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अजहर हाशमी
परशु प्रतीक है पराक्रम का। 'रामÓ पर्याय है सत्य सनातन का। इस प्रकार परशुराम का अर्थ हुआ पराक्रम के कारक और सत्य के धारक। शास्त्रोक्त मान्यता तो यह है कि परशुराम भगवान विष्णु के छठे अवतार हैं, अत: उनमें आपादमस्तक विष्णु ही प्रतिबिंबित होते हैं, परंतु मेरी मौलिक और विनम्र व्याख्या यह है कि 'परशुÓ में भगवान शिव समाहित हैं और 'रामÓ में भगवान विष्णु। इसलिए परशुराम अवतार भले ही विष्णु के हों, किंतु व्यवहार में समन्वित स्वरूप शिव और विष्णु का है। इसलिए मेरे मत में परशुराम दरअसल 'शिवहरिÓ हैं।
पिता जमदग्नि और माता रेणुका ने तो अपने पांचवें पुत्र का नाम 'राम' ही रखा था, लेकिन तपस्या के बल पर भगवान शिव को प्रसन्न करके उनके दिव्य अस्त्र 'परशुÓ (फरसा या कुठार) प्राप्त करने के कारण वे राम से परशुराम हो गए। 'परशुÓ प्राप्त किया गया शिव से। शिव संहार के देवता हैं। परशु संहारक है, क्योंकि परशु 'शस्त्रÓ है। राम प्रतीक हैं विष्णु के। 
विष्णु पोषण के देवता हैं अर्थात राम यानी पोषण/रक्षण का शास्त्र। शस्त्र से ध्वनित होती है शक्ति। शास्त्र से प्रतिबिंबित होती है शांति। शस्त्र की शक्ति यानी संहार। शास्त्र की शांति अर्थात संस्कार। मेरे मत में परशुराम दरअसल 'परशुÓ के रूप में शस्त्र और 'रामÓ के रूप में शास्त्र का प्रतीक हैं। एक वाक्य में कहूँ तो परशुराम शस्त्र और शास्त्र के समन्वय का नाम है, संतुलन जिसका पैगाम है।
 अक्षय तृतीया को जन्मे हैं, इसलिए परशुराम की शस्त्रशक्ति भी अक्षय है और शास्त्र संपदा भी अनंत है। विश्वकर्मा के अभिमंत्रित दो दिव्य धनुषों की प्रत्यंचा पर केवल परशुराम ही बाण चढ़ा सकते थे। यह उनकी अक्षय शक्ति का प्रतीक था, यानी शस्त्रशक्ति का। पिता जमदग्नि की आज्ञा से अपनी माता रेणुका का उन्होंने वध किया। यह पढ़कर, सुनकर हम अचकचा जाते हैं, अनमने हो जाते हैं, लेकिन इसके मूल में छिपे रहस्य को/सत्य को जानने की कोशिश नहीं करते।
 यह तो स्वाभाविक बात है कि कोई भी पुत्र अपने पिता के आदेश पर अपनी माता का वध नहीं करेगा। फिर परशुराम ने ऐसा क्यों किया? इस प्रश्न का उत्तर हमें परशुराम के 'परशुÓ में नहीं परशुराम के 'रामÓ में मिलता है। आलेख के आरंभ में ही 'रामÓ की व्याख्या करते हुए कहा जा चुका है कि 'रामÓ पर्याय है सत्य सनातन का। सत्य का अर्थ है सदा नैतिक। सत्य का अभिप्राय है दिव्यता। सत्य का आशय है सतत सात्विक सत्ता। 
परशुराम दरअसल 'रामÓ के रूप में सत्य के संस्करण हैं, इसलिए नैतिक-युक्ति का अवतरण हैं। यह परशुराम का तेज, ओज और शौर्य ही था कि कार्तवीर्य सहस्रार्जुन का वध करके उन्होंने अराजकता समाप्त की तथा नैतिकता और न्याय का ध्वजारोहण किया। परशुराम का क्रोध मेरे मत में रचनात्मक क्रोध है।
 जैसे माता अपने शिशु को क्रोध में थप्पड़ लगाती है, लेकिन रोता हुआ शिशु उसी माँ के कंधे पर आराम से सो जाता है, क्योंकि वह जानता है कि उसकी मां का क्रोध रचनात्मक है। मेरा यह भी मत है कि परशुराम ने अन्याय का संहार और न्याय का सृजन किया।
महादेव ने परशुराम व श्रीहरी ने दिया था चिंरजीवी होने का वर : भगवान परशुराम को श्रीहरी का छठा अवतार माना जाता है। उनका जन्म वैशाख शुक्ल की तृतीया तिथि को जानापाव पर्वत पर हुआ था। उनके पिता भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि ने पुत्रेष्टि यज्ञ का आयोजन किया था, जिससे प्रसन्न होकर देवराज इन्द्र के वरदान से परशुराम का जन्म हुआ था। उनकी माता का नाम रेणुका था। जमदग्नि ऋषि के पुत्र होने के कारण वह जामदग्न्य और शिवजी के द्वारा परशु प्रदान करने से वह परशुराम कहलाये। भगवान परशुराम की प्रारंभिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र और महर्षि ऋचीक के आश्रम में संपन्न हुई थी। परशुराम को महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और कश्यप ऋषि से अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ था। तत्पश्चात कैलाश पर्वत पर तपस्या कर उन्होंने दिव्यास्त्र विद्युदभि नाम का परशु प्राप्त किया था। महादेव ने उनको श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु प्रदान किया था। चक्रतीर्थ में भगवान परशुराम ने कठोर तप किया था इससे प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उनको चिरंजीवी होने का वरदान दिया था। भगवान परशुराम पराक्ररमी प्रसिद्ध योद्धाओं के गुरु रहे हैं। उन्होंने भीष्म, द्रोण और कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। भगवान परशुराम का उल्लेख रामायण, महाभारत, भागवत पुराण और कल्कि पुराण जैसे पौराणिक ग्रंथों में मिलता है। मान्यता है कि परशुरामजी ने तीर गुजरात से लेकर केरला तक समुद्र को पीछे धकेल कर नई भूमि का निर्माण किया था।
परशुरामजी ने किया था सहस्त्रार्जुन का वध : एक बार हैहय वंश के राजा कार्त्तवीर्यअर्जुन ने तपस्या कर भगवान दत्तात्रेय से सहस्त्र भुजाएँ और युद्ध में किसी से परास्त न होने का वर प्रप्त कर लिया। वह एक बार जंगल में शिकार करता हुआ जमदग्नि मुनि के आश्रम में जा पहुंचा। वह आश्रम से देवराज इन्द्र द्वारा दी गई कपिला कामधेनु को बलपूर्वक ले जाने लगा। तब परशुराम ने सहस्त्रार्जुन की सभी भुजाओं को काटते हुए उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने इसका बदला लेते हुए उनके ध्यानस्थ पिता जमदग्नि की हत्या कर दी। उनकी माता भी अपने पति के साथ सती हो गई। इससे क्रोधित होकर परशुरामजी ने महिष्मती नगर पर आक्रमण कर उसके ऊपर कब्जा कर लिया और इसके बाद 21 बार उन्होंने पृथ्वी को क्षत्रिय विहिन कर दिया। कहा तो यह भी जाता है कि उन्होंने अपने पिता का श्राद्ध सहस्त्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से किया था। इसके बाद महर्षि ऋचीक ने परशुराम को आगे और संहार करने से रोका।