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अहमदाबाद। उत्तराध्ययन हमारे तमाम मन के पर्यायों का सुन्दर अध्ययन कराता है यही सूत्र दिमाग के हरेक पर्यायों को विशुद्ध करते हंै। इस सूत्र को सुनकर उसके प्रति प्रीति एवं प्रतीति बढऩा चाहिए। प्रतिक्रमण-कामअसग्ग एवं पच्चक्खाण सम्यक्त्व के पराक्रमों है छह आवश्यक में प्रतिक्रमण की महत्ता बताई है। हमारा मन जाने अथवा अनजाने से किसी अनिश्चित वस्तु पर चला जाता है तो उसे वापिस अपने ठिकाने लाना वह प्रतिक्रमण है।
अहमदाबाद में बिराजित प्रखर प्रवचनकार, संत मनीषि, गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयश सूरीश्वरजी महाराजा श्रोताजनों को संबोधित करते हुए फरमाते है  भूल होना मानव स्वभाव है। यह भूल ही अतिक्रमण है इस अतिक्रमण से वापस लौटने को प्रतिक्रमण कहते है। शास्त्रकार महर्षि फरमाते है पाप प्रवृत्ति से पीछे लौटना यानि प्रतिक्रमण। एक भावक को सम्यक्त्व  की मस्ती में सुबह और शाम प्रतिक्रमण करना चाहिए। सुबह के प्रतिक्रमण को राईअ प्रतिक्रमण कहते है तथा शाम के प्रतिक्रमण देवसी प्रतिक्रमण कहते है।
तत्काल खाये हुए जहर को वमन-विरेचन के द्वारा प्रभाव रहित बनाया जा सकता है बाद में ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है उस विष का दुष्प्रभाव मिटाना कठिन-कठिनतर-कठिनतम हो जाता है वैसे ही जाने अनजाने में किए गए पापों का प्रायाच्छित तत्काल कर दिया जाए तो कर्मरूपी विष का तीव्र दु:ख कम किया जा सकता है।
व्यवहार में देखा जाय तो जो व्यक्ति प्रतिदिन स्नान करता है वह शुद्ध कहलाता है परंतु उस स्नान से मात्र बाल शरीर की शुद्धि होती है और वह बाल शुद्धि तो अनेक जन्मों में अनेक बार की है। उससे हमारी आत्मशुद्धि कदापि नहीं होनी है। आत्मशुद्धि के लिए प्रतिक्रमण की क्रिया जो व्यक्ति प्रतिदिन करता है वह व्यक्ति आध्यात्मिक  क्षेत्र में शुद्ध एवं पवित्र बनता है।
शास्त्रों में बताया है पंद्रह दिन के बाद एक दिन विशेष से पाक्षक प्रतिक्रमण चार महीने के बाद चौमासी प्रतिक्रण करके आत्म निरीक्षण करना है। तथा सबसे बड़ा संवत्सरि पर्व का प्रतिक्रमण करके आत्म शुद्धि करना है। कहते है जो व्यक्ति प्रतिदिन प्रतिक्रमण करता है वह अपने तमाम कर्मों के आने वाले द्वार को रोक लेता है। गुरूओं अपने जीवन बनाना। आपकी जीवन शैली को देखकर कोई कहे के ये तो भगवान का आदमी है, ये तो चौथे ओर से आया हुआ जीव है।
कायोत्सवर्ग षड् आवश्यक का पांचवा अंग है यह पाप नियुक्ति एवं देह निर्ममत्व की अचूनक साधना है प्रतिक्रमण का मूल उद्देश्य कायोत्सर्ग है क्योंकि यही एक ऐसा माध्यम है जिसमें हम अपने अन्तर्मन में या आत्म स्वभाव में स्थित हो सकते है। कायोत्सर्ग का अर्थ है काया का उत्सर्ग करना, शरीर का त्याग करना चाहिए। शारीरिक प्रवृत्ति एवं शारीरिक ममत्व का विसर्जन करना अथवा देहातीत अवस्था का अनुभव करना।
लब्धिसूरिमहाराजा ने अपने कृति में बताया है काया नश्वर तेरी है एक दिन वो राख की हेरी है ये काया नाश होने वाली है एक दिन यही काया मिट्टी में मिल जाएगी। काया कैसे भी कार्य क्यों न करें परंतु एक दिन मृत्यु आएगी आत्मा शरीर को छोड़कर चली जाएगी। संजीवनी विद्या याने कायोत्सर्ग जो देहातीत है देह अलग आत्मा अलग यह लोकास्थिति की विषयता है एक नश्वर है तो दूसरा शाश्वत है दो पार्टी का योग हो गया। आप रास्ते में चल रहे हो आपको कोई गुंडा जिला आपको सफर पूरा करना गुंडा से छूटने का कोई उपाय नहीं उसके साथ साथ चलकर मुसाफिरी पूरी करनी ही पड़ेगी ठीक इसी तरह शरीर गुंडा है आत्मा को शरीर के साथ रहना है तो सावधानी रखकर चलना ही पड़ेगा मृत्यु नहीं आएगी तब तक तो शरीर के साथ आत्मा को सक्चित रहना होगा। पूज्यश्री फरमाते है इच्छाओं के निरोध के लिए प्रत्याख्यान एक आवश्यक कत्र्तव्य है। इस दुर्लभ मानव तब को समग्र रूप से सार्थक करने हेतु जीवन में त्याग होना अत्यंत जरूरी है। कुछ समय के लिए या भाव ज्जीवन के लिए किसी वस्तु का त्याग कर देना प्रत्याख्यान है। ये प्रत्याख्यान दो प्रकार के बताए है। द्रव्य प्रत्याख्यान, भाव प्रत्याख्यान। जो प्रत्याख्यान आत्मिक उल्लास से रहित होता है अथवा आहार वस्त्र आदि बाह्र वस्तुओं का किंचिद् त्याग करना द्रव्य प्रत्याख्यान है।
आत्मिक उल्लासपूर्वक ग्रहण किया गया प्रत्याख्यान अथवा अज्ञान-मिथ्यात्व-असंयम-कषाय आदि वैभाविक वृत्तिओं का त्याग करना भाव प्रत्याख्यान है।
पच्चक्खाण का सरल अर्थ नियम। जो व्यक्ति से जितना हो नियत लेना चाहिए। कहते है श्रावक यदि रात्रि भोजन का त्याग करता है तो उसे चउविहार का लाभ मिलता है। आपसे पुरिमडु-साडु पोरिसी-पोरिसी न हो तो नवकारशी का पच्चक्खाण तो जरूर करना। कहते है प्रत्याख्यान का यथाविधि आचरण करने पर चारित्र गुण की पुष्टि-आस्रव का निरोध अतुल उपशम गुण की प्राप्ति होती है। बस, आप भी प्रतिक्रमण कायोत्सर्ग एवं पच्चक्काण की आराधना अच्छी तरह से करके आत्मा से परमात्मा बनें।