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अरविंद मिश्रा
आक्सीजन मनुष्य के लिए प्राणवायु है। वातावरण में मौजूद जिस आक्सीजन के जरिये हमारी सांसों की डोर चलती है, उसके लिए हमें न तो पैसे खर्च करने पड़ते हैं और न ही कतार लगानी पड़ती है। शायद इसीलिए आक्सीजन के प्रति हमने संवेदनशील होना तो दूर, अपनी गतिविधियों से उसकी गुणवत्ता को नष्ट किया। आक्सीजन के चिकित्सकीय रूप ने तो कोरोना की दूसरी लहर की वजह से ही लोगों का ध्यान आर्किषत किया है। आज यह एक ऐसा उत्पाद बन गया है जिसे हासिल करने के लिए मरीज और अस्पताल जिद्दोजहद कर रहे हैं। कई मामलों में तो न्यायालयों को भी दखल देना पड़ रहा है। हालांकि आक्सीजन से जुड़ी यह विपदा संसाधनों के अभाव से कहीं अधिक उसके अनुचित संग्रहण और उसके उपयोग के प्रति जागरूकता के अभाव से उत्पन्न हुई है। औद्योगिक गतिविधियों और चिकित्सकीय उपचार में प्रयुक्त होने वाली आक्सीजन सामान्यत: एक ही संयंत्र में तैयार की जाती है। एक ही प्रकार के टैंक और सिलेंडर के जरिये इसे संग्रहित किया जाता है। 
देश में तकरीबन एक लाख टन आक्सीजन का प्रतिदिन उत्पादन होता है। इसमें औद्योगिक और चिकित्सा आक्सीजन, दोनों शामिल हैं। देश में इस्पात उद्योग औद्योगिक उपयोग के लिए आक्सीजन तैयार करता है। इस क्षेत्र के उपक्रम जरूरत पडऩे पर मेडिकल आक्सीजन का भी उत्पादन करते हैं। वहीं निजी क्षेत्र की कुछ कंपनियां मेडिकल आक्सीजन के उत्पादन में सक्रिय हैं। औद्योगिक गतिविधियों में प्रयुक्त होने वाली आक्सीजन की खपत चिकित्सा आक्सीजन के मुकाबले काफी अधिक होती है, इसलिए इसका परिवहन मुख्य रूप से पाइपलाइन के जरिये ही होता है। अपने देश में आक्सीजन उत्पादन कुछ निश्चित भौगोलिक क्षेत्रों में केंद्रित है। इनमें कुछ बड़े केंद्र पूर्वी भारत के ओडिशा, झारखंड के अलावा मध्य भारत के छत्तीसगढ़ में स्थित हैं। दक्षिण के कुछ राज्यों के साथ ही महाराष्ट्र की भी आक्सीजन उत्पादन में अच्छी हिस्सेदारी है। इन राज्यों में स्थित संयंत्र औद्योगिक आक्सीजन का पांच से दस प्रतिशत ही लिक्विड रूप में तैयार करते हैं। 
अगस्त 2020 में जहां लिक्विड मेडिकल ऑक्सीजन (एलएमओ) का उत्पादन 5,700 मीट्रिक टन होता था, वहीं आज यह 8,922 मीट्रिक टन उत्पादित की जा रही है। इनमें लगभग 4,500 मीट्रिक टन मेडिकल आक्सीजन स्टील और पेट्रोलियम क्षेत्र की कंपनियों द्वारा तैयार की जा रही है। वहीं गंभीर स्थिति में मरीजों को दी जाने वाली मेडिकल आक्सीजन की आपूर्ति विशेष प्रकार के क्रायोजेनिक टैंकर्स और सिलेंडरों के जरिये ही होती है। ऐसे में देखा जाए तो हमारे यहां मेडिकल आक्सीजन की किल्लत उत्पादन के मोर्चे से कहीं अधिक उसके वितरण तंत्र से जुड़ी है। 
मेडिकल आक्सीजन की आपूर्ति के लिए उपयोग में लाए जाने वाले क्रायोजेनिक स्टोरेज टैंक और सिलेंडर की कमी ने समस्या को और बढ़ाया है। क्रायोजेनिक टैंक में उन्हीं गैसों को संग्रहित किया जाता है जिन्हें बहुत ठंडा रखने की आवश्यकता होती है। लिक्विड मेडिकल ऑक्सीजन को माइनस185 से लेकर माइनस93 के तापमान में रखा जाता है। इस टैंक के जरिये 20 टन तक आक्सीजन का परिवहन संभव है। क्रायोजेनिक टैंक में दो मजबूत परत होती हैं। दोनों परतों के बीच निर्वात होता है, जिससे बाहर की गरमी का असर भीतर संग्रहित गैस पर बिल्कुल नहीं होता। भारत में सरकारी और निजी क्षेत्र की कंपनियों के पास इस समय लगभग 1500 क्रायोजेनिक टैंक हैं। विभिन्न वजहों से 200 टैंक संचालन की स्थिति में नहीं हैं। 
हालांकि केंद्र सरकार ने आक्सीजन संकट के सामने आते ही कुछ प्रभावी कदम उठाए हैं। इनका असर दिखने भी लगा है। रेल मंत्रालय, केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्रालय तथा राज्यों के परिवहन विभागों का एक उप समूह लगातार आक्सीजन के सुगम परिवहन की निगरानी कर रहा है। वहीं पीएम केयर्स फंड के सहयोग से 162 पीएसए संयंत्र लगाने की योजना संचालन स्तर पर आ चुकी है। ये सभी संयंत्र देश के विभिन्न अस्पतालों में लग रहे हैं। पीएसए संयंत्र सीधे हवा से मेडिकल आक्सीजन तैयार करने की तकनीक पर काम करते हैं। सरकार ने आक्सीजन संकट के शुरुआती दिनों में ही इस्पात संयंत्रों के पास उपलब्ध सरप्लस स्टॉक के उपयोग की अनुमति दे दी थी। सरकार आक्सीजन स्नोतों के लिए राज्यों की मैपिंग भी कर रही है। इस प्रक्रिया से आक्सीजन की उपलब्धता वाले स्नोत से निकटवर्ती मांग वाले राज्यों को सुगम आपूर्ति का तंत्र विकसित किया जा रहा है। इसी क्रम में औद्योगिक सिलेंडरों को भी मेडिकल आक्सीजन के परिवहन के लिए उपयोग में लाए जाने की अनुमति दी गई है। 
वैक्सीन मैत्री का प्रतिफल आक्सीजन संकट के दौर में वैश्विक सहयोग के रूप में भी देखने को मिल रहा है। अब तक दर्जन भर से अधिक देशों से आक्सीजन की आपातकालीन आपूर्ति की जा चुकी है। चूंकि देश में मेडिकल आक्सीजन की आर्पूित में एक बड़ा हिस्सा निजी क्षेत्र से आता है, इसलिए यदि सरकार निजी क्षेत्र की गैस कंपनियों की क्षमता का पूरा लाभ लेना चाहती है तो उन्हें र्आिथक पैकेज या सहयोग प्रदान कर प्रोत्साहित किया जा सकता है। 
स्पष्ट है कि आक्सीजन के तात्कालिक संकट की अहम वजह देश में संसाधनों की कमी से कहीं अधिक विपत्ति के समय भी मुनाफे की तिकड़म और कुछ राज्यों की प्रशासनिक अकर्मण्यता है। ये कभी तीन-चार सौ रुपये के पीपीई किट के नाम पर मरीजों से हजारों रुपये वसूलते हैं तो कभी चंद दूरी के लिए एंबुलेंस सेवा के नाम पर लाखों का बिल थमा देते हैं। कोरोना की जंग के साथ मानवता के मूल्यों को कमजोर करने वाले ऐसे विघटनकारी तत्वों से समाज की जागरूकता और सार्वजनिक नियामकों की सख्ती से ही बचा जा सकता है।