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अहमदाबाद। परम मंगलमय शास्त्रकारों के शब्दों जब हमारे श्रवण पथ में आते है तब उन शब्दों से हमारी आत्मा में परिणति आती है। आत्मा में परिणति आने के साथ ही परंपरा से हमें मोक्ष की प्राप्ति होती है। हमारी आत्मा मोक्ष में है ऐसा अनुभव हमें तभी होगा जब हमारे में रहे हुए रागद्वेष, समता के रूप में पलटेंगे। समता जिसमें आ गई वह आत्मा मोक्ष के सुख का आन्तरिक अनुभव करती है। उत्तराध्ययन सूत्र में विविध प्रश्न पूछे गए है उनके सुंदर जवाब हमें परमात्मा की ओर से मिले है। कहते है, जो पुण्यशाली इन शास्त्रओं का श्रवण करते है उनको अपने जीवन के नव सर्जनों का मार्ग मिलता है।
अहमदाबाद में बिराजित प्रखर प्रवचनकार, संत मनीषि, गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयश सूरीश्वरजी महाराज श्रोताजनों को संबोधित करते हुए सूरीश्वरजी महाराजा श्रोताजनों को संबोधित करते हुए फरमाते है।    कोई भी पदार्थ देखने से तुम्हारे में द्रव्यानुयोग न आया हो तो समझना आपको उस पदार्थ के प्रति रागानुयोग है द्वेषानुयोग है पदार्थ को पदार्थ के रूप में देखना वह द्रव्यानुयोग है। पदार्थ को देखते ही यह अच्छा है, यह खराब है ऐसा विचार आया वह रागानुयोग है द्वेषानुयोग है। इन्द्रियां ही अच्छे-पूरे का विभाग कराती है कोई भी चीज अच्छी लगी तो उसे मिलाने का प्रयत्न करती है ऐसी प्रक्रिया सामान्य मनुष्य करता है।
कहते है इन्द्रियों को वश में रखने ाले ऐसे महात्माओं का ध्यान यदि अच्छी चीज की ओर चला गया तो वे अपने मन को तुरंत ही खींच लेते है। उस चीज से रागद्वेष पैदा हो गया हो, उसे दूर करने की प्रक्रिया करते है। इस प्रकार की प्रक्रिया को दूर करने के लिए आबंटन जरूरी है।
कभी आवश्यकता अथवा संयोगों के मुताबिक किसी चीज का उपयोग अथवा तो भोग भी करना पड़े। कभी कभार ऐसे स्थान पर बैठे है धूप की अच्छी सुगंध आती है कभी ऐसे स्थान पर बैठने को हुआ इत्र की सुगंध आई। हमारी इन्द्रियां उसमें रहे हुए पुद्गलों से खुश होती है। और यही चाहती है कि उसे ऐसी ही सुगंध मिलती रहे। इन्द्रियों का काम ही ऐसा है कि उसे नये विषय मिल जाए तो वह उस पर टूट पड़ती है। नये विषय ्मिलने पर पूराने विषय पर पहले जो उत्सुकता आई थी ऐसा उत्साह अब नहीं आता है।
पूज्यश्री फरमाते है, सुखी संपन्न है सभी तरह की सुख सामगरी है ऐसा व्यक्ति भी सुख में होने के बावजूद भी आत्महत्या की शरण लेता है। क्योंकि उन्हें विषय सुख में आनंद नहीं आता है। जब पदार्थ सुख देने से असमर्थ बनता है तब इन्द्रियों का आकर्षण उसकी ओर कम हो जाती है। हम किसी को दौडऩे को कहते है पहली बार जब वह दौडऩे लगता है तो वह तेजी से दौड़ता है, कुछ देर के बाद उसकी स्पीड कम हो जाती है और वह कहता है कुछ देर के लिए बैठ जाता हूं अब मेरी आगे चलने की ताकात नहीं है। ऐसा ही इन्द्रियों के साथ होता है पहली बार जब नये पदार्थों को देखता है उसमें रस एवं आनंद आता है लेकिन पदार्थों का नित्य संपर्क होने से उसे उस पदार्थ से अप्रीति-कंटाला आता है।
उदाहरण के तौर पर पेड़े अच्छे लगे। दो तीन खाया अच्छे लगे। कुछ देर के बाद जीभ कहती है कुछ फरमाण तीखी तीखी सेव-चिवडा लाओ इसका कारण इन्द्रियों का हुकम आता है कुछ परिवर्तन चाहिए। संयत आत्माएं ऐसी घटना न बनें इसके लिए वे अपनी इन्द्रियों को काबू में रखते है। किसी भी चीज को देखते है मगर उसमें मोहित  नहीं होते। देखना वह ज्ञान है एवं मोहित बन जाना वह अज्ञान है। इन्द्रियों की इस प्रकार की प्रवृत्ति चलती रहती है। विनिवर्तना से आत्मा में क्या पैदा होता है? विनिवर्तना से लालसा तूटती है। लालसा जब पैदा होती तब पाप कर्म करना पड़ता है। परंतु विनिवर्तना से मन और इन्द्रियों को विषयों से अलग रखने की साधना से जीव पाप कर्म न करने के लिए उघत रहता है।लोग कहते है कुछ प्रकार के धंधे, पाप के धंधे है मगर पैसों के लिए, लोभ के कारण वे छोड़ नहीं सकतेहै। जो व्यक्ति अपनी जरूरीयात का संक्षेप करें उसे पाप कर्म करने नहीं पड़ते है पुणिया श्रावक जैसे कम आमदनी में अपना जीवन आनंद पूर्वक जीते थे। जो अंदर से सुखी है उसे बाहर के साधनों की जरूरत नहीं पड़ती है।
अच्छे अच्छे लोगों को कहते है आप इसमें पैसा जमा कराओंगे डबल भाव मिलेगा। किसी ने पूछा किस चीज में इनवर्टर कराना है? तो वे कहते है मच्छीमार का धंधा, नानवेज को इसमें पैसा एक्सपोर्ट करोंगे डबल भाव मिलेगा। समझदार व्यक्ति कहता है ये पाप का धंधा है मुझे इसमें इन्टरेस्ट नहीं है पैसा डबल नहीं होगा तो चलेगा परंतु मुझे ऐसे धंधों में पैसा इनवर्टर नहीं कराना है। साधु हो या श्रावक, वे भी ख्याल रखते है, विषयों में फंसने के पूर्व ही मन को इनवर्टर कर लेते है। पूर्व जो कर्म बांधे है उनकी निर्जरा से कर्मों को निवृत्त करना है और फिर संसार सागर से तिर जाना है।बस, मन को काबू में रखकर, इन्द्रियों को वश करके आत्मा को आराम देकर परम शांति एवं सुख को प्राप्त करो यही शुभाभिलाष।