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अहमदाबाद। महापुरुषों के मंगल शब्दों हमारे जीवन के लिए मंगलकारी है। व्यवहार की दृष्टि से देखें तो संसारी आत्मा को भी माता-पिता का आशीर्वाद परम मंगल को करता है। जो व्यक्ति अपने मां बाप की सेवा करता है उसके जीवन में कभी दु:ख नहीं आता है। इसी तरह संयम जीवन को स्वीकार करके जिस शिष्य ने अपने गुरू की सेवा की हो उस शिष्य का यश कीर्ति तथा पुण्य की ही वृद्धि हुई है। महापुरुषों ने हमारे ऊपर परम करुणा करके अच्छे से अच्छा शास्त्रों की रचना करके दी है।
अहमदाबाद में बिराजित प्रखर प्रवचनकार, संत मनीषि, गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयश सूरीश्वरजी महाराज श्रोताजनों को संबोधित करते हुए सूरीश्वरजी महाराजा श्रोताजनों को संबोधित करते हुए फरमाते है। स्वाध्याय पांच प्रकार के बताए है वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा, धर्म कथा। उत्तराध्ययन सूत्र में स्वाध्याय के प्रकार का वर्णन करते हुए बताते है गुरू के पास शब्द अथवा अथ का पाठ लेना यानि वाचना, शंका का निवारण करने विशेष रूप से पूछना वह पृच्छना, सीखी हुई वस्तु का शुद्धि पूर्वक पुनरावर्तन करना याजि परावर्तना, शब्द-पाठ या उसके अर्थ का मन से चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। कहते है वाचना-पृच्छना एवं परावर्तना गुरू की सापेक्ष क्रिया है जबकि अनुप्रेक्षा शिष्य की आत्म जागृति पर आधार है।
चैत्यवंदन करते वक्त अरिहंत चेईआणं सूत्र आता है उसमें अनुपेक्षाअे वड्ढमाणिअे आता है सूत्र में भी बताया है कोई भी क्रिया अनुप्रेक्षा बगैर नहीं होती है। जो भी सूत्र या पाठ किया उस पर चिंतन हमारा सतत रूप से चलना चाहिए तत्व की प्राप्ति तभी होती है जब किसी के मुख से सुना हो अथा शुरू ने हमें कुछ कहा हो तो उस पर अनुप्रेक्षा करे चिंतन करें। ऐसी अनुप्रेक्षा करने वाले का शास्त्र में एक दृष्दांत बताया है। चिलातिपुत्र को सुषया से खूब राग था।
जब चिलातिपुत्र सुषया को भगाकर जंगल की ओर ले जा रहा था तब सुषया के पक्ष वाले चिलातिपुत्र को पकडऩे उसके पीछे दौड़े। चिलातिपुत्र के पास सरन्डर के सिवाय दूसरा मार्ग नहीं था अब क्या करें? सुषया के प्रति तीव्र राग होने से उसने सुषया का गला कांट दिया और उस मस्तक को हाथ में पकड़कर तेजी से दौडऩे लगा। पूज्यश्री फरमाते है जब व्यक्ति ही नहीं रहा हो तो दौडऩा किसके पीछे? सुषया के पक्ष वाले वापिस लौट गए। चिलातिपुत्र का पुण्योदय कि हाथ में मस्तक है खुद हिंसक है फिर भी साधु का योग मिला। चिलातिपुत्र ने साधु से कहा, मुझे उपदेश दो वरना...। साधु ने कहा ये पापी जरूर है मगरअंतर इसका जागृत है इसलिए इसे कुछ न कुछ हितकारी वचन कहने ही चाहिए। साधु ने चिलातिपुत्र को संबोधन करते हुए उपशय विवेग-संवर ये तीन शब्द कहें। प्रवचन की धारा को आगे बढ़ाते हुए पूज्यश्री फरमाते है साधु के इन तीन शब्दों नी अनुप्रेक्षा करते हुए चिलातिपुत्र का जीवन ही बदल गया।
अनुप्रेक्षा से जीव को क्या प्राप्त होता है? शास्त्रकार महर्षि बताते है अनुप्रेक्षा से सूत्रार्थ के चिंतन शास्त्रकार महर्षि बताते है अनुप्रेक्षा से सूत्रार्थ के चिंतन मनन से जीव आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष ज्ञानावरणीय सात कर्मों की प्रकृतियों के प्रगाढ़ बंधन को शिथिल करता। उनकी दीर्घकालीन स्थिति को अल्पकालीन करता है। उनके तीव्र रसानुभाव को मंद करता है। बहुकर्म प्रदेशों को अल्प प्रदेशों में परिवर्तित करता है। कहते है आयुष्य कर्म का बंध कदाचित् करता है कदाचित् नहीं भी करता है। ज्यादातर जीव अशाता वेदनीय कर्म का बंध नहीं करता है।
दूसरी अेंगल से विचार करें जब व्यक्ति अनुप्रेक्षा करता है मन इच्छा करता है कि नहीं फिर भी ध्यान की धारा में वह बह जाता है जब वह ध्यान में है तब उसे बाहर के वातावरण की असर नहीं होती है मन जब ध्यान में है तब उसे अशाता नहीं होती है अशाता तो उसे बाह्म परिबलों से होती है। शास्त्रकार महर्षि फरमाते है जो कुछ सुनने में आता है उस पर चिंतन मनन करो इसमें अपना भी कल्याण है अन्य का भी कल्याण ही है।चौद पूर्वधर एक नहीं अनेक हो गए। इस चौदपूर्वधर में सबसे आगे कौन है? तो कहते है जिनकी अनुप्रेक्षा ज्यादा वे सबसे आगे कहे जाएगें। रोज नये नये अर्थों का पाठ करेंगे महाशाता का अनुभव होगा। आजकल लोग सेवा पूजा को महत्व ज्यादा देते है प्रवचन में नहीं जाते है। जो व्यक्ति प्रतिक्रमण करता है उसे पता होगा कि अतिचार में बताया है उपदेश माला प्रमुख सिद्धांत पढय़ो गण्यो परावत्र्तो नहीं। उपदेश माला विगेरे ग्रन्थों का पाठ किया नहीं उसका पुनरावत्र्तन भी नहीं करने से अतिचार (दोष) लगता है। ज्ञान सार में बताया जो व्यक्ति ज्ञान में मग्न हो गया है उसके सुख का वर्णन करने में इन्द्र भी समर्थ नहीं है।
साधु तो हमेशा स्वाध्याय के चिंतन मनन में व्यस्त रहते है श्रावकों को भी अनुप्रेक्षा करके आत्मा से परमात्मा बनना है।