जाते थे और महामारी के चलते स्कूल नहीं जा रहे हैं। पर हमारे देश में बहुत बड़ी संख्या शायद करोड़ों में ऐसे बच्चे हैं, जो कभी स्कूल गए ही नहीं और बड़े मजे से अपनी मस्ती में मस्त हैं। उनके पास वर्तमान की भी मस्ती भी है और स्वनिर्मित चिंतामुक्त भरपूर भविष्य भी है। निराकार स्कूल के बच्चे, अपने आसपास से सीखते बच्चे। मस्ती में झूमते बच्चे। हमारे ही नहीं, दुनियाभर के देशों में ऐसे बच्चे कम-ज्यादा संख्या में मौजूद है।
आधुनिक काल में जो बना-बनाया और पका-पकाया समाधान निकाले जाने की नई धारा निकली है, उसका निचोड़ है कि हर बच्चे को शिक्षा पाने का अधिकार है। राजकाज की व्यवस्था का आनंद यह है कि देश के सारे बच्चों को क्या और कैसे इस अधिकार का लाभ पहुंचाया जाए, यह अभी तक स्पष्ट ही नहीं है सोच और व्यवस्था दोनों स्तरों पर। देश के हर हिस्से में दूरदराज से लेकर महानगरों तक बच्चे ही बच्चे हैं।
पर राजकाज की व्यवस्था हर जगह हो, ऐसा नहीं है। बच्चों के साथ एक मजेदार बात यह है कि वे व्यवस्था के पहुंचने का रास्ता नहीं देख सकते तो नतीजा यह होता है कि देश के करोड़ों बच्चे व्यवस्थागत शिक्षा के बगैर ही बड़े हो जाते है। इन या ऐसे बच्चों को बिना स्कूल गए वे सब बातें अपने घर-संसार को देखकर अपने आप करते आ जाती है, जो शायद राजकाज की या अराजकाज की शाला में पढऩे जाते तो वे बच्चे वह सब नहीं सीख पाते, जो वे बिना शाला गए अपने आप सीख गए। ऐसे बच्चे बचपन की मस्ती से भी नहीं वंचित हुए और जीवन जीने की जरूरतों को भी अपने आप सीख गए। जैसे जंगलों के झाड़-पेड़ बिना खाद-पानी व सार-संभाल के अपने आप घने जंगल में बदल जाते हैं।
हम इतने लंबे कालखंड के बाद भी यह बात नहीं समझ पाते कि बचपन के पास समय कम है। जिंदगी भले ही बहुत लंबी हो, पर बचपन तो एक अंक का ही काल है। इसी से शिशु अवस्था और बाल्यावस्था को किसी की कोई चिंता नहीं। चिंताविहीनता ही बच्चों की सबसे बड़ी ताकत है। जो निश्चलता, भोलापन और सरलता बचपन में होती है, वह बड़े होने पर न जाने कहां चली जाती है? पर हम बड़े लोग बच्चों से कुछ सीखना नहीं चाहते, निरंतर बच्चों को कुछ-न-कुछ सिखाते रहना चाहते हैं।
यदि हम बालमन को अपना गुरु मानें, तो हमारी कार्यपद्धति सरल और संवेदनशील हो सकती है खासकर बालशिक्षण के क्षेत्र में। बालकों के मन में जिज्ञासा का सागर होता है। उनकी जिज्ञासा का कोई ओर-छोर नहीं होता। उनके जिज्ञासामूलक अंतहीन सवालों से बड़े लोगों ने यह बात सीखनी चाहिए कि देखने-समझने की एक दृष्टि यह भी हो सकती है।
यदि बालमन को हम अपना गुरु माने लें, तो जीवन में व्यापक समझदारी का नया रास्ता खुल सकता है। बच्चों की अंतहीन जिज्ञासा ही उन्हें नई बातें सीखते रहने को प्रेरित करती रहती है। बालदृष्टि का मूल पकड़े बिना हम बालशिक्षण का ऐसा ढांचा खड़ा कर चुके हैं जिसमें हम बालमन की हमारी समझ पर खुद ही सवालिया निशान खड़ा कर देते हैं।
एक बच्चे और बड़े के बीच जो संवाद है, उसमें सहजता, धीरजता और निरंतरता की त्रिवेणी होनी चाहिए तभी बच्चों और बड़ों के आत्मीय संबंधों का विस्तार सहजता से संभव है। बच्चे निरंतर नई-नई बातें देखना, सुनना, समझना और जानना चाहते हैं और प्राय: बड़ों के पास उतना धीरज और समय नहीं होना बालशिक्षण की बड़ी समस्या है।
छोटे-छोटे गांवों के बच्चे घर से ज्यादा गांव में खेलते-घूमते हैं। एक तरह से गांव ही उनका घर होता है। आदिवासी क्षेत्र के बच्चे जंगल, पहाड़, नदी, कई तरह के पशु-पक्षी और वनस्पति, मछली, मुर्गी, अंडों के बारे में व्यापक समझ अपने आप बना लेते हैं। उन्हें अक्षर ज्ञान न के बराबर होता है, पर दैनंदिन जीवन का सामान्य ज्ञान अपने आप प्रत्यक्ष अनुभव से होता रहता है।
आज के काल में गांव, घर व समाज में बच्चे संस्थागत सरकारी शाला और खेत-खलिहान, नदी किनारा, जंगल, पहाड़, बकरी, मुर्गी, गाय, बैल, शाला न जाने वाले बच्चों में बंटते जा रहे हैं। जो बच्चे शाला नहीं जा रहे हैं, उनका अधिकांश अक्षर ज्ञानी तो नहीं है, पर इतनी सारी गतिविधियों से सीखने की सहज प्रक्रिया का क्रम चलता रहता है। हम में से अधिकांश यह मानकर चलते हैं कि बच्चों को निरंतर सिखाते रहना है। बच्चों के अपने आप करने और सीखने से बच्चे कहीं पिछड़ न जाए।
हम बच्चे के भविष्य को लेकर चिंतित रहते हैं, पर बच्चे माता-पिता व परिवार के सान्निध्य में मस्त और व्यस्त रहते हैं, साथ ही बचपन में अपने मन से कुछ-न-कुछ काम करना चाहते हैं, पर हम भयग्रस्त मन के कारण बच्चे को रोकते-टोकते रहते हैं। इससे बच्चों की सीखने की स्वाभाविक क्षमता कमजोर होती है। असुरक्षा के भय के कारण ही बाल शिक्षा का बड़ा बाजार आज खड़ा हो गया है। बाजार बच्चे के स्वाभाविक विकास की आधारभूमि खड़ी करने के बजाए अंतहीन प्रतिस्पर्धा का ऐसा चक्र हमारे मन-मस्तिष्क में डाल देते हैं जिससे निकलना हर किसी के बस में नहीं होता।
आज हम जहां आ खड़े हुए हैं, वहां हमारे सामने कुछ भी स्पष्ट नहीं है। हम समझ नहीं पा रहे हैं हम क्या करें? क्या न करें? इस स्थिति में बच्चे तो तेजी से अपने बचपन की मस्ती व शिक्षा जगत के असमंजस में खो रहे हैं। आधुनिक और आगामी दुनिया मनुष्य के पारस्परिक व्यवहार और समझ के बजाए यंत्राधारित जीवन-व्यवहार की दिशा में तेजी से बढ़ रही है जिसमें शहरी समाज के अधिकांश परिवारों के बच्चे अपने घरों में बैठे-बैठे अपने बड़ों को सारे कामों को यंत्र पर करते देख रहे हैं।
बच्चा न तो बड़ों से कुछ नया सीख पा रहा है और शहरी सभ्यता का बड़ा हिस्सा बच्चों को समय भी नहीं दे पाता है। बच्चे शहरी हो या ग्रामीण, अमीरों के हो या गरीबों के, वे अपने माता-पिता का ज्यादा से ज्यादा समय चाहते हैं। छोटे बच्चों की आंखों में हमेशा मां की खोज दिखाई देती है। माता-पिता के साथ ही बच्चे मस्त रहते हैं, यह मनुष्य जीवन का सनातन सत्य है।
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