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अहमदाबाद। चार मक्खी थी। एक मक्खी उड़कर शक्कर के टुकडे पर जाकर बैठ गई। दूसरी मक्खी उड़कर गुड़ के टुकडे उपर जा बैठी। तीसरी मक्खी उड़ी और किसी के थूंक पर बैठ गई तो चौथी मक्खी उडकर सेढ़ा पर बैठ गई। हरेक को अपनी-अपनी चीज पर स्वाद लेने का आनंद आया कुछ समय के बाद सेढ़े पर बैठी हुई मक्की उडऩे का प्रयत्न करती है मगर वह बूरी तरह से फंस गई थी। थूंक पर बैठी हुई मक्खी उडऩे का प्रयत्न करती है मगर प्रयत्न निष्फल। अब भाई बारी गुड़ा पर बैठी हुई मक्खी की। वह मक्खी गुड की चिकनाई से फंसी है कुछ सफल बनी है। शक्कर पर बैठी हुई मक्खी एक ही झटके से उड़ गई।
अहमदाबाद में बिराजित प्रखर प्रवचनकार, संत मनीषि, गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयश सूरीश्वरजी महाराज श्रोताजनों को संबोधित करते हुए सूरीश्वरजी महाराजा श्रोताजनों को संबोधित करते हुए फरमाते है। हमें हमारे जीवन को किस तरह से बनाना है? सेढ़े वाली मक्खी की तरह या थूंक वाली मक्खी की तरह या फिर गुड़ वाली मक्खी या शक्कर वाली मक्खी की तरह। उत्तराध्ययन सूत्र में बताया है जीव को अप्रतिबद्ध (अनासक्त) जीवन जीना है। शक्कर पर रही हुई मक्खी की तरह।
कंडरिक-पुंडरिक दो भाई थे। पुंडरिक को संयम लेने की भावना हुई तो उसने अपने भाई से यह बात की। कंडरिक ने कहा, भैया! राज्य आप संभालो मैं दीक्षा लूंगा कंडरिक ने दीक्षा ले ली और पुंडरिक का मन नहीं मान रहा था फिर भी भाई की आग्रह से राज्य भार संभाला। उन्होंने यहीं सोचा मेरा अंतराय कम4 है इसीलिए मुझे ये संयम नहीं मिल रहा है। कहते है स्पर्धा के कारण लिया हुआ संयम कभी फलित नहीं होता है। हजारों वर्ष तक संयम का पालन करने के बावजूद उन्हें राज्य की याद आई। वे वापिस पुंडरिक के पास आए। और कहां मुझे अब ये संयम जीवन का पालन नहीं करना है। पुंडरिक ने अपने भाई कंडरिक मुनि को बहुत समझाया परंतु वे मान नहीं तभी पुंडरिक संसार से विरक्त बनकर कंडरिक को राज्य सौंपकर शक्कर पर रही हुई मक्खी की तरह एक क्षण का भी विलंब किए बगैर चारित्र को अंगीकार किया।
शास्त्रकार महर्षि फरमाते है संसार में रहना भी पड़े तो नि:संग भाव से रहो। पुंडरिक नि:संग भाव से रहे तब जाकर क्षण का भी विलंब कि बगैर राज्य को छोड़ सके।
जो भी आत्मा शरीर को धारण करती है उसे शरीर की सभी आवश्यकता पूरी करनी ही पड़ती है शरीर है तो समय पर आहार भी देना पड़ेगा तप किया है तो पाणी भी पिलाना ही पड़ेगा, शरीर ने परिश्रम किया है तो उसे आराम भी देना ही पड़ेगा। इतने से बात पूरी नहीं होती हरेक मानव को पांच इंद्रियां मिली है। गर्मी की ऋतु गर्मी सहन नहीं होती, ठंडी का मौसम ठंडी सहन नहीं होती। शरीर एवं इंद्रिय की अनुकूलता के लिए कुछ न कुछ उपयोग करना ही पड़ेगा। गर्मी का मौसम है हवा जहां आएगी वहां जाकर बैठना पड़ेगा, ठंडी की ऋतु है ठंड के रक्षण के लिए ब्लैकेट ओढ़कर बैठना पड़ेगा। हमारी इंद्रियों को अनुकूल बनकर रहना ही पड़ेगा।
गंदगी आंख के सामने आती है पसंद नहीं आता है साफ करवाना ही पड़ेगा, मनोहर रूप सामने नजर आए तो अच्छा लगता है। कभी कभार कोई स्त्री को रूपवान पुरूष मिला हो अथवा तो पुरूष को कोई रूपवती स्त्री मिली हो तो अंदर से जो जागृत आत्मा है विचार करती है पुण्य से ऐसा सुन्दर रूप हमें मिला है हमारा रूप इस तरह है तो परमात्मा का रूप कैसा होगा?
कहते है, अब तो मैचिंग की दौड़ादाड़ चल रही है ये रंग अच्छा लगता है इसके साथ ये कलर ही मैच होगा कई तरह की इन्द्रियों की फरमाईशे है। अपनी जीभ जैसी तैसी चीज पसंद नहीं करती है। चैत्र महीने में नीम का रस पीने से बीमार नहीं पड़ते है इसकी जान होते हुई भी जीभ इस कडुएं को नहीं स्वीकारती है। कहीं पर सुंदर संगीत चल रहा हो तो कान को सुनने का दिल करता है। कोई प्रेम से बुलाएं तो सुनने को अच्छा लगता है। कहते है घड़े में दोरी बांधकर खींचे तो घड़ा जिस तरह खींचकर अपनी ओर चला आता है इसी तरह रूप-रस-गंध एवं स्पर्श में इच्छा न होने के बावजूद इन्द्रियां खींची चली आती है।
उत्तराध्ययन सूत्र में बताया किसी भी चीज में फंस जाना बद्ध है चारों ओर से किसी भी चीज में नहीं फंसना अप्रतिबद्ध है। चीज कितनी भी अच्छी लगी हो जब उस चीज को छोडऩे का समय आता है एक क्षण का भी विलंब किए बगैर छोड़ देना वह नि:संग है। अप्रतिबद्धता से जीव नि:संग होता है।संसार में रहे है तो भोग करना पड़ता है, कार्य भी करने पड़ते है नि:संग भाव से करना है। नि:संग होने से जीव एकाग्रचित बनता है मंदिर गए। चैत्यवंदन कर रहे हो अचानक याद आया। तिजोरी की चाबी डाईनींग टेबल पर रह गई। स्त्री के हाथ में आएगी तिजोरी खोलकर पैसा उठा लेगी। ध्यान कुछ और गया एकाग्रता नहीं आती है एकाग्र बनने के लिए पहले नि:संग बनों। दिन और रात अप्रतिबद्धता से सत्य समझकर सभी को प्रेम दूंगा, सभी के साथ प्रेम से रहूंगा, सभी का प्रेम मिलाऊंगा बस, समय आए इन सभी का त्याग करके आत्मा से महात्मा बनकर, विचरण करते हुए परमात्मा बनूंगा।