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देश में आयुर्वेद की एक लंबी परंपरा रही है और उसका अपना महत्त्व है। इसे न केवल जनसामान्य के बीच एक विश्वसनीय जगह हासिल है, बल्कि सांस्थानिक तौर पर भी इसकी व्यापक स्वीकार्यता रही है। मगर इसका सहारा लेकर अगर स्वामी रामदेव एलोपैथ या आधुनिक चिकित्सा पद्धति को खारिज करने की कोशिश करते हैं तो इससे वे अपने ही उथलेपन को जाहिर करते हैं। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि बिना किसी ठोस आधार के जाहिर बयानों की वजह से उपजे विवाद को चिकित्सा की दो पद्धतियों के बीच टकराव के तौर पर पेश करने की कोशिश हो रही है। स्वामी रामदेव ने आधुनिक चिकित्सा पद्धति यानी एलोपैथी को लेकर जिस तरह के सवाल उठाए हैं, उस पर भारतीय चिकित्सा संगठन यानी आइएमए की ओर से जताई गई आपत्ति स्वाभाविक है। लेकिन अफसोसनाक यह है कि इस समूचे विवाद को आयुर्वेद बनाम एलोपैथ का रूप दिया जा रहा है, जबकि आइएमए की आपत्ति में आयुर्वेद के विरोध जैसा कुछ नहीं है।
मौजूदा दौर में दुनिया कोरोना महामारी के जिस रूप का सामना कर रही है, उसमें सबसे पहली चुनौती संक्रमण को काबू करने और इस संकट से पार पाने की है। इसमें सबसे अहम भूमिका एलोपैथी पद्धति ही निभा रही है और उससे जुड़े समूचे चिकित्सा जगत ने खुद को तमाम जोखिमों के बीच झोंक रखा है। इस बीच सैकड़ों डॉक्टरों की मौत सिर्फ इसलिए हो गई कि उन्होंने संक्रमित मरीजों को बचाने के लिए दिन-रात काम किया और इस बीच वे खुद भी संक्रमण की चपेट में आ गए। क्या यह हकीकत झुठलायी जा सकती है?
दरअसल, स्वामी रामदेव को शायद खुद ही अंदाजा नहीं है कि उन्होंने कोरोना या अन्य बीमारियों के इलाज को लेकर एलोपैथी की सीमित भूमिका से संबंधित जैसी बातें कही हैं, उसके पीछे कोई ठोस वैज्ञानिक आधार नहीं है। एलोपैथी चिकित्सा पद्धति ने सामान्य बीमारियों से लेकर जटिल रोगों के इलाज के जरिए और सबसे ज्यादा आपातकालीन अवस्था में मरीजों को जितने बड़े पैमाने पर बचाया है, उसकी अहमियत किसी भी व्यक्ति को आसानी से समझ में आ सकती है। जहां तक कोरोना का सवाल है तो इस महामारी का स्वरूप इतना जटिल है कि इसमें मुश्किलें पेश आ रही हैं।
फिर भी हर संभव उपाय अपना कर, अनेक प्रभावी दवाओं का इस्तेमाल करके मरीजों का इलाज करने और उन्हें बचाने की कोशिश हो रही हैं। ज्यादा संवेदनशील मामले कई बार संभाले नहीं जा पाते और मरीज की मौत हो जाती है। फिर भी यह जगजाहिर है कि देश और दुनिया भर में आधुनिक चिकित्सा पद्धति के जरिए ही इसे नियंत्रित करने का प्रयास सफल हो रहा है।

यह ध्यान रखने की जरूरत है कि चिकित्सा विज्ञान प्रयोग का विषय है और रोज इसमें नई खोजें सामने आ सकती हैं। ऐसे में महज कारोबारी हित के लिए बेवजह का विवाद खड़ा करना कितना उचित है? स्वामी रामदेव ने योग विद्या का सहारा लेकर अपनी जगह बनाई, लेकिन आज आयुर्वेदिक दवाओं से लेकर अन्य वस्तुओं के कारोबार में पतंजलि के जरिए उन्होंने एक बड़ा दायरा बना लिया है। इसके बावजूद सच यह है कि वे आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति का प्रतिनिधि चेहरा नहीं हो सकते।

देश में आयुर्वेद की एक लंबी परंपरा रही है और उसका अपना महत्त्व है। इसे न केवल जनसामान्य के बीच एक विश्वसनीय जगह हासिल है, बल्कि सांस्थानिक तौर पर भी इसकी व्यापक स्वीकार्यता रही है। मगर इसका सहारा लेकर अगर स्वामी रामदेव एलोपैथ या आधुनिक चिकित्सा पद्धति को खारिज करने की कोशिश करते हैं तो इससे वे अपने ही उथलेपन को जाहिर करते हैं।

यह बेवजह नहीं है कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री के पत्र के बाद उन्हें पीछे हटने की शर्मिंदगी उठानी पड़ी। उनके अगंभीर बयानों से उपजे विवाद से किसका कितना भला होगा, यह समझना मुश्किल नहीं है, लेकिन इस टकराव के विस्तार का एक बड़ा नुकसान यह हो सकता है आम लोगों के बीच एक भ्रम की स्थिति बनेगी कि वे किस पर और कैसे विश्वास करें। सवाल है कि क्या यह भावी तस्वीर किसी को भी स्वीकार होगी!