Head Office

SAMVET SIKHAR BUILDING RAJBANDHA MAIDAN, RAIPUR 492001 - CHHATTISGARH

अहमदाबाद। जीव अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण कर रहा है। अब तक सिद्धगति को नहीं पा सका। इसके पीछे क्या कारण हो सकता है? शास्त्रकार महर्षि फरमाते हंै कि जीव राग-द्वेष एवं कषाय करता है, जिसकी वजह से उसे एक भव से दूसरे भव में भटकना पड़ रहा है। कषाय ही उसे मोक्ष में जाने से रोकती है। शास्त्र के मुताबिक कषाय चार प्रकार के बताए है क्रोध-मान-माया एवं लोभ। किसी भी व्यक्ति को जब निमित्त मिलता है तब क्रोध स्वभाविक आ ही जाता है इसी तरह जब व्यक्ति कुछ मिलाता है तब उसमें अहं आता है, मेरे जैसा तो इस दुनिया में कोई नहीं है अब बात आई माया की। व्यक्ति परिस्थिति के मुताबिक वह दूसरों को ठगता है, वह है माया तथा आवश्यकता न होने के बावजूद कहीं कुछ चीज देखी लेने का मन हुआ। इकट्ठा करके रखा वह लोभ कषाय है।
अहमदाबाद में बिराजित प्रखर प्रवचनकार, संत मनीषि, गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयश सूरीश्वरजी महाराजा श्रोताजनों को संबोधित करते हुए फरमाते है जागृत आत्माएं, महान संतों, विगेरे अपने जीवन में जब क्रोध के पल आते है तब वे इस वातावरण से दूर हो जाते है। कितना भी कोई क्रोध करके निमित्त दे महापुरूष क्रोध करते है वे हमेशा सुन्दर विचारों में रहने है।
कोई व्यक्ति अप्रिय करे तब व्यग्रता आती है। व्यग्रता इतनी ज्यादा बढ़ जाती है कि वह व्यक्ति अपना गुस्सा दूसरे पर निकालता है। तत्वज्ञान को जिन्होंने नहीं पाया ऐसे लोगों जब क्रोध के कारण निष्फलता पाते है वे लोग विष्फल बनने के कारण दूसरों पर दोषारोपण करके अपनी निष्फलता का दु:ख क्रोध के रूप में वह बाहर निकालते है। जो समझदार है वह व्यक्ति कभी अपना गुस्सा दूसरे पर नहीं निकालता है।
दुनिया के व्यवहार में कितने लोग ऐसे भी देखे है कि गुरस्सा करके सामने वाली व्यक्ति को छूप कर देते है। क्रोध करने वाला सचमुच अपने जीवन की बाजी हार जाता है। दशवैकालिक सूत्र में बताया, कोहो पीई बणासेई, माणो विनय नासणो क्रोध प्रीति का नाश करता है, तो मान विनय का नाश करता है बिना प्रीति के परिवार नहीं टिक सकता है इसी तरह बिना प्रीति के सरकार के साथ भी काम नहीं कर सकते है।
कहते है क्रोध जब आता है तब हम सबसे दूर हो जाते है यहां तक कि देव-गुरू एवं धर्म से भी हम दूर हो जाते है। पूज्यश्री फरमाते है क्रोध जब भी आए वातावरणको बदल दो। वातावरण बदल जाएगा तो ऑटोमेटिकली हम क्रोध पर विजय पा सकेंगे।
हर कोई मानव मान की अपेक्षा रखता है ने मान क्षणिक है। कभी कभार अपने से भी कोई व्यक्ति ज्यादा होशियार हो और उसे मान दिया, अपने को मान नहीं मिला तो उसका अफसोस रह जाता है। पूज्यश्री फरमाते है आपके हाथों आपने खूब दान दिया, किसी की सेवा की, सिद्धि मिलाई विगेरे अनेक सुकृत किए वे सब बराबर है परंतु इसके बदले बदलेकिसी से मान की अपेक्षा नहीं रखना।
कूड़-कपट-माया ये कषाय महाभयंकर है सब कषायों की कुछ न कुछ गति निश्चित है मगर माया कषाय की गति बहुत ही खराब है। किसी चीज का लोभ नहीं करना। अपने पास चीज नहीं है और इकट्ठा करना ठीक है मगर चीज होते हुए लालच के कारण हर किसी से लेते रहना और उसका संग्रह करना लोभ है।चार मुसाफिर जंगल में गए। मार्ग में उन्हें सॉप का बिल मिला। चारों मित्रों ने मन में कुछ विचार विमर्श करके उस बिल को तोड़ दिया। भाग्य से उस बिल में से पित्तल निकला। चारों मित्र उसे लेकर आगे निकले अचानक उनकी नजर में दूसरा बिल दिखा अब तो लालसा बढ़ गई। जरूर इस बिल में भी कुछ न कुछ होगा। ये सोनकर उन्होंने दूसरा बिल तोड़ तो उसमें से जस्ता धातु निकाल। चारो ने मिलकर बांट लिया और ने खुश होते हुए आगे निकले। कुछ ही दूर गए कि सामने बिल दिखाई दिया। चारों ने सोचा शायद इसमें भी कुछ होगा एक बार तोड़ लेते है। चारों में उस बिल को तोड़ तो उस बिल में से चांदी निकली अब तो चारों मित्र खुश होते हुए चांदी लेकर आगे निकले और फिर से उनका ध्यान बिल की ओर आया। उन चार में से एक संतोषी व्यक्ति था। उसने तीनों को समझाया अब रहने दो। अपने पास पित्तल-जस्ता एवं चांदी है फिर किस चीज की जरूरत है। तीनों ने उसकी बात नहीं मानी। वह संतोषी उन तीनों को छोड़कर आगे निकल गया। इस ओर उन तीनों ने मिलकर बिल तोड़ा के सोने कीजगह दृष्टि विष सॉप बाहर आया। उस सांप ने इन तीन लोभियों को टंक लगाकर मार दिया।
कहते है अति लोभ पाप का मूल है। पित्तल-जस्ता एवं चांदी कुछ काम नहीं आई और वे तीन मृत्यु की शरण में चले गए। लोभ किया नुकसान ही हुआ। उत्तराध्ययन सूत्र में प्रश्न पूछा गया भंते। कषाय से जीव क्या प्राप्त करता है? कषाय से जीव वीतरागीता प्राप्त करता है। वीतरागीता प्राप्त करने के बाद जीव सुख-दुख में समान रहता है। सुख की लालसा नहीं रहती, दु:ख से डकर भागता नहीं है ऐसी समान दशा को वीतरागीता दशा कहते है बस वीतरागीदशा को पाने हेतु कषाय पर काबू रखकर शीघ्र विजय बने यही शुभाभिलाप।