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अहमदाबाद। जिन शासन के महान इतिहास की ओर एक नजर करेंगे तो हमें ये जानने को मिलेगा कि प्रत्येक तीर्थंकर की आत्मा कोई राजा थे, तो कोई राजकुमार थे, सुख-समृद्धि होते हुए भी उन्होंने राज्य का त्याग कर संयम ग्रहण किया। कहते हैं कोई भी व्यक्ति त्याग कब करता है? जब उस व्यक्ति को प्रतीति होती है कि त्याग करके सुन्दर चीज की प्राप्ति होगी तब। संयम की प्राप्ति के लिए अणागार बनना पड़ता है। अणगार याने अपने घर का त्याग करना। साधु बनने के लिए स्वजन परिवार-संपत्ति-जायदाद आदि का त्याग करके ही संयम लिया जाता है।
अहमदाबाद में बिराजित प्रखर प्रवचनकार, संत मनीषि, गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयश सूरीश्वरजी महाराज श्रोताजनों को संबोधित करते हुए सूरीश्वरजी महाराजा श्रोताजनों को संबोधित करते हुए फरमाते है।  संयम स्वीकारने के बाद जीवन का पूरा आधार मधुकरी (गोचरी) जीवन जीना। एक घर से दूसरे घर जाकर आहार (गोचरी) ग्रहण करना, जिस प्रकार गाय एक ही स्थान से घास न ग्रहण करते हुए अलग-अलग जगह से थोड़ा थोड़ा घास ग्रहण करती है उसी प्रकार साधु भी अपनी गोचरी ग्रहण करता है। कितने का मानना है अपनी पसंद का भोजन करना वह महासुख है परंतु साधु को तो गोचरी में जो आहार मिले उसमें ही वे सुख की अनुभूति करते है।
संयमी अपने मन पसंद, आहार को नहीं करते है क्योंकि महासुख चाहेंगे तो इन्द्रियों का गुलाम बनना पड़ेगा तथा एक प्रकार की आंतप्रांत (घर के सदस्य खाने के बाद जो बचता है? आहार ग्रहण करते है। जब आहार की प्राप्ति नहीं होती है तब अक्सर इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान को याद करते है। आदिनाथ प्रभु ने अपना आत्मा का पराक्रम करके दिखाया कि उन्हें 13 महीने 13 दिन तक आहार नहीं मिला फिर भी उन्हें दु:ख नहीं हुआ, ग्लानि नहीं हुई, न ही कभी पीड़ा का अनुभव किया। उन्होंने तो यही विचारा कि मेरा किसी भी प्रकार का अंतराय कर्म लगा है तो वह टूटेगा। अंतराय कर्म को तोडऩा भी एक महासाधना है ये साधना संयम के बिना शक्य नहीं है।
छह छह खंड के मालिक, महासंपत्ति के धारक ऐसे चक्रवर्ती को याद करो उनके पास क्या कुछ नहीं था फिर भी इन सब ऋद्धि सिद्धि का त्याग करके उन्होंने संयम का मार्ग अपनाया। प्रत्येक जैनों के अंदर इन संयमी के लिए महान आदर एवं बहुमान है। जिन्होंने संयम ग्रहण किया है वे आत्मा कैसी पवित्र है इन पवित्र आत्माओं की तरह आप चारित्र ग्रहण कर सको या नहीं परंतु इन संयमीओं के प्रति बहुमान तथा संयमी का आदर्श अपने जीवन में अपनाना ही चाहिए।जैन परिवार में पहले से जिन्हें संस्कार मिले है, वे आत्मा अपनी शक्ति एवं सामथ्र्य के मुताबिक इस महान उपलब्धि की प्राप्ति कर ही लेना चाहिए। संयम का मार्ग अपना ही लेना है। दशवैकालिक सूत्र में बताया अहिंसा संयम एवं तप ये धर्म के प्रकार है। इन तीन में संय को बीच में रखा है कहते है, अहिंसा की साधना संयम के बगैर नहीं होती है तथा संयम लेने के बाद ही तप का रंग लगता है इसीलिए संयम को इन दोनों के बीच में रखा है। पूज्यश्री फरमाते है नमो लोए सव्व साहूणं का जब हम उच्चार करते है तब हमारे मे एक आनंद की उदधि प्रकट होती है। कितने महात्माओं इस संयम जीवन की आराधना का पालन कर रहे है उन महात्माओं का मन-वचन एवं काया के ऊपर का संयम एक अद्भुत है। बाहुबली जैसे मुनि बारह महीने तक काऊसग्ग ध्यान में खड़े रहे। कैसी अद्भुत उनकी साधना थी? कहते है इन महान आत्माओं के जीवन में अनेक कष्ट आए उन्होंने समता से सहन किया। उनका एक ही कहना था साधना वहीं मेरा परिमाण है। भगवान महावीर ने साढ़े बारह वर्ष तक घोर कष्टों को सहन किया। कष्ट को सहन करना भी संयम है। जो प्रबुद्ध है उन्हें कभी नहीं लगता कि मैं कष्ट को सहन कर रहा हूं। वे तो बस इतना ही चाहते है कि छ जीव निकाय जीवों को कैसे शाता पहुंचाऊं, कैसे उनकी रक्षा करूं? संयमी अपनी एक एक आराधना में यही ख्याल रखता है कि जाने अनजाने पृथ्वीकाय का जीवन अथवा तो अनाज का दाणा भी उनके पैर के नीचे न आ जाए। संयम की मस्ती में वे सभी जीवों के प्रति मैत्री भाव एवं सभी जीवों के रक्षण का ही ख्याल रखते है जिन्हें संयम जीवन परम आनंदमय लगा हो वे आत्मा, संयम की आराधना से पवित्र बनकर, आश्रव के निरोध को प्राप्त करता है फिर व्यवधान (विशुद्ध) करके सभी कर्मों की निर्जश करता है। संयम-व्यवधान एवं तप ये तीन त्रिपदी है जिस संयमी में आई है वह संयमी निश्चित रूप से मोक्ष की प्राप्ति करता है। आज का दिन पर्यावरण संरक्षण का दिन है एक ग्लास पानी से काम हो जाता है, वहां बाल्टी भरकर पानी का खराब मत करना, पका हुआ अनाज जहां तहां नहीं डालना। आपको खाने के लिए जितने आहार की जरूरत हो उतना ही अपनी थाली में लेना, झूठा मत छोडऩा, पानी को अशुद्ध मत करना, पर्यावरण को दूषित नहीं करना। इन सभी बातों का खास ख्याल रखें। जिस तरह सुख का जीवन सभी को प्यारा है वैसे ही अन्य जीवों का ख्याल रखकर उनका रक्षण करके जीवन को धन्य बनायें। संयम बिना नहीं मुक्ति। संयम जीवन अंगीकार करके जीवन को विशुद्ध बनाकर, कर्मो की निर्जरा करके शीघ्र आत्मा से महात्मा, महात्मा के परमात्मा बनें।