
राजीव सचान
एक समय सेनाध्यक्ष के रूप में जनरल बिपिन रावत ने कहा था कि भारत ढाई मोर्चों पर युद्ध के लिए तैयार है। उनका इशारा चीन, पाकिस्तान के साथ-साथ भीतरी चुनौतियों से भी था। इन्हीं भीतरी चुनौतियों को आधा मोर्चा माना गया था। यह स्पष्ट है कि इनमें वे सारी ताकतें गिनी गई होंगी, जो आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बनती रहती हैं। जो भी हो, यह साफ है कि जब देश कोरोना संक्रमण की दूसरी खतरनाक लहर से बुरी तरह जूझ रहा था तो ऐसे अनेक तत्व सक्रिय हो गए, जिन्होंने कोविड महामारी से लड़ाई को और कठिन बना दिया। इनकी गिनती करना मुश्किल है, लेकिन इसमें दो राय नहीं कि वे शासन-प्रशासन के लिए सिरदर्द बन गए। कोई दवाओं की कालाबाजारी कर रहा था तो कोई आक्सीजन की। कोई नकली दवाएं बना और बेच रहा था तो कोई अन्य तरीकों से कोरोना मरीजों को ठगने-लूटने का काम कर रहा था। इनमें कुछ ऐसे अस्पताल भी शामिल थे, जो या तो कोरोना मरीजों के उपचार से कन्नी काट रहे थे या फिर उपचार के नाम पर लोगों को दोनों हाथों से लूट रहे थे। कुछ तत्व तो इतने दुस्साहसी थे कि नकली दवाएं बनाने के काम को कुटीर उद्योग की तरह चला रहे थे।
देश भर में पुलिस को अपनी ऊर्जा इन कालाबाजारियों, ठगों और बदमाशों से निपटने में खपानी पड़ रही थी। ठगी, लूट और कालाबाजारी का काम कितने बड़े पैमाने पर हो रहा था, इसे इससे समझा जा सकता है कि अकेले दिल्ली में चार मई तक दवाओं की जमाखोरी और कालाबाजारी में 90 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया। इनमें वे शामिल नहीं हैं, जो आक्सीजन सिलेंडर, कंसंट्रेटर्स आदि की कालाबाजारी कर रहे थे। यह वह दौर था, जब जिसे मौका लग रहा था, किसी मजबूर-असहाय को लूटने का मौका नहीं छोड़ा रहा था। यह काम आम उठाईगीर, छुटभैय्ये बदमाश ही नहीं कर रहे थे, संभ्रांत माने जाने वाले लोग भी कर रहे थे। दिल्ली के बड़े व्यवसायी नवनीत कालरा की गिरफ्तारी इसकी पुष्टि भी करती है।
नि:संदेह हर समाज में अपराधी, लालची और बईमान तत्व होते हैं, लेकिन यदि वे किसी संकट के समय खुलकर सामने आ जाएं और शासन-प्रशासन के लिए मुसीबत बन जाएं तो फिर यह सवाल उठेगा ही कि वह समाज कैसा है? समाज को बनाने का काम केवल समाज के लोग ही नहीं करते, सरकारें भी नियम-कानूनों के अनुपालन के जरिये करती हैं। जहां भी नियम-कानूनों के पालन में लापरवाही बरती जाती है या फिर उन्हेंं अपेक्षित महत्व नही दिया जाता, वहां वैसा ही होता है, जैसा कोरोना लहर की चरम के दौरान देश के विभिन्न हिस्सों में देखने को मिला। यह ठीक नहीं कि जब देश हाल के इतिहास में सबसे गहन और भीषण संकट से दो-चार हो रहा था, तब वह तमाम लोगों के चारित्रिक पतन की पराकाष्ठा देख रहा था। ये वे तत्व थे, जो समाज और देश को भूलकर अपने स्वार्थ की पूर्ति करने में लगे हुए थे। ऐसे तत्वों में उन शातिर किसान नेताओं और उनके लंपट साथियों की भी गिनती की जानी चाहिए, जो पंजाब में लाकडाउन तोड़कर धरना-प्रदर्शन करने और हरियाणा में कोविड अस्पताल के उद्घाटन पर अडंगा लगाने में जुटे हुए थे। इस तरह की हरकतें केवल निराशा और जुगुप्सा पैदा करने का ही काम नहीं कर रही थीं, बल्कि कोरोना से जंग को मुश्किल बनाने के साथ देश का नाम भी खराब कर रही थीं। ये हरकतें उन भले, संवेदनशील और परोपकारी नागरिकों के सेवा भाव की अनदेखी का कारण भी बन रही थीं, क्योंकि मीडिया में दुष्ट तत्वों की दुष्टता के चर्चे ही ज्यादा हो रहे थे। यह सब दुष्टता केवल इसलिए नहीं हो रही थी कि हर समाज में कुछ ऐसे असामाजिक तत्व होते हैं, जो मौके की ताक में बैठे रहते हैं। यह सब इसलिए भी हो रहा था, क्योंकि अपने देश में कानून का शासन बहुत ही कमजोर और शिथिल है।
इसमें संदेह नहीं कि कालाबाजारी-जमाखोरी करने और अन्य तरह से लोगों को धोखा देकर लूटने वाले यह जान रहे थे कि एक तो पुलिस एवं अदालतें उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाएंगी और दूसरे, यदि वे उनके चंगुल में आ भी गए तो येन-केन-प्रकारेण बच निकलेंगे। इस पर शर्त लगाई जा सकती है कि जो भी कालाबाजारी, धोखाधड़ी, जमाखोरी आदि में गिरफ्तार हुए हैं, उनमें से अधिकांश बच ही जाएंगे। तनिक सा रसूख रखने वाले तो पक्के तौर पर बच निकलेंगे, क्योंकि अपने देश में समर्थ लोगों के सामने कानून के हाथ या तो छोटे पड़ जाते हैं या फिर वे नजर ही नहीं आते। इसे समझने के लिए इससे अवगत होना आवश्यक है कि नवनीत कालरा की पैरवी के लिए देश के बड़े वकील खड़े हुए।
कोरोना कहर के वक्त लोगों को ठगने-लूटने और उनकी विवशता का दोहन करने वाले तत्व बेकाबू हो जाने के लिए केवल पुलिस और प्रशासन को दोष देने से कोई लाभ नहीं, क्योंकि पुलिस और अदालतों को इतना दक्ष और सक्षम बनाया ही नहीं गया कि शातिर तत्व उनसे भय खाएं और आपराधिक कृत्य करने के पहले सौ बार सोचें। इस स्थिति के लिए सरकारें जवाबदेह हैं और वे उससे बच नहीं सकतीं। विडंबना यह है कि इस कठिन काल में राजनीतिक दलों ने भी बहुत ही क्षुद्रतापूर्ण आचरण किया। उन्होंने घटिया राजनीति की सारी सीमाएं पार कर दीं और वह भी तब जब दूसरी लहर की अनदेखी के लिए हर कोई दोषी है। इसमें संदेह है कि केंद्र और राज्यों में सत्तासीन राजनीतिक दल इस पर कुछ सोचेंगे कि कानून के शासन को सुदृढ़ करने की गहन आवश्यकता है, क्योंकि न तो पुलिस सुधारों का कोई अता-पता है और न ही न्यायिक सुधारों का।