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नरेन्द्र भल्ला
कहते हैं कि राजनीति में समर्थन व विरोध का चोली दामन का साथ होता है और यही वो दो पहिये हैं, जो किसी भी देश के लोकतंत्र की पहचान बनते हैं. लेकिन पश्चिम बंगाल के दौरे को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बीच जिस स्तर की कड़वाहट सामने आई है, उसे हम स्वस्थ व मजबूत लोकतंत्र की निशानी तो कतई नहीं कह सकते. चुनाव ख़त्म हो जाने के बाद पुराने गिले-शिकवे भुलाकर सत्तापक्ष और विपक्ष के नेताओं का आपसी मेलमिलाप और साथ बैठकर भोजन करने की हमारे देश की राजनीति की पुरानी परंपरा रही है, जिसने लोकतंत्र को आज इस मुकाम तक पहुंचाया है. पर,बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब यह परंपरा टूटने की शुरुआत हो चुकी है और वह भी बौद्धिक-सांस्कृतिक रुप से सबसे समृद्ध कहे जाने वाले बंगाल की भूमि से.
सवाल यह नहीं है कि इस पूरे घटनाक्रम में किसने, किस नियत से एक-दूसरे को नीचा दिखाने की सियासत खेली, बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि अपनी-अपनी जगह के शीर्ष संवैधानिक पदों पर बैठे नेताओं के मन-मस्तिष्क इतने संकुचित क्यों होते जा रहे हैं कि एक-दूसरे का सामना करने में भी इतनी घृणा नजर आने लगती है. अगर सत्ताधारित राजनीति में विरोध की आवाज ही नहीं रहेगी, तो फिर लोकतंत्र की आत्मा ही कहां बचेगी?
यह भी सच है कि वक़्त बदलने के साथ राजनीति में भी मानवीय मूल्यों की कमी आई है और अपने विरोधियों के प्रति अपमान व बदला लेने की भावना कुछ अधिक ही बढऩे लगी है. राजनीति में मानवीय मर्यादा का अब क्या स्थान रह गया है, यह कल ही देशवासियों को देखने को मिल गया. लेकिन यह कोई ज़्यादा पुरानी बात नहीं है, जब सार्वजनिक जीवन में एक-दूसरे के विरोधी होने के बावजूद हमारे नेताओं में आपसी भाईचारा व मदद का भाव देखने को मिला करता था. इस बारे में एक वाकये का जिक्र करना शायद उचित होगा.यह बात साल 1991 की है जब बीजेपी के कद्दावर नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने यह कहकर सबको चौंका दिया था कि, "अगर आज मैं जिंदा हूं, तो राजीव गांधी की वजह से." तब वाजपेयी विपक्ष के नेता थे और उसी समय पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या हुई थी. उस वक़्त एक पत्रकार ने वाजपेयी से राजीव गांधी के बारे में उनकी राय जानना चाही थी. उसके जवाब में ही अटलजी ने अपनी यह भावुक प्रतिक्रिया देते हुए पूरे वाकये का खुलासा किया.
राजीव गांधी 1984 से 1989 के दौरान जब देश के प्रधानमंत्री थे, तब वाजपेयी किडनी की गंभीर बीमारी से जूझ रहे थे. तब देश में इसके इलाज की उतनी बेहतर चिकित्सा-व्यवस्था उपलब्ध नहीं थी. ऐसे में, उन्हें अमेरिका जाने की सलाह दी गई, लेकिन तब वाजपेयी की माली हालत इतनी मजबूत नहीं थी कि वे इतना बड़ा खर्च वहन कर पाते. इस घटना का जिक्र करते हुए तब वाजपेयी ने भावुक अंदाज में बताया था कि किसी तरह राजीव गांधी को यह बात मालूम पड़ी कि वे किडनी संबंधी बीमारी से पीडि़त हैं और उन्हे विदेश में इलाज की आवश्यकता है. वाजपेयी ने कहा कि, "एक दिन राजीव गांधी ने उन्हें अपने दफ्तर में बुलाया और कहा कि उन्हें भारत की तरफ से एक प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने की हैसियत से संयुक्त राष्ट्र भेजा जा रहा है."  राजीव गांधी ने वाजपेयी से कहा कि उन्हें उम्मीद है कि इस मौके का लाभ लेते हुए वे न्यूयॉर्क में अपना इलाज भी करवा लेंगे. वाजपेयी ने खुलासा किया कि तब वे न्यूयॉर्क गए और इसी वजह से आज जिंदा हैं.हालांकि न्यूयॉर्क से लौटने के बाद न तो राजीव गांधी ने और न ही वाजपेयी ने यह वाकया किसी से साझा किया. जबकि वे दोनों सार्वजनिक जीवन में एक दूसरे के विरोधी की भूमिका में ही रहे. पर, वाजपेयी इस शिष्टता के लिए राजीव गांधी को धन्यवाद प्रेषित करना नहीं भूले.
मौजूदा राजनीति के कर्णधार अगर इस वाकये में छुपे मर्म को अपने सार्वजनिक जीवन में जरा-सा भी स्थान दे सकें, तो हमारा लोकतंत्र और ज्यादा जीवंत बन जाए.