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कपिल अग्रवाल
कोरोना से ठीक होने के बावजूद आम जनता की परेशानियां समाप्त होने का नाम नहीं ले रही हैं और नए रूपों में आकर कोरोना सबको हैरान कर रहा है। ताजा मामला ब्लैक फंगस का है जो कोरोना से ठीक होने वालों को बेहद तेजी से अपनी चपेट में लेकर आंखें, जबड़े आदि को अपने चपेट में ले रहा है। पिछले एक सप्ताह के भीतर देश भर में इसके सौ से अधिक मामले प्रकाश में आ चुके हैं। विज्ञानी इसके पीछे भी कोरोना के साइड इफेक्ट मान रहे हैं। तमाम वैक्सीनों, दावों, संभावनाओं व उम्मीदों को धता बताते हुए खतरनाक वायरस कोरोना ने एक बार फिर से मानवता पर नए रूप में धावा बोला है। इसने वैक्सीन के असर को भी काफी हद तक कम कर दिया है।
आज अनेक लोग न केवल बड़ी संख्या में इस अबूझ वायरस की चपेट में आ रहे हैं, बल्कि बड़े पैमाने पर अपनी जान से महरूम भी हो रहे हैं। हकीकत तो यही है कि डेढ़ साल बाद भी अत्याधुनिक व अति उन्नत कही जाने वाली वर्तमान मानव जाति इस मामूली से रहस्यमय वायरस के आगे नतमस्तक है। इस बार खास बात यह है कि पहले जहां यह बेहद कम तापमान पर सक्रिय हुआ था, वहीं इस बार यह औसतन 40 डिग्री के तापमान पर अवतरित हुआ है। यानी तापमान वाली पहली थ्योरी गलत साबित हुई है। इस बार इससे न केवल विभिन्न प्रकार के अजीबोगरीब रोग उत्पन्न हो रहे हैं, बल्कि मुत्यु दर भी पहले के मुकाबले बहुत अधिक है। 
विश्व स्वास्थ्य संगठन को संदेह है कि यह नया वायरस खतरनाक रूप धारण कर सकता है। भारत समेत समस्त देशों की सरकारों की पूर्ण मुस्तैदी, सजगता व यु़द्ध स्तरीय प्रयासों के बावजूद मामला दिनोंदिन भयावह होता जा रहा है। इससे बचने की हरसंभव कोशिशें व उपाय निष्फल हो रहे हैं। ऐसे में मानव जाति के पास अपने आप को अलग थलग कर लेने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं है। संपूर्ण विश्व में इस समय इस पर निरंतर शोध व परीक्षण हो रहे हैं और हर नए शोध में नया नया निष्कर्ष निकल कर आ रहा है। पहले गर्म पानी पीने व लगभग 40 डिग्री तापमान वाले कमरों में रहना इसका उपचार बताया जा रहा था, पर अमेरिका के न्यूजर्सी में यह परीक्षण भी निष्फल रहा। 
अमेरिकी यूनिर्विसटी मैरिलैंड का ताजा शोध है कि इसके प्रसार के लिए दूषित खान-पान, छुआछुत, श्वास प्रक्रिया व हमारा वायुमंडल यानी तेज हवाएं जिम्मेदार हैं। इसके लिए अलग अलग प्रकार के कृत्रिम वातावरण बनाकर जानवरों पर गहन परीक्षण जारी हैं। प्लेग के बाद यह पहली ऐसी महामारी है जिसे लाइलाज माना जा रहा है। आम जनता में घबराहट न फैले इस कारण वैश्विक स्तर पर तो लगभग सभी देशों के अधिकारिक आंकड़ों में इससे प्रभावित तथा मरने वालों की संख्या कम बताई जा रही है, पर विश्व स्वास्थ्य संगठन का ताजा अनुमान है कि इससे प्रभावितों की संख्या लाखों में पहुंच चुकी है। दुनियाभर में इस बीमारी के प्रति जागरूकता कायम करने का प्रयास किया जा रहा है। 
अमेरिकी शोधकर्ताओं के नवीन मतानुसार ये वायरस अब हर प्रकार के प्राकृतिक वातावरण में बहुत तेजी से पनप रहे हैं और फिर मानव जाति में अपना प्रसार करते चले जाते हैं। अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा में सभी संभव सुरक्षात्मक उपायों, लॉकडाउन, तापमान नियंत्रण आदि के बावजूद संक्रमण के मामलों में चिंतनीय तेजी जारी है। ये वायरस मूलत: पर्यावरण में उत्पन्न होकर मानव शरीर में अपना प्रसार करते हैं। इसके अलावा, अशुद्ध अथवा संक्रमित मांस खाने से भी यह मानव शरीर में पहुंचता है। शोध अध्ययन बताते हैं कि डेंगू, स्वाइन फ्लू व कोरोना जैसे सभी खतरनाक जानलेवा वायरस मूलत: जानवरों से ही आए हैं। रूस में चल रहे परीक्षणों के मुताबिक लगभग 74 डिग्री तापमान वाले नाले के पानी में इस वायरस का प्रसार बहुत तीव्र पाया गया और इसी तापमान पर बिल्कुल स्वच्छ पानी में अपेक्षाकृत कम। इसी प्रकार मानव स्वास्थ्य एवं वायरसों पर शोध व परीक्षण कर रहे एक अमेरिकी शोधकर्ता का ताजा निष्कर्ष है कि इन वायरसों का मुख्य वाहक दूषित पर्यावरण है और मानव जाति की सुरक्षा के लिए इन पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। बहरहाल अभी इसके कहर से निजात की उम्मीद कम ही है, क्योंकि न तो पूर्ण रूप से इसकी प्रकृति, गुण, किस्मों तथा विशेषताओं का पता चल पाया है और न ही इसका वास्तविक टीका बन पाया है। आधुनिक युग की यह सबसे उन्नत मानी जाने वाली मानव सभ्यता को अपने हर संभव पैमाने, वातावरण, परिवेश तथा परीक्षण में यह वायरस पहले के मुकाबले और ज्यादा मजबूत व बहुरंगी रूप में विद्यमान मिलता है। ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि इससे बचाव हेतु जरूरी सावधानी बरती जाए। पर्यावरण की पर्याप्त रक्षा करके ही धरती पर मानव अस्तित्व को कायम रखा जा सकता है।