उमेश चतुर्वेदी
यह सही है कि कोरोना महामारी के इलाज में सबसे कारगर हथियार हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधी क्षमता ही सामने आई है, और इसे बढ़ाने में एलोपैथ के साथ साथ पारंपरिक उपचार पद्धतियों का उल्लेखनीय योगदान सामने आया है। ऐसे में कोरोना वायरस जनित संक्रमण के उपचार में कौन सी पद्धति कितनी कारगर रही, इस पर एलोपैथ के पैरोकारों और बाबा रामदेव के बीच किच-किच जारी है।
हालांकि स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन के दबाव में बाबा रामदेव ने इंडियन मेडिकल एसोसिएशन से माफी मांग ली। लेकिन अगले ही दिन उन्होंने 25 सवालों की सूची जारी करके एक तरह से आइएमए को बचाव की मुद्रा में ला दिया है। टीवी चैनलों की बहस में आइएमए के कर्ता-धर्ता बाबा से भिड़ रहे हैं, लेकिन कोई भी बाबा के सवालों का जवाब नहीं दे पाया है।
अगर बाबा जोर देने लगते हैं तो बहस में शामिल डॉक्टर विज्ञानी नहीं होने की बुनियाद बताते हुए उन्हें खारिज करने की कोशिश करते हैं। परंतु इस पूरे विवाद ने देसी एवं पारंपरिक इलाज पद्धति बनाम एलोपैथी के बीच विवाद छेड़ दिया है। उल्लेखनीय है कि पत्रकारिता के छात्रों को सूचना के साम्राज्यवाद के बारे में पढ़ाया जाता है। लेकिन दुर्भाग्यजनक तथ्य यह है कि मौजूदा मीडिया में सक्रिय ज्यादातर लोग सूचना के इसी साम्राज्यवाद के जाने-अनजाने वाहक हैं। इसलिए उन्हें पता नहीं है कि पारंपरिक बनाम एलोपैथी का विवाद कोरोना की पहली लहर के दौरान उसी पश्चिम में भी हुआ था जिसे हम आधुनिक और श्रेष्ठ सभ्यता मानते हैं। विवाद अफ्रीकी देशों में भी कम नहीं हुआ था। लेकिन पश्चिमी दुनिया से जिन माध्यमों के जरिये हमारे पास सूचनाएं आती हैं, चूंकि वे पश्चिम की श्रेष्ठता ग्रंथि से पीडि़त हैं, जो पश्चिमी आर्थिक मॉडल और हितों की परोक्ष रूप से हिफाजत ही करते हैं, इसलिए उनकी ओर से कथित विकासशील समाजों में ऐसी सूचनाएं नहीं आईं। यही वजह है कि बाबा रामदेव बनाम एलोपैथी के विवाद में भारतीय सूचना तंत्र भी बाबा के खिलाफ और आइएमए के पक्ष में खड़ा नजर आ रहा है।
बाबा और इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के बीच जो बहसबाजी हो रही है, उसकी व्याप्ति आयुर्वेद बनाम आधुनिक चिकित्सा पद्धति होती जा रही है। अव्वल तो संकट के समय ऐसा कोई विवाद होना ही नहीं चाहिए। कोई भी पद्धति न तो पूर्ण हो सकती है और न ही सटीक। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं होना चाहिए कि किसी पद्धति को अवैज्ञानिक कह कर खारिज कर दिया जाए। अगर आयुर्वेद या पारंपरिक चिकित्सा पद्धति इतनी ही अवैज्ञानिक थी तो विज्ञानी होने का दावा करने वाली पश्चिमी सभ्यता के तमाम लोग इसके मुरीद क्यों होते चले गए? कोरोना महामारी काल में निश्चित तौर पर सभी चिकित्सा पद्धतियों के डॉक्टरों ने मेहनत की है।
आधुनिक दौर में भारत जैसे विशाल देश में किसी एक पद्धति के सहारे पूरी जनसंख्या की सेहत की रखवाली कर पाना आसान नहीं है। इसलिए होना तो यह चाहिए कि जिस पद्धति में जो कमी है, उसे स्वीकार करे और दूसरी पद्धति की अच्छाई को स्वीकार करे। लेकिन बात यहीं पर आकर अटक जाती है। आयुर्वेद, यूनानी, प्राकृतिक चिकित्सा और होमियोपैथ आधुनिक चिकित्सा पद्धति में विकसित सर्जरी की तकनीक को न सिर्फ स्वीकार करते हैं, बल्कि इस मोर्चे पर अपने हाथ खड़े कर देते हैं। पर आधुनिक चिकित्सा पद्धति इस मामले में पूरी तरह असहिष्णु है। वह रिकॉर्ड पर दूसरी चिकित्सा पद्धतियों की श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं करती। यह बात और है कि पेट, हड्डी, नींद और रक्तचाप के विकार के संदर्भ में ऐसे अनेक लोगों के अनुभव आपके समक्ष प्रस्तुत हो सकते हैं कि बड़े आधुनिक अस्पतालों के डॉक्टरों ने जो दवाएं सुझाईं, वे अंग्रेजी नाम में ज्यादातर आयुर्वेदिक दवाएं ही थीं।
विदेश में भी हुआ था विवाद : पारंपरिक बनाम आधुनिक चिकित्सा पद्धति की कथित श्रेष्ठता पर जारी विवाद के संदर्भ में याद दिलाना जरूरी है कि ब्रिटेन के पड़ोसी देश आयरलैंड में कोरोना की पहली लहर के दौरान विवाद हुआ था। आयरलैंड में फूलों और जड़ी-बूटियों से इलाज की परंपरा है। कोरोना के इलाज में जब आयरलैंड के डॉक्टरों ने इस पारंपरिक पद्धति का सहारा लिया तो वहां भी इसे अवैज्ञानिक और खतरनाक बताकर खारिज किया गया। यह बात और है कि इलाज के कथित प्रोटोकाल को आयरलैंड ने खारिज कर दिया और वह अपनी पारंपरिक पद्धति से भी इलाज करता रहा। नार्वे ने भी ऐसा किया और एलोपैथी के वर्चस्व वाले कथित प्रोटोकॉल तक को मानने से इन्कार कर दिया। कुछ अफ्रीकी देशों में तो फार्मा लॉबी के दबाव में पारंपरिक पद्धति से इलाज करने वालों को जेल तक में डाला गया। यह बात और है कि विरोध बढऩे के बाद फार्मा लॉबी को हथियार डालने पड़े।कथित वैज्ञानिकता की जब भी दुहाई दी जाती है, हमारे पास ब्रिटेन और अमेरिका के ही उदाहरण होते हैं।
हमारे यहां के आधुनिक विद्वान उन्हीं का आधार लेकर अपनी पारंपरिक ज्ञान परंपरा को खारिज करते हैं। ऐसे लोगों को याद दिलाना जरूरी है कि पिछली सदी के सातवें दशक में अमेरिकी शुगर लॉबी ने खाने के तेल को फर्जी शोध के नाम पर धीरे-धीरे खाने की आदत से न सिर्फ दूर करा दिया था, बल्कि चीनी को उसके मुकाबले अच्छा ठहरा दिया था। वर्ष 2016 में अमेरिका के जेएएमए इंटरनल मेडिसिन में छपे एक लेख के मुताबिक उस समय अमेरिकी शुगर लॉबी ने चीनी से होने वाले रोगों मसलन मधुमेह, हृदय रोग आदि को गलत साबित करने और उसकी ओर से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए फर्जी शोध करा दिया था। इस आग्रही अध्ययन में विशेषज्ञों को तैयार किया गया कि वे दिल के रोगों के लिए सैचुरेटेड फैट यानी सांद्र वसा को जिम्मेदार ठहराएं। सैनफ्रांसिस्को की कैलिर्फोिनया यूनिर्विसटी के स्टैंटन ग्लैंट्ज ने चीनी उद्योग के गोपनीय दस्तावेजों के हवाले से यह पर्दाफाश किया था।
हार्वर्ड के विज्ञानियों के इस अध्ययन में रोगों के लिए चीनी को कम और सैचुरेटेड फैट को ज्यादा जिम्मेदार ठहराया गया। यह शोधपत्र उन दिनों एक प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल में प्रकाशित हुआ था। स्टैंटन ग्लैंट्ज के दावे के अनुसार इसके बाद ही दुनियाभर के विज्ञानियों ने वसा को अलग रखने वाली खाद्य आदतें विकसित करने की दिशा में काम करना शुरू किया। वर्ष 2016 में ही न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक शीतल पेय बनाने वाली एक कंपनी ने लाखों डॉलर का भुगतान शोधकर्ताओं को प्रायोजित करने में खर्च किया था, ताकि मोटापे और अवसाद जैसे रोगों के शीतल पेय पीने की आदत से जुड़े रिश्ते का खंडन किया जा सके। कथित वैज्ञानिकता में कैसे-कैसे खेल होते हैं, इस पर जून 2016 में समाचार एजेंसी 'एपीÓ ने एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसके मुताबिक कैंडी निर्माताओं ने एक ऐसे अध्ययन को प्रायोजित किया था जो साबित करे कि जो बच्चे कैंडी नहीं खाते उनके मुकाबले कैंडी खाने वाले बच्चों में मोटापा कम होता है।
आयुर्वेद बनाम एलोपैथी का विवाद कोरोना के इलाज के संदर्भ में बढ़ा है। लेकिन हमें एलोपैथी की सीमाओं को भी देखना चाहिए। कोरोना की पहली लहर के दौरान मलेरिया के इलाज में इस्तेमाल होने वाली हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन के इस्तेमाल की 23 मई 2020 को स्वास्थ्य मंत्रालय ने अनुमति दी। जबकि इसके ठीक दो दिन पहले ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस पर रोक लगा दी थी। तब इसी हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन को उपयोगी और वैज्ञानिक बताया जा रहा था। उस समय जब भारत सरकार ने अमेरिका को इसका निर्यात किया था तो देश में एक खास वर्ग भी इंटरनेट मीडिया पर सरकार की आलोचना में जुट गया था। इसी तरह दूसरी लहर के दौरान जान बचाने वाली कथित रेमडेसिविर की बड़ी चर्चा रही। लोग इसकी कालाबाजारी करने लगे। अखबारों के क्राइम पेज अब भी इस इंजेक्शन के लिए ठगे जा चुके लोगों की कहानियों से भरे रहते हैं। निश्चित तौर पर यह दवा एंटी वायरल है। इबोला महामारी के दौरान इसका सफल परीक्षण हुआ। डॉक्टर धड़ाधड़ इसे लिखते रहे, इसकी कालाबाजारी और तस्करी होती रही। लेकिन आखिर में क्या हुआ? न केवल विश्व स्वास्थ्य संगठन, बल्कि दिल्ली के गंगा राम अस्पताल के डॉक्टरों तक ने इसे खारिज कर दिया। कुछ दिन पहले तक इस दवा का क्या महत्व था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 11 अप्रैल को सरकार ने इसके निर्यात पर रोक लगा दी। हमारे डॉक्टरों से तो ज्यादा समझदार महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले की डीएम रहीं, जिन्होंने 90 रोगियों पर इस दवा के नकारात्मक असर आते ही इसके इस्तेमाल पर रोक लगा दी। प्लाज्मा थैरेपी का सुझाव तो आयुर्वेद ने नहीं दिया था। अत्याधुनिक और वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति एलोपैथ ने ही दिया।
लेकिन उसे भी खारिज कर दिया गया।
इसी तरह एक और दवा आइवरमेक्टिन भी तमाम कोरोना रोगियों को दी गई। लेकिन पैरासिटिक इन्फेक्शन के इलाज वाली इस दवा के इस्तेमाल को अप्रभावी बताकर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मना कर दिया। इसी तरह एक और दवा इटोलिजुमैब का भी आधुनिक अस्पतालों ने कोरोना रोगियों के इलाज में खूब इस्तेमाल किया, लेकिन इम्यून सिस्टम की बीमारी सोरायसिस के इलाज में काम आने वाली इस दवा को भी बाद में रोक दिया गया।
इन दवाओं के इस्तेमाल और उनकी रोक कथित वैज्ञानिकता की ही सीमाओं को उजागर करता है। जाहिर है कि यह वैज्ञानिकता भी नहीं टिक पाई। लेकिन यह भी सच है कि कथित वैज्ञानिकता के देश में काढ़ा और हल्दी दूध के साथ ही भारतीय देसी दवाओं का जमकर इस्तेमाल हुआ। हल्दी की महत्ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अब ब्रिटेन और अमेरिका के कॉफी शॉप में हल्दी दूध भी मिलने लगा है। दरअसल वैज्ञानिकता और अवैज्ञानिकता की यह बहस ही बेमानी है। कई उदाहरण ऐसे मिल जाएंगे, जहां एलोपैथ काम नहीं करता, वहां आयुर्वेद प्रभावी होता है। जहां यूनानी कमजोर होती है, वहां एलोपैथ सहयोग करता है। इसलिए श्रेष्ठता बोध और वैज्ञानिकता के आधार पर किसी को बड़ा और किसी को बदतर बताना ठीक नहीं।
[वरिष्ठ पत्रकार]