रोहित
देश में मौजूदा हालात बताते हैं कि सरकारें जनहितैषी कभी नहीं बन सकतीं. सरकारें गरीबों के बारे में कभी नहीं सोच सकतीं. सरकारें तो बनी ही जनता पर शासन करने को हैं. जनता को सिर्फ वोटबैंक सम झने की जिद इन्हें उस की लाशों से खेलने की इजाजत देती है.
''पिछले साल की कई गलतियों को भुला दिया जाए तो माना जा सकता है कि कोरोना वायरस से उपजी कोविड-19 महामारी एक आपदा थी लेकिन इस बार यह आपदा नहीं, बल्कि सरकारों का एक सिस्टमेटिक फैलिएर है. मेरी मां दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में थी. वह वहां 5 दिनों तक जू झती रही. अस्पताल में किसी ने कोई केयर नहीं की. उस की मौत कल (20 अप्रैल) रात को 3 बजे हुई. उस से पहले पूरे दिन अस्पताल में मेरी मिसेज 8वीं मंजिल से यहां से वहां भागती रही कि मांजी का बीपी चैक कर लो,
औक्सीजन चैक कर लो लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं. आखिर में झगड़ा करने पर अटैंडैंट ने बीपी मशीन ही मेरी मिसेज को पकड़ा दी और कहा कि खुद ही चैक कर लो. मेरी मां बीमारी से नहीं मरी है, बल्कि उसे सरकार ने मारा है,ÓÓ सरिता पत्रिका से बात करते हुए 44 वर्षीय अरशद आलम भावुक हो गए.
भारत में कोरोना का दूसरा फेज देश के इतिहास में उस बदनुमा दाग की तरह हमेशा याद रहेगा जो मिटाने से नहीं मिटने वाला. दूसरे फेज का हाल यदि ऐसा ही रहा तो यह भी संभव है कि इस की दुर्गत स्मृति को याद करने के लिए सिर्फ मानव कंकाल ही बचेंगे, नेता उन्हीं कंकालों के ढेर पर चढ़ कर वोट की अंतिम अपील कर रहे होंगे. माफ कीजिए, कटु वचन हैं लेकिन हाल ए वक्त को मद्देनजर रख पाठकों के मन में धूल झोंकना ठीक नहीं। इस समय देश की तमाम सरकारों का हाल ऐसा हो चुका है जैसे पूरे साल बिन पढ़ाई किए छात्रों का परीक्षा में बैठने पर होता है. कोरोना ने एक साल पहले जो अल्टीमेटम सरकार को दिया था उसे मनमौजी नेता 'बीत गई सो बात गईÓ मान कर चल रहे थे. महान दार्शनिक कार्ल माक्र्स ने कहा था, ''इतिहास जब खुद को दोहराता है तब वह पहली बार ट्रेजेडी के रूप में होता है और दूसरा मजाक की तरह.ÓÓ प्रधानमंत्री मोदी के शासनकाल में शायद यह स्थिति 2 बार सटीक बैठी है, एक 2019 के लोकसभा चुनाव में फिर से मोदी के बहुमत से जीत जाने पर और दूसरे, कारोना के एक साल बाद दूसरे फेज पर. दोनों ही स्थितियों में फेल और कोई नहीं, भारत की विराट जनता ही हुई है.
आज स्थिति यह है कि पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ है. यह हाहाकार आमजन के घरों से निकलने के बाद, अस्पतालों की चीखपुकार से होते हुए शमशानघाटों और कब्रिस्तान तक फैल चुका है.
जिन्हें अभी भी यह हकीकत मजाक लग रही हो तो एक बार उन सुनसान सड़कों पर पढि़ए जहां लगातार हर मिनट तेज रफ्तार में चलती एम्बुलैंस शोर मचा रही हैं. दावे के साथ कह सकता हूं रात को सोते समय उन के सायरन की आवाज कानों में बिनबिनाने लगेगी.अगर इतने से भी यकीन न हो, तो उन कब्रिस्तानों और शमशानों में जा कर लाशों के लगते अंबारों का अनुभव बिना मन में 'पुनर्जन्मÓ और 'पापमुक्तिÓ के विचार लिए महसूस किया जा सकता है जहां लाशों को बिना 'राम नाम सत हैÓ और 'दुआ पढऩेÓ की औपचारिकता निभाने के महज मांस और हड्डी के लोथड़े की तरह जलाया या दफनाया जा रहा है. यकीन दिलाता हूं, दिमाग के सारे पापपुण्य, कर्मकांड वाले विचारों के परख्चे उड़ जाएंगे, फिर उमडऩे लगेंगे वह जीवंत सवाल जो कई सालों से हम सब ने, सरकारों से तो दूर की बात, खुद ही से पूछने छोड़ दिए थे.
आईटीओ के पास स्थित कब्रिस्तान शहर का सब से बड़ा कब्रिस्तान है. यह 'जदीद कब्रिस्तान अहले इसलामÓ के नाम से जाना जाता है. यह दिल्ली पुलिस हैडक्वार्टर के पीछे लगभग 200-250 मीटर भीतर जा कर शुरू होता है. इस का क्षेत्रफल लगभग 50 एकड़ है.
ये भी पढ़ें- पश्चिम बंगाल चुनाव : ओवैसी के साथ हुआ असली 'खेलाÓ
इसी कब्रिस्तान में अपनी 65 वर्षीया मां नसीम बानो को दफनाने 44 वर्षीय अरशद आया था जिस के मुंह में कर्म और पापपुण्य के टंटे नहीं थे बल्कि सरकार को ले कर भारी रोष था. सरिता पत्रिका से बात करते हुए अरशद आलम कहते हैं, ''कोरोना इतना नहीं है जितना सरकारों ने कर दिया है. जिस तरह के अस्पतालों को बनाने की जरूरत एक साल में होनी थी वह बिलकुल भी नहीं बनाए गए. शुरुआत से ही अस्पतालों में बैड नहीं थे, औक्सीजन नहीं थी, मशीनें नहीं थीं, बल्कि कहें कि अस्पताल ही नहीं थे.''अरविंद केजरीवाल कहते फिर रहे हैं कि उन के पास व्यवस्था चाकचौबंद है लेकिन दिल्ली का हाल सब के सामने है. लोग सिर्फ दवाइयों की कमी, औक्सीजन की कमी और ट्रीटमैंट की कमी से मर रहे हैं. इस में अब आपदा वाली बात नहीं है. इतने समय में सरकारों को संभल जाना चाहिए था. लेकिन नहीं, समस्या यह है कि हिंदुस्तान चल रहा है हिंदू और मुसलिम से. लोग राममंदिर की कीमत चुका रहे हैं. जो हमारे हिंदू भाई हैं उन्हें इस सरकार ने मंदिर में फंसा दिया है.ÓÓ
कब्रिस्तान में कोरोना के लिए अलग से ढाई एकड़ जमीन अलौट की गई है जहां काफी हद तक जगह कब्रों से भर भी चुकी है. कोरोना का मंजर, आंखोंदेखी तौर पर, इसी से सम झा जा सकता है कि 20 अप्रैल को सुबह 11 बजे सरिता की टीम जब कब्रिस्तान में पहुंची तो वहां 2 घंटे रुकने पर ही हमारे सामने लगभग 6-7 कोरोना डैडबौडीज लाई जा चुकी थीं. कई लोग उन में से पिछले दिन के वेटिंग वाले भी थे.
मृतकों के परिजनों के मुंह में मास्क तो था लेकिन बाकी सुरक्षा के समान ग्लब्स, पीपीई किट, सोशल डिस्टैंस इत्यादि बिलकुल भी नहीं था. और यह बताने के लिए कोई औफिशल मौजूद नहीं था कि कितने लोग एकत्रित होने चाहिए और किस तरह की गाइडलाइंस फौलो की जानी चाहिए. कई चीजों को ले कर कब्रिस्तान के वाइस प्रैसिडैंट और केयरटेकर हाजी शमीम अहमद से फोन पर बात हुई.
शमीम अहमद बताते हैं, ''16 अप्रैल से 19 अप्रैल तक क्रमश: 15, 18, 20, 22 कोरोना से हुई मौतों की बौडीज इस कब्रिस्तान में आ रही हैं. पिछले साल के मुकाबले इस साल मामले ज्यादा आ रहे हैं. कोरोना की अलग पर्ची बन रही है. कोरोना से हुई मौतों के मामले दिन बढऩे के साथ बढ़ रहे हैं. पिछले साल हौआ बहुत था और मामले कम थे. जैसे पिछले साल कोरोना के 750 कुल मामले आए थे, इस साल हौआ नहीं है लेकिन मामले बहुत ज्यादा आ गए. यह आकड़ों में दिखने लगा है, हर रोज के आकड़े आप के सामने मौजूद हैं.ÓÓजब उन से कब्रिस्तान में जगह की कमी के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया, ''यह सही है कि अब जगह कम पड़ रही है. इस कब्रिस्तान की कमेटी 1924 से है. सरकार ने 1924 में यह जगह कमेटी को अलौट की थी. हमारी एक जगह रिंग रोड, सराए काले खां पर 14 एकड़ है जो सरकार से 1964 में अलौट हुई थी लेकिन जब वहां पार्क बनने लगा तो हम से 10 एकड़ जमीन इस वादे पर ली गई कि जब आप को जरूरत पड़ेगी तो आप को दे देंगे. वहां 4 एकड़ की जगह पर बाउंड्री बना कर हमें दी तो गई लेकिन उस का अब तक हम उपयोग नहीं कर पा रहे. जब कोरोना के मामले आने लगे तो हम ने वापस वह जमीन मांगी, लेकिन सरकार ने वह जमीन हमें नहीं दी. हम चाह रहे हैं कि कोरोना के सारे मामले हम वहीं शिफ्ट करे दें.ÓÓ
वे आगे कहते हैं, ''यह कमी है कि सरकार कुछ भी हमारी मदद नहीं कर रही है. सफाई हम खुद करा रहे हैं. सैनिटाइज तो दूर की बात, सरकार देखने तक नहीं आ रही है. कब्रिस्तान की बाउंड्री के बाहर गंदगी है तो वह भी उठवाने को तैयार नहीं है प्रशासन. किसी प्रकार की मदद नहीं मिल रही है. न किट, ना मास्क, न ग्लब्स कुछ नहीं दे रही है सरकार. लोग आते हैं किट यहीं फेंक जाते हैं, उन्हें हम ही जलाते हैं.ÓÓ
यह दिलचस्प था कि कब्रिस्तान में सफाई का काम वहीं कब्रिस्तान से सटी वाल्मीकि बस्ती में रह रहे विनोद (40) और रौकी (20) के जिम्मे है. उन का कहना है कि वे दोनों यहां बिना तनख्वाह के काम कर रहे हैं. हालांकि वे इसे समाजसेवा कहते हैं लेकिन यह भी हकीकत है कि इस के अलावा उन के पास और कोई काम नहीं है. यह बात इस से भी जाहिर होती है कि न तो कमेटी की तरफ से उन्हें तनख्वाह दी जा रही है न कोई और माध्यम से उन्हें उन का पारिश्रमिक दिया जा रहा है. जो पैसा थोड़ाबहुत कमाते हैं वह खड्डा खुदवाई, ताबूत लाने व ले जाने, कंधा देने व अन्य कार्यों के एवज में मृतक के परिवारजन से बख्शिश के तौर पर मिल रही है. विनोद इस कब्रिस्तान के ऐसे वौरियर हैं जो सीधे बौडी के संपर्क में आते हैं. लेकिन उन्हें किसी प्रकार की सुरक्षा मुहैया नहीं कराई गई है.
विनोद कहते हैं, ''मु झे न कोई संस्था कुछ दे रही है न सरकार. मु झे मास्क तक खुद खरीदना पड़ा है, ये ग्लब्स भी मैं ने अपनी सेफ्टी के लिए यहां एंबुलैंस में अस्पताल से आए कर्मियों से मांगे हैं. पीपीई किट नहीं है. मैं अपनी जान पर खेल रहा हूं.ÓÓ
दरअसल, पिछले साल से ही तमाम सरकारों की यह कमी रही है कि वे कोरोना को ले कर बेसिक स्वास्थ्य सुविधाओं, जानकारियों, उपायों को लोगों तक नहीं पहुंचा पाईं. यह दुखद भी है कि आम लोगों के मन में किसी भी सरकार को ले कर भारी अविश्वास पैदा हो गया है और वे अस्पतालों की बदइंतजामी को ले कर डरे हुए हैं.
अजमेरी गेट के पास रहने वाले इकबाल (55), जो अपनी पत्नी की बहन अमीना के देहांत के चलते कब्रिस्तान आए थे, कहते हैं, ''कभीकभी यह डाउट हो रहा है कि सरकार ही मार रही है. लोग बीमारों को अस्पताल ले कर जा रहे हैं कि वहां से ठीक होंगे, लेकिन अब महसूस हो रहा है यदि कोई दिक्कत है तो अस्पताल मत जाओ. कम से कम दुर्गति तो नहीं होगी. वे लोग हमारे लोगों के साथ क्या सुलूक कर रहे हैं, हमें कुछ नहीं पता चल पा रहा है. इस समय सरकारें ढह हो चुकी हैं. एक साल कोरोना ने इन सरकारों को दिया था कि सारी तैयारियां कर लीजिए, लेकिन इन्होंने कुछ नहीं किया. सत्ताधारी नेता, बस, चुनाओं में व्यस्त रहे. मोदी ने पिछले साल जितना फंड इक_ा किया था, सारा इलैक्शन में लगा दिया. वे पब्लिक के लिए काम नहीं कर रहे. इंसान मर रहा है, इंसानियत मर रही है. फिर भी, इन्हें चुनाव लडऩा है.ÓÓ
लोगों के भीतर अविश्वास को और भी पुख्ता ऐसी परिस्थितियां कर रही हैं जो पिछले सालों से लोग लगातार देखते आ रहे हैं. दनदनाती चुनावी रैलियां, भीड़भरे धार्मिक आयोजनों में राजनीतिक पार्टियों का सहयोग, और गरीबगुरबों की अनदेखी. पिछले साल जिस समय कोरोना अपने पैर तेजी से पसार रहा था तो अस्पताल बनाने की जगह भाजपा सरकार अपनी पार्टी के औफिस बनाने की मुहिम में लगी हुई थी.
जुलाई 2020 में भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा जानकारी देते हुए बड़े फख्र से कहते हैं कि, 'प्रधानमंत्री ने 2014 से पहले तय किया था कि जिला और राज्य दोनों स्तरों पर कार्यालय बनाए जाएंगे. हम ने 500 जगहों पर पार्टी कार्यालय बना दिए हैं और शेष 400 पर काम जारी है और जल्द ही वह पूरा हो जाएगा,ÓÓ यह इस देश के लिए दुखद है कि दुनिया का सब से महंगा पार्टी कार्यालय इसी देश में इसी पार्टी का मोदी कार्यकाल में ही बना.
कम पडऩे लगे श्मशान धाट
यही कारण भी है कि आम लोग सरकार के किए किसी भी काम पर यकीन करने को तैयार नहीं हैं. दिल्ली के पंचकुइया रोड़ पर स्थित शमशान घाट इन दिनों काफी व्यस्त चल रहा है.
23 प्लेटफौर्म के इस घाट में जहां पहले रोज 6-7 डैड बौडीज आया करती थीं, अब यहां हाहाकार मचा हुआ है. सरिता टीम 19 अप्रैल को ढाई बजे इस घाट का दौरा करने पहुंची थी. चारों तरफ उस दौरान अफरातफरी मची हुई थी. यह अफरातफरी लगातार आ रही कोरोना मृतकों के चलते हो रही थी. यहां भी अफरातफरी के बीच कोरोना गाइडलाइन फौलो करने की सुध न तो परिजनों को थी न वहां के कार्यकारियों को.
कई डैडबौडीज को जगह की कमी के चलते वापस लौटा दिया जा रहा था, कुछ वेटिंग में बाहर खड़ी थीं.
हमारी बात यहां आ रहे मामलों के आंकड़ों को ले कर रजिस्टर मैंटेन करने वाले अधिकारी मुकेश से हुई. जिस समय हम वहां पहुंचे थे उस समय आधा दिन ही हुआ था और अधिकारी ने बताया कि आज 19 अप्रैल को कुल 20 डैडबौडीज में से 15 कोरोना के मामले हैं. यह भयानक था. 18 तारीख को कुल 19 बौडीज आई थीं जिन में से 13 कोरोना संक्रमित थीं, 17 को 12 और 16 तारीख को 9 मामले आए थे. यानी, दिनप्रतिदिन पिछले 4 दिनों में कोरोना से हुई मौतों के मामलों में तेजी से बढ़ोतरी हुई है. और अब लाशों को वापस भी किसी दूसरे शमशान घाट के लिए लौटाया जा रहा है.
शमशान घाट के अधिकारी ज्यादा तो कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थे लेकिन इस बात पर स्पष्ट सहमति दे रहे थे कि पिछली बार के मुकाबले इस बार बहुत ज्यादा खतरनाक कोरोना प्रहार कर रहा है.
वहां मौजूद कुछ पंडितों से बात की. 48 वर्षीय पंडित गुलशन शर्मा का कहना था, ''अब मुर्दा इतने हो रहे हैं कि खुले में जमुना के किनारे जलाए जा रहे हैं. यहां का ही हाल देख लो. ऐसा मंजर पहले कभी नहीं था. यह सब से ज्यादा है. पैर रखने को जगह नहीं है. बौडी जैसे ही आज आती है, दाहसंस्कार कर के 4 दिन का समय पारंपरिक तौर पर लगाया जाता है, लेकिन अब क्या हो रहा है कि अगर 4 दिन एक चिता को ब्लौक कर दिया तो पब्लिक परेशान हो जाएगी. इसलिए आज दाग दिया है तो अगले दिन ही सुपुर्द करने की सारी प्रक्रियाएं की जाती हैं.ÓÓ
वे आगे कहते हैं, ''इस समय एक भी चिता खाली नहीं है. तुम देखो तोज् हमारी जान निकल गई है काम करातेकराते. ऐसा रहा तो कुछ दिनों बाद हम भी इसी लाइन में लग जाएंगे.ÓÓ
टीकाकरण पर उठते सवाल
पंचकुइया में ही एक मामला ऐसा भी आया जहां कोरोना के टीके पर ही कई सवाल खड़े हो गए. दरअसल, पहाडग़ंज के रहने वाले रिंकू अपने परिजन के दाहसंस्कार के लिए यहां आए थे. उन्होंने बताया, ''एक वैक्सीन लगाने के बाद मेरी बूआ (रामवती देवी) का बीपी चढ़ गया जिस के कारण उन्हें अस्पताल में भरती कराया गया.
वैक्सीन लगाने से पहले ठीक थीं. उस के बाद कुछ दिन ठीक रहीं. लेकिन बीपी हाई हुआ, फिर अस्पताल ले कर गए तो उन्हें कोरोना बताया दिया. उस के बाद कुछ ही समय में उन की मौत हो गई. कुछ लोग वैक्सीन को गलत बता रहे हैं, न जाने क्या लगा रहे हैं.ÓÓ
कुछ इसी प्रकार का हाल वैस्ट दिल्ली के पंजाबी बाग इलाके में स्थित सब से बड़े शमशान घाट का था. इस के अंदर कुल 70 प्लेटफौर्म हैं. जिन में चिताएं जलाई जा रही हैं. इस घाट में मोक्ष, घाट और सीएनजी से बौडी जलाने की व्यवस्था है. लेकिन अपनी कैपेसिटी से अधिक यहां अरेंजमैंट किया गया था.
लाशों की बढ़ती संख्या को देखते हुए सामान्य प्लेटफौर्म के अलावा यहां जमीन पर अतिरिक्त अस्थाई 4-5 प्लेटफौर्म बनाए गए थे. इस से सम झा जा सकता है कि कितना लोड यहां पढ़ रहा था. यहां कोई अधिकारी सीधे किसी मसले पर बात करने को तैयार नहीं हुआ. लेकिन वे भी इस बात को बताते रहे कि हालत गंभीर है.
सरिता पत्रिका ने वहां के जिम्मेदार लोगों से बात करने की कोशिश की तो दबी जबान (नाम न बताने की शर्त पर) यह जरूर कहते रहे, ''सरकार मामले छिपा रही है. जो आकड़े बता रही है वह गलत बता रही है. पिछले साल से बुरा हाल हो रहा है. लगभग तीन गुनाज् अब 60 तक कोरोना मामले जा रहे हैं. खुद देखो, जमीन पर ईंटें लगा कर काम चलाया जा रहा है.ÓÓ
इस के अलावा सफाई के मामले में इस घाट पर गंदगी जहांतहां बिखरी पड़ी थी. पानी पीने की जगह पर मास्क और ग्लब्स यों ही फेंके हुए थे, जिसे कोई साफ करने वाला नहीं था. मृतक के रिश्तेदार बिना सेफ्टी के भीतर दाहस्थल तक जा रहे थे, इन में से कईयों के पास न तो ग्लब्स था न ही पीपीई किट की व्यवस्था.
इसी प्रकार का हाल राजेंद्र प्लेस का सतनगर शमशान घाट का था. जो इस रिपोर्ट को लिखे जाने तक कोविड घाट में कन्वर्ट नहीं हुआ था. यह बी एल कपूर अस्पताल के औपोजिट साइड रोड पर 60 मीटर की दूरी पर बाईं तरफ चलने पर है.
इस में लगभग 37 प्लेटफौर्म हैं. इस के अलावा मोक्ष के 4 प्लेटफौर्म बनाए गए हैं. बीते दिन 20 अप्रैल को इस घाट में दोपहर 1 बजे तक सब से अधिक 15 मामले आए थे. अब यह दिलचस्प था कि और दिन के मुकाबले यह आंकड़ा लगभग 3 गुना अधिक था. समस्या यह कि नौर्मल मौत अथवा कोरोना मौत की गफलत यहां चिंताएं बढ़ा रही हैं. सामान्य मौत में रीतिरिवाज से चेहरे को खोल कर दाह करवाया जाता है, लेकिन कोरोना में ऐसा करने से मना किया गया है. अब एकदम से बड़े मामले शंका बढ़ाते हैं, कहीं यह कोरोना से हुई मौत तो नहीं?
आईटीओ कब्रिस्तान में मिले अरशद आलम ने एक बात कही, ''सरकार डाटा छिपा रही है या यह संभव है कि बहुत से लोगों का डाटा आ ही नहीं पा रहा. बहुत सारे लोग जिन्हें अस्पताल एडमिट नहीं कर रहे उन का तो कोई कोरोना डाटा है ही नहीं. मैं अपनी मां को ले गया, अगर वह उसी दिन डैथ कर जाती तो उन का नाम भी नहीं आता. काफी मौतें तो घर में ही हो जा रही हैं, लोग अस्पताल नहीं जा रहे क्योंकि वहां ट्रीटमैंट ठीक से नहीं हो रहा और लोग अस्पताल की खराब कार्यवाही को ले कर डरे हुए हैं. क्यों? क्योंकि सरकारी अस्पतालों में एक नर्स या डाक्टर देखने नहीं आते सुबह से शाम तक.ÓÓ
ठीक इसी प्रकार का अंदेशा राजेंद्र प्लेस के संतनगर के शमशानघाट के पंजाबियों के 38 वर्षीय पंडित नन्नू शर्मा को भी था. वे कहते हैं, ''कोविड का पता तो चैक करा कर ही चलेगा. बहुत से लोगों की बिना अस्पताल पहुंचे कोरोना से मौत हो रही है लेकिन चूंकि उन्होंने चैक नहीं कराया तो हम भी उन्हें नौर्मल मान कर दाह कर रहे हैं. हम रिस्क में हैं. हमें सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिल रही है.ÓÓ
कुल मिला कर यह तय है कि हमारी सरकारें पूरी तरह से फेल हो चुकी हैं और उन के फेल होने से पूरे देश की आवाम भी फेल हो चुकी है. इस त्रासदी को सम झना किसी दिल्लीवासी के लिए बड़ी बात नहीं है. जहां हमारी चुनी हुई सरकार खुद मदद की भीख मांग रही है. दिल्ली के डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया और स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन ट्विटर पर यह बात सा झा करते हैं कि 'दिल्ली के अस्पतालों में 8 से 12 घंटे के लिए ही औक्सीजन उपलब्ध है.Ó वहीं मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कहते हैं कि वे कोरोना स्थिति से निबटने के लिए युद्धस्तर पर काम कर रहे हैं. समस्या यह है कि जब गले में फंदा पड़ता है तभी युद्धस्तर पर काम करने की बात क्यों आती है?
वहीं, जनता के साथ भौंडा मजाक तो यह है कि प्रधानमंत्री मोदी कह रहे हैं कि संपूर्ण लौकडाउन इस का हल नहीं है. यह बात उन करोड़ों गरीबों, मजदूरों, युवाओं और महिलाओं के जख्मों पर नमक है जिन्हें पिछले वर्ष इस का दंश झेलना पड़ा. हांलाकि, इस स्थिति का हल क्या है, यह भी बताने में 'विश्वगुरुÓ प्रधानमंत्री मोदी सक्षम नहीं हैं. सक्षम की बात छोड़ो, वे खुद बड़ीबड़ी रैलियों में भीड़ देख ऐसे उत्साहित हो रहे थे मानो जैसे इस भीड़ के बाद जलती चिताओं का नजारा उन्हें सुकून देगा. इस घड़ी में यह तमाम सरकारों के लिए कितनी बेशर्मी की बात है कि कार्यालय स्तर पर जिन समस्याओं को काफी पहले सुल झा लिया जाना चाहिए था उन्हें जस का तस रख आमजन का मजाक बनाया जा रहा है. इस कोरोना ने कुछ के चेहरे से सीधेसीधे परदा उठाया भी है. कैसे सरकार ने इस तथाकथित आपदा को अपने राजनीतिक फायदे के लिए अवसर में बदला, कैसे देश की संपत्ति को बेच चंद लोगों में फायदा पहुंचाया गया, कैसे लोगों को भीड़ जमा कर उन के दाहसंस्कार की तैयारियां कीं.
स्थिति यह है कि इतना सब होने के बाद भी पाखंडी सरकार द्वारा आस्था को अब भी विज्ञान से ऊपर तरजीह दी जा रही है. इस कारोना की चपेट में वे महंत नहीं बच पाए जो दिनरात भगवानों की आस्था में डूबे रहते हैं. वे मौलवी नहीं बच पाए तो आयतें पढ़ते रहते हैं. देश में मौजूदा हालात साफ बताते भी हैं कि सरकारें जनहितैषी कभी नहीं बन सकती हैं, ये गरीबों के बारे में नहीं सोच सकती हैं. सरकारें तो यह सोचती हैं कि वे बनी ही जनता पर शासन करने को हैं. जनता को सिर्फ वोट सम झने की जिद ही इन्हें उन की लाशों से खेलने की इजाजत देती है.