
डॉ. शुभ्रता मिश्रा
पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति अधिक से अधिक लोग जागरुक हों, इस उद्देश्य को लेकर ही सन् 1974 से प्रतिवर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। वैसे सोचा जाए तो पर्यावरण के प्रति सचेत होने की सीख पूरे विश्व को साल 2020 से कोरोना महामारी के प्रकोप से अच्छे से मिल गई है। पर्यावरण की महत्ता को समझाने के अति महत्वपूर्ण काम की शुरुआत 1972 में संयुक्त राष्ट्र के विश्व पर्यावरण सम्मेलन से हुई थी। उसके बाद से संयुक्त राष्ट्र द्वारा पर्यावरण संरक्षण, जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक आपदाओं, पारिस्थितिकी तंत्र प्रबंधन, पर्यावरण अभिशासन, रसायनों और अपशिष्टों के प्रबंधन, प्राकृतिक संसाधनों का दक्षता से दोहन आदि मुद्दों पर निरंतर पर्यावरण सम्मेलन आयोजित किए जाते रहे हैं।
इन सभी पर्यावरण सम्मेलनों और उनमें निर्धारित हुए समझौतों एवं पर्यावरण कानूनों ने विश्व के देशों को पर्यावरण संबंधी लक्ष्यों को निर्धारित करने के लिए संकल्पबद्ध किया है। यही कारण है कि आज लोगों को पता है कि दुनिया के विकसित और विकासशील देशों की उद्योग बिरादरी कार्बन मोनोऑक्साइड, मिथेन, हाइड्रोक्लोरो कार्बन आदि गैसों का उत्सर्जन एक निश्चित सीमा से अधिक नहीं कर सकती है।
इंटरनेट के इस युग में आम लोग भी प्रमुख रुप से कुछ पर्यावरण सम्मेलनों जैसे ओज़ोन परत के संरक्षण की वियना संधि 1985, क्लोरोफ्लोरोकार्बन सीएफसी जैसे पदार्थों के प्रयोग तथा उत्पादन में चरणबद्ध प्रतिबंध संबंधी मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल 1987, रियो सम्मेलन 1992, क्योटो प्रोटोकॉल समझौता 1997, पेरिस जलवायु समझौता 2016 आदि से भली-भांति परिचित हैं।
यहां विषय यह है कि आम लोग ज्ञान के तौर पर या कहें कि जानकारी के लिए इन वैश्विक पर्यावरण सम्मेलनों को जानते समझते आए थे, लेकिन व्यावहारिक तौर पर इनसे अपने आप को जोड़ पाने का बोध यदि उनमें किसी ने करवाया है, तो वह इस सदी की अब तक की सबसे बड़ी महामारी कोरोना ही है।लोग कोरोना महामारी के कारण अपने आसपास के वातावरण और स्वयं को साफ रखने के प्रति जागरुक हुए हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा 11 मार्च 2020 को घोषित वैश्विक महामारी कोरोना ने एक ओर दुनिया के अरबों लोगों को मृत्यु की नींद सुला दिया हो, बच्चों को अनाथ कर दिया हो, दुनिया की अर्थव्यवस्था चरमरा दी हो, लेकिन एक सकारात्मक पक्ष, जिसका प्रतिशत निश्चित ही बेहद नगण्य है, लेकिन उसे नजरअंदाज इसलिए भी नहीं किया जा सकता है, क्योंकि कहीं न कहीं इस कोरोनाजनित पर्यावरणीय स्वच्छता ने लोगों को जागरुक बनाया है।हम जानते हैं कि किसी वायरस या उससे उत्पन्न हुई महामारी का पर्यावरण और ऊर्जा क्षेत्र पर व्यष्टिगत रूप से सीधा प्रभाव नहीं पड़ता है। लेकिन, इनके कारण सामाजिक तौर पर कुछ ऐसी परिस्थितियां अवश्य बन जाती हैं जो अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण और ऊर्जा क्षेत्रों को प्रभावित कर सकती हैं। कोरोना महामारी को रोकने के लिए दुनिया के देशों ने अपने अपने तरीके से संपूर्ण लॉकडाउन जैसे कुछ सफल और रक्षात्मक उपाय अपनाए, जिनके प्रभाव पर्यावरण को स्वच्छ बनाने में दिखाई दिए हैं।
संपूर्ण लॉकडाउन के कारण लगभग डेढ़ साल से पूरी दुनिया में अंतरराष्ट्रीय यात्रा, मनोरंजन, खेल, आतिथ्य, पर्यटन, परिवहन, विनिर्माण और कई अन्य क्षेत्रों में गंभीर पाबंदियां लगी हुई हैं। लोगों का यहां वहां जाना लगभग पूरा बंद सा है और सब अपने घरों में परिवार के सदस्यों के साथ एकांतवास सा जीवन बिता रहे हैं। 2020 में एक समय आया था, जब दुनिया की सड़कें और रेल पटरियां लगभग वाहन विहीन सी हो गईं थीं। आकाश में वायुयान लुप्तप्राय हो गए थे। वैज्ञानिकों ने जब शोध किए, तो पता चला कि वायुमंडलीय प्रदूषण का स्तर बहुत सुधर गया है। उद्योग धंधों के लगभग बंद हो जाने का असर विश्व की काली हुई नदियों के थोड़े थोड़े उजले होने में दिखने लगा था। एक वाक्य में कहें तो शोधकर्ताओं को पर्यावरण में जल, स्थल और वायु प्रदूषणों पर कोविड-19 के प्रकोप के प्रभाव की जांच में मानवजनित अपशिष्टों की वृद्धि कम होती सी नजर आने लगी थी।व्यापक स्तर पर हुए शोधों के परिणाम बतलाते हैं कि औद्योगिक देशों में कई क्षेत्रों में ग्रीनहाउस गैसें, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड और कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन कम हुआ। हांलाकि ये आंकड़े खुश करने वाले नहीं कहे जा सकते हैं, क्योंकि कुछ शोध अध्ययनों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि दुनिया में परिवहन और औद्योगिक गतिविधियों की पाबंदियों से वायुप्रदूषकों के उत्सर्जन में आई कमी वायु प्रदूषण को रोकने के लिए पर्याप्त नहीं हैं।
इस तरह शोधकर्ताओं और आम लोगों का यह भ्रम भी दूर होने लगा है कि लॉकडाउन से पर्यावरण स्वच्छ हुआ है। एक कड़वा सच यह दिखाने लगा है कि कोरोना महामारी के व्यापक प्रकोप ने निश्चित रूप से पर्यावरण पर विनाशकारी प्रभाव डाला है। कोरोना महामारी के कारण अस्पतालों में प्रतिदिन उत्पन्न हो रहा चिकित्सा अपशिष्ट आम दिनों से लगभग दस गुना है। साथ ही दुनिया भर में उपयोग किए जा रहे पॉलीप्रोपाइलीन प्लास्टिक आधारित मेडिकल मास्क और दूसरी वस्तुएं एक नई पर्यावरणीय समस्या को उभार रही हैं।
केवल भारत की बात करें तो यहां की नदियों में गैरकानूनी तरीके से बहाए गए कोरोना ग्रस्त लोगों के अनगिनत शव पर्यावरण को किस हद तक प्रदूषित कर सकते हैं, यह बात आम व्यक्ति भी अच्छी तरह समझ रहा है। कोरोना के प्रकोप का एक अन्य महत्वपूर्ण प्रभाव अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में भी देखा जा रहा है। कोरोना प्रकोप के कारण परंपरागत और अक्षय दोनों तरह की ऊर्जा की मांग में भी भारी गिरावट आई है।पिछले वर्षों की तुलना में 2020 की शुरुआत से ही विश्व स्तर पर कोयले की खपत में कमी आई है। कोरोना महामारी का वैश्विक अक्षय ऊर्जा आपूर्ति श्रृंखला पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा है। दूसरे उद्योगों की तरह ही ऊर्जा क्षेत्र में भी कामगारों और श्रमिकों की कमी से पवन ऊर्जा और सौर ऊर्जा संयत्र उद्योग बंद किए जा रहे हैं।
साफ शब्दों में कहें तो कोरोना महामारी ने मानव और उसके पर्यावरण दोनों को नहीं छोड़ा है।