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रोहित
''जज 2 तरह के होते हैं- एक वे जो कानूनों को अच्छे से जानते हैं और एक वे जो कानून मंत्री को अच्छे से जानते हैं.ÓÓ उक्त कथन फरवरी 2012 में तब की विपक्ष में बैठी भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली द्वारा एक कौन्फ्रैंस में व्यक्त किया गया था. इस कथन के कई सटीक माने थे जो न्याय की बागडोर संभालने वाले जजों का उपहास उड़ा रहे थे, साथ ही, सीधा प्रहार न्यायिक व्यवस्था पर कर रहे थे जिसे लोकतंत्र का सब से मजबूत खंबा घोषित किया गया है. हालांकि, यह बात अलग है कि विपक्ष में रह कर अच्छेअच्छे निरंकुश सोच रखने वाले लोग भी लोकतांत्रिक और निष्पक्षता की दुहाई देने लगते हैं और सत्ता में आने के बाद अच्छेअच्छे लोकतांत्रिक लोग निरंकुश कदमों को दर्शा जाते हैं.उसी दौरान अरुण जेटली ने कहा था कि रिटायरमैंट के फौरन बाद जजों को किसी नए सरकारी पद पर नियुक्त करना न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए खतरनाक साबित हो सकता है. यह बात और है कि उन की इस सलाह को उन की ही सरकार में कोई तवज्जुह नहीं दी गई या शायद यह जुमला भी तभी तक ठीक रहा जब तक वे विपक्ष में रहे. बहरहाल, जेटली के कथन से वाजिब सवाल तो बनता ही है कि क्या सही में जजों के फैसले और समयसमय पर उठते उन पर विवाद न्याय व्यवस्था की नींव को कमजोर कर रहे हैं? और अगर ऐसा है, तो न्यायिक व्यवस्था पर विश्वास कैसे कायम हो पाएगा? अब आते हैं हालिया मामले पर, 3 अप्रैल को गुजरात हाईकोर्ट के 60 साल पूरे हुए,जिसे याद करते हुए एक वर्चुअल इवैंट का आयोजन किया गया था और जिस में प्रधानमंत्री मोदी, केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद, गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपानी व अन्य मंत्रीगण, सुप्रीम कोर्ट व गुजरात हाईकोर्ट के माननीय न्यायाधीश, सोलिसिटर जनरल व कई अधिवक्ता उपस्थित थे. यह आयोजन रखा तो इसलिए गया था कि गुजरात हाईकोर्ट के यादगार सफर, उस के चैलेंज और जिम्मेदारियों पर रोशनी डाली जाए लेकिन कुछ देर बाद वहां भी मुख्य लोग प्रधानमंत्री की गाथा गाते पाए गए. सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस एम आर शाह, जो गुजरात हाईकोर्ट को अपनी 'कर्मभूमिÓ मानते हैं का एक 'जजÓ होने के नाते यह भी मानना था, ''प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरभाई मोदी सब से अधिक लोकप्रिय, जीवंत और दूरदर्शी व्यक्तित्व हैं,ÓÓ अब शब्दों को नहीं, शब्दों की गहराइयों को सम झे जाने की जरूरत है.जाहिर है सीएए, नए कृषि कानून, लेबर कोड बिल, नोटबंदी इत्यादि को ले कर प्रधानमंत्री की दूरदर्शिता जस्टिस एम आर शाह जरूर भांप ही रहे होंगे. ध्यान हो तो अगस्त 2019 में जस्टिस एम आर शाह, तब पटना हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस थे, ने प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ में कसीदे पढ़े उन्हें 'मौडलÓ और 'हीरोÓ भी बताया था. उसी कार्यक्रम में गुजरात हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस विक्रम नाथ ने भी हाथ आया मौका फुजूल जाने नहीं दिया. उन्होंने एक कदम आगे बढ़ कह दिया कि प्रधानमंत्री की लोकप्रियता का राज उन के समर्पण, लोगों को प्रेरणा देना और निष्पक्षता पर है. उन का कहना था, ''प्रधानमंत्री की लोकप्रियता के पीछे अपने कर्तव्यों के प्रति उन की मूलभूत न्यायनिष्ठा की अहम भूमिका रही है. माननीय प्रधानमंत्री ने अपने राष्ट्र के प्रति कर्तव्यनिष्ठा निभाते हुए पूरे विश्व की सुरक्षा का संकल्प चरितार्थ किया है.यदि नेतृत्व इस प्रकार न्यायवान हो तो घर के सदस्यों को समान प्रतिभाव की शक्ति सदा मिलती रहती है,ÓÓ वहीं, उसी इवैंट में विक्रम नाथ ने गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपानी को गौरवपूर्ण नेतृत्व करने वाला मुख्यमंत्री बताया. कार्यक्रम में सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता, जिन्होंने मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले 2014 तक गुजरात हाईकोर्ट में प्रैक्टिस की, कहते हैं, ''प्रधानमंत्री के जीवंत नेतृत्व में हमारे देश ने पहले ही विश्वगुरु बनने की राह पकड़ ली है.ÓÓ ऐसा नहीं है कि जजों का इस प्रकार महिमामंडन कर विवाद में आना कोई नया मामला हो, इस से पहले पिछले साल फरवरी में सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस अरुण मिश्रा ने इंटरनैशनल जुडिशियल कौन्फ्रैंस 2020 में प्रधानमंत्री मोदी को बहुमुखी प्रतिभावान और वैश्विक स्तर पर दूरदर्शी बताया था.
जिसे ले कर बाद में सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन और बार एसोसिएशन औफ इंडिया ने जस्टिस अरुण मिश्रा की खूब आलोचना की. लेकिन सवाल यह है कि आखिर इन वाकयों का आज के समय में क्या अर्थ है? संदेह के घेरों में राजनीतिक हितों के फैसले और नियुक्तियां सत्ता में आने से पहले वर्ष 2012 में अरुण जेटली ने जजों पर कटाक्ष करते हुए भारतीय जनता पार्टी की लीगल कौन्फ्रैंस में कहा था, ''रिटायर होने से पहले के जजमैंट, रिटायरमैंट के बाद की जौब से प्रभावित होते हैं,ÓÓ साथ ही, उसी कार्यक्रम में नितिन गडकरी ने कहा था, ''मेरा सु झाव है कि सेवानिवृत्ति के बाद किसी अन्य जगह नियुक्ति से पहले 2 साल का अंतर होना चाहिए, अन्यथा सरकार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अदालतों को प्रभावित कर सकती है और देश में एक स्वतंत्र व निष्पक्ष न्यायपालिका का सपना कभी भी साकार नहीं होगा.ÓÓ अब जब भाजपा नेताओं के तीर कमान से निकले ही हैं तो मोदी एरा में इस उदाहरण के ऐसे विवादित जज भी सामने आए हैं जिन्होंने मौजूदा सरकार की कथनी और करनी में भारी अंतर पेश किया. जेटली और गडकरी की भाषा में कहें तो देश की स्वतंत्रता और निष्पक्षता के साथ भारी सम झौता किया, जिस की अगुआ खुद भाजपा सरकार बनी. जुलाई 2018 में जस्टिस ए के गोयल को सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में सेवानिवृत्त होने वाले दिन ही नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) का चेयरमैन नियुक्त किया गया. उसी साल इस से पहले मई के आखिरी हफ्ते में जस्टिस आर के अग्रवाल को नैशनल कंज्यूमर डिस्प्यूट रिड्रैसल कमीशन (एनसीडीआरसी) का उन के सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त होने के कुछ ही हफ्ते के अंदर चेयरमैन बनाया गया. सेवानिवृत्ति के कुछ ही दिनों बाद हुईं इन नियुक्तियों पर कुछ लोगों ने सवाल खड़े किए. सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद हुई नियुक्तियों से पता चलता है कि इन नियुक्तियों को ले कर फैसले संबंधित सरकारों ने पहले ही यानी जजों के कार्यकाल के दौरान ही ले लिए थे. अब जाहिर है इन नियुक्तियों से उन फैसलों पर सवाल उठते हैं जिन मामलों में संबंधित सरकार के दांव लगे हों.इस कड़ी को देखा जाए तो सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद हुई नियुक्तियों वाले जज रिटायरमैंट से पहले उन मामलों को देख रहे थे जिन का सीधा जुड़ाव सरकार या मुख्य न्यायाधीश से था. जहां जस्टिस ए के गोयल की अगुआई वाली बैंच रोजर मैथ्यू बनाम साउथ इंडियन बैंक लिमिटेड मामले में ट्रिब्यूनल के पुनर्गठन का मामला देख रही थी. वहीं जस्टिस आर के अग्रवाल ने उस बैंच का नेतृत्व किया था जिस ने सीबीआई के विशेष निदेशक के तौर पर आर के अस्थाना की केंद्र सरकार द्वारा नियुक्ति के फैसले पर सवाल उठाने वाली याचिका को खारिज किया था।
 इस के अलावा जस्टिस आर के अग्रवाल विशेष रूप से उस मामले के अध्यक्ष थे जो प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट पर लगे भ्रष्टाचार की जांच कर रही थी और उस बैंच का भी हिस्सा थे जिस ने जस्टिस चेलमेश्वर की बैंच के उस आदेश को रद्द कर दिया था जिस में मैडिकल कालेज रिश्वत मामले में विशेष जांच के आदेश दिए गए थे. इसी कड़ी में पूर्व सीजेआई पी सतशिवम की विवादित नियुक्ति को कैसे भूला जा सकता है.

पोस्ट रिटायरमैंट जौब के चलते ऐसे सवाल 2014 में उन के ऊपर तब खड़े हुए थे जब उन्हें 4 माह बाद ही मोदी सरकार द्वारा केरल का 21वां राज्यपाल बना दिया गया था. सतशिवम भारतीय सर्वोच्च न्यायलय के 40वें मुख्य न्यायाधीश थे. और यह पहली बार हुआ था जब मुख्य नयायाधीश को किसी राज्य का गवर्नर बनाया गया हो. दरअसल, पी सतशिवम पर यह आरोप लगा कि उन की यह नियुक्ति तुलसीराम प्रजापति मामले में भाजपा के जनरल सैक्रेटरी अमित शाह के खिलाफ दायर की गई एफआईआर को खारिज करने के चलते की गई. इस मामले की अलग से जांच की मांग सीबीआई कर रही थी. हालांकि, उन्होंने यह बात खारिज की. राज्यपाल के रूप में पी सतशिवम को तब शर्मिंदगी का सामना करना पड़ गया जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए लाए गए सरकारी अध्यादेश पर उन्हें हस्ताक्षर करना था. ऐसा नहीं है कि विवाद सिर्फ जजों के रिटायरमैंट के बाद ही देखे गए, बल्कि जजों की नियुक्तियां भी सनसनीखेज विवादों में घिरी हैं. सुप्रीम कोर्ट के कौलेजियम ने वर्ष 2018 में इलाहाबाद हाईकार्ट के लिए जिन जजों की सिफारिश की थी उन में से कई विवादस्पद ऐसे नाम भी थे जिन की सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीशों से करीबी रिश्तेदारी थी.

कौलेजियम और सरकार के बीच नियुक्ति को ले कर तकरार 2014-15 में शायद रही ही इसी बात पर हो कि इस तरह का एडवांटेज सिर्फ न्यायाधीशों को ही क्यों मिले. नियुक्तियों में अनदेखी केंद्र द्वारा अपने अनुसार जजों की पोस्ट रिटायरमैंट जौब का विवाद तो उठता ही रहा है, साथ ही, सरकार द्वारा जजों की नियुक्ति में अनदेखी करने का विवाद शुरू से ही गरमाया हुआ है. इन में जस्टिस जोसेफ और मशहूर वकील गोपाल सुब्रमण्यम के नाम सुर्खियां बटोर चुके हैं. दिलचस्प यह है कि गोपाल सुब्रमण्यम का नाम चर्चा में था फिर बाद में यू यू ललित को सुप्रीम कोर्ट का जज नियुक्त किया गया जो कि सोहराबुद्दीन मामले में अमित शाह के वकील रहे थे. इसी प्रकार सुप्रीम कोर्ट के कौलेजियम ने सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए हाईकोर्ट के 4 जजों के नामों की सिफरिश भेजी. यह सिफारिश रंजन गोगोई के तहत 5 मुख्य जजों द्वारा भेजी गई थी. ध्यान देने वाली बात, उन के औफिस से जुडऩे के लगभग एक महीने बाद की ही यह बात है. वर्ष 2018 अक्तूबरनवंबर में 2 नाम बड़े विवादास्पद रहे. एक एम आर शाह जिन की बात हम पहले भी मुक्कमल कर चुके हैं.

2016 के किस्से में तो यह बात मुखर तरह से आई जब तत्कालीन सीजेआई टी एस ठाकुर को वरिष्ठ अधिवक्ता यतिन ओझा ने आरोप लगाते हुए खत लिखा, ''पीएम मोदी और अमित शाह से उन की निकटता के चलते एम आर शाह का तबादला नहीं किया जा रहा है,ÓÓ वहीं जस्टिस गुप्ता पहले प्रवर्तन निदेशालय की जांच से जुड़े थे. यह एजेंसी उन की पत्नी अलका गुप्ता के खिलाफ मनी लौडिं्रग के आरोपों की जांच कर रही थी. उस समय के ईडी सहायक निदेशक गोपेश बयाडवाल ने इस बात को रेखांकित करते हुए एक विस्तृत नोट भेजा, ''जस्टिस गुप्ता और उन की पत्नी को शैल संस्थाओं के ढांचे के माध्यम से मनी लौंडिं्रग की प्रक्रिया में सहयोगी और लाभार्थी के रूप में पहचाना गया है,ÓÓ ध्यान देने वाली बात यह है कि केंद्र ने मात्र 48 घंटों में ही कौलेजियम की इन सिफारिशों पर अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस चेलमेश्वर ने भी 2018 में केंद्र सरकार पर खुल कर यह आरोप लगाया कि वह जजों की नियुक्ति में मनमानी कर रही है. चीफ जस्टिस और अन्य 22 जजों को 5 पन्नों का एक लंबा पत्र लिखते हुए उन्होंने कहा, ''केंद्र सरकार कौलेजियम के सु झावों को बेहद चुनिंदा और मनमाने तरीके से स्वीकार रही है. सु झाए गए जिन नामों से सरकार सहज नहीं है,

उन की नियुक्ति या तो रद्द की जा रही है या उसे लंबित छोड़ा जा रहा है. यह न्यायिक स्वतंत्रता के लिए बेहद घातक है.ÓÓ रंजन गोगोई का अध्याय निराला मार्च 2018 में गोगोई की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की एक बैंच ने कहा था, ''यह एक वैध दृष्टिकोण है कि न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति के बाद की नियुक्ति न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर एक धब्बा है,ÓÓ जाहिर है यह 'धब्बाÓ जस्टिस गोगोई को दूसरों के मामले में ही लगता रहा क्योंकि अपने कथनों को पलटते हुए गोगोई नवंबर 2019 में अपना कार्यकाल खत्म होने के मात्र 4 महीने के अंदर ही मार्च 2020 में मनोनीत सांसद बन संसद पहुंच गए. इस फैसले के बाद उन की चहुं दिशाओं से आलोचना हुई थी. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश कुरियन जोसेफ ने गोगोई को ले कर कहा कि उन्होंने न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर महान सिद्धांतों से सम झौता किया है. कइयों ने आरोप लगाया कि यह मोदी सरकार का दिया हुआ वह तोहफा है जो उन्होंने अपने फैसलों से सरकार के राजनीतिक हितों को साधा था.

अब कहने वाले तो कहेंगे ही और चटकारे लेने वाले तो चटकारे लेंगे ही जब कथनी और करनी में अंतर आया हो तो. मसला इसी चीज का ही तो है. हालांकि यह बात भारत की भोलीभाली जनता के लिए अधिकतम माने नहीं रखती क्योंकि लंबे समय से वह यही सब तो देखती आई है और कोर्टकचहरी के चक्करों से दूरी ही बनाए रखती है. मास्टर औफ रोस्टर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक बार कहा था, ''जनता का विश्वास ही न्यायपालिका की सब से बड़ी पूंजी है,ÓÓ लेकिन उक्त घटनाओं का सब से अधिक नुकसान जिसे उठाना पड़ा वह भारतीय लोकतंत्र और भारतीय न्याय व्यवस्था रही है जिस पर आम जनता का भरोसा लगतार घटता जा रहा है. यह समस्या कहीं न कहीं मौजूदा समय में अधिकाधिक देखने में आ रही है. रंजन गोगोई के कार्यकाल को मोदी युग के लिए सब से उपयोगी समय गिना जाता है. यह देखा भी गया कि सर्वोच्च न्यायालय में रंजन गोगोई के कार्यकाल में ऐसे फैसलों की सुनवाई हुई जिन्हें मोदी सरकार के पक्ष में अहम निर्णय के तौर पर देखा गया है और जिस ने लोगों की नजरों में न्यायालय के प्रति भारी संशय की स्थिति पैदा की.

इन फैसलों में अयोध्या का जजमैंट सब से ऊपर रखा जाता है. नवंबर 2019 में सीजेआई गोगोई की अगुआई वाली पीठ ने अयोध्या में एक भूखंड के स्वामित्व पर दशकों पुराने विवाद को समाप्त किया जिसे हिंदू कथित भगवान राम के जन्मस्थान के रूप में दावा करते थे और मुसलिम इसे अपने इबादत स्थल के रूप में देखते थे. चूंकि इस आए फैसले के बाद इतने सालों से न्याय खोजती आंखें भी पस्त हो चुकी थीं और इस अध्याय को किसी भी तरह खत्म होना ही न्याय की परिभाषा लगने लगा था, इसलिए यह कराह रहे लोगों को भी अंतिम चोट ही लगा जिसे सहना ही सब की भलाई में था. लेकिन इस जजमैंट के बाद कहीं न कहीं कुछ तरह के मनोभाव जरूर न्याय व्यवस्था को ले कर खड़े हुए. इसी प्रकार उसी महीने विवादित राफेल घोटाले के मामले में रंजन गोगोई की अध्यक्षता में बैंच ने नरेंद्र मोदी सरकार को क्लीन चिट दी. साथ ही, इस न्यायिक पीठ ने राफेल मामले के संबंध में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधने वाली टिप्पणी 'चौकीदार चोर हैÓ के लिए राहुल गांधी के खिलाफ आपराधिक अवमानना की कार्रवाई शुरू की थी. जानकारों द्वारा यह भी कहा जाता है कि एनआरसी जैसे विवादित कानून को बीजखाद डालने में रंजन गोगोई की भूमिका रही है.

गोगोई उस बैंच का हिस्सा रहे जिस ने दिसंबर 2014 से अगस्त 2019 तक असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के कार्यान्वयन का निर्देशन और निरीक्षण किया. गौरतलब है कि असम में इस के लागू होते ही 19.06 लाख लोग एनआरसी लिस्ट से बाहर हुए, जिस में से अधिकतर संख्या बंगाली हिंदुओं की थी. यहां यह नहीं कहा जा रहा कि इन प्रक्रियाओं के लिए फैसले गलत या फिर पक्षपातपूर्ण हैं. यहां इन तथ्यों के आधार पर सिर्फ यह कहने की कोशिश की जा रही है कि सेवानिवृत्ति के तत्काल बाद होने वाली जजों की नियुक्तियां और किसी खास पार्टी अथवा नेता से निकटता के चलते उन के दिए फैसलों पर संदेह की गुंजाइश की संभावना बढ़ जाती है, भले ही वे फैसले सही भी क्यों न हों. सवाल यह भी बनता है कि हमेशा सम्माननीय पोस्ट रिटायरमैंट के बाद उन्हें ही क्यों मिलती है या नियुक्ति उन्हीं की जल्दी क्यों हो जाती है जिन की सरकार के फैसलों के साथ अच्छी दाल गलती रही हो?

इसलिए बारबार यह कहासुना भी जाता है कि इंसाफ न केवल होना चाहिए बल्कि ऐसा दिखना भी चाहिए कि इंसाफ हुआ है. साल दर साल विवाद, न्याय व्यवस्था पर चोट हांलाकि राज्यसभा के सांसद रंजन गोगोई कोई अपवाद नहीं हैं. मोदी कार्यकाल में इस बीच कई फैसले व टिप्पणियां आई हैं जिन से आमजन में न्याय व्यवस्था को ले कर अविश्वास बढ़ा है फिर चाहे वह जज लोया केस हो, भीमा कोरेगांव का मसला हो, कश्मीर मामला हो, सीबीआई-अलोक वर्मा केस हो, नोटबंदी और चुनावी बौंड को चुनौती में देरी से सुनवाई का मसला हो सभी में यह देखने में आया है कि न्यायालय के भीतर राजनीतिक हस्तक्षेप काफी बढ़ गया है. हालिया समय में देखा जाए तो मोदी के दूसरे कार्यकाल के बाद से ही आमजन के भीतर भी न्याय व्यवस्था को ले कर काफी असहमतियां उजागर हुई हैं. इसे 2019 के प्रकरण में सीएए-एनआरसी, 2020 में लौकडाउन में माइग्रेंट मजदूरों की सुनवाई और कृषि कानूनों के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका से सम झा जा सकता है जहां सर्वोच्च न्यायालय को भारी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है. यहां तक कि,

कृषि कानूनों में अंतरिम रोक लगाने के बावजूद न्यायालय से असहमति जताते हुए किसानों का आंदोलन चलता रहा है. पिछले वर्ष देश के सामने ऐसा विवाद भी सामने आया जिस ने कई लोगों को सकते में डाल दिया. सुप्रीम कोर्ट के कामकाज पर अकसर तीखी टिप्पणी करने वाले सीनियर वकील प्रशांत भूषण को कोर्ट ने पिछले साल अगस्त में अवमानना का दोषी करार दिया. दरअसल, 27 जून को प्रशांत भूषण ने सीजेआई एस ए बोबडे, और 4 पूर्व सीजेआई की आलोचना करते हुए 2 अलगअलग ट्वीट किए थे. प्रशांत भूषण ने अपने पहले ट्वीट में लिखा था कि जब भावी इतिहासकार देखेंगे कि कैसे पिछले 6 वर्षों में बिना किसी औपचारिक इमरजैंसी के भारत में लोकतंत्र को खत्म किया जा चुका है, तो वे इस विनाश में सुप्रीम कोर्ट की भागीदारी पर सवाल उठाएंगे और मुख्य न्यायाधीश की भूमिका को ले कर सवाल पूछेंगे. 28 जून को चीफ जस्टिस एस ए बोबडे की एक तसवीर सामने आई थी. भूषण ने तसवीर को ट्वीट किया था और सीजेआई बोबड़े की आलोचना की थी. तसवीर में वे एक महंगी बाइक पर बैठे नजर आ रहे थे.

बाइक के शौकीन जस्टिस बोबड़े अपने गृहनगर नागपुर में एक सार्वजनिक कार्यक्रम के दौरान वहां खड़ी एक महंगी बाइक पर बहुत थोड़े समय के लिए बैठे थे. हांलाकि, यह एक संयोग था कि जिस बाइक पर वे बैठे थे वह भाजपा नेता के बेटे की निकली. यह भी देखने में आ रहा है कि न्यायालय की ऊलजलूल टिप्पणियां अलगअलग विवाद खड़े कर रही हैं जिस से न्यायालय की साख पर बुरा असर पड़ रहा है. हाल ही में जनवरी में बौंबे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ की जस्टिस पुष्पा गनेड़ीवाल ने 19 जनवरी को पारित एक आदेश में कहा कि यौन हमले का कृत्य माने जाने के लिए 'यौन मंशा से त्वचा से त्वचा का संपर्क होनाÓ जरूरी है. अब इस पर हल्ला मचना जरूरी था. किसी नाबालिग के ब्रैस्ट को बिना 'स्किन टू स्किनÓ कौंटैक्ट के छूने पर पोस्को के तहत अपराध न मानने के हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है. सुप्रीम कोर्ट ने बौंबे हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी है.

इस विवाद का असर थोड़ा थम पाया था कि सुप्रीम कोर्ट ने इस साल 1 मार्च को एक सुनवाई को दौरान आश्चर्यजनक टिप्पणी करते हुए नाबालिग से रेप के एक आरोपी से पूछा कि क्या वह पीडि़ता से शादी करने को तैयार है? सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एस ए बोबडे ने रेप अभियुक्त से कहा, ''यदि तुम शादी करोगे तो हम तुम्हारी मदद कर सकते हैं. यदि तुम ऐसा नहीं करते हो तो तुम्हारी नौकरी चली जाएगी और तुम जेल जाओगे,ÓÓ इस टिप्पणी के बाद सुप्रीम कोर्ट की काफी किरकिरी हुई और जनता के बीच सर्वोच्च न्यायालय को ले कर गंभीरता में कमी आई. जाहिर है इस समय सरकार और मीडिया अपनी विश्वसनीयता पूरी तरह से खो चुके हैं. ऐसे समय में न्याय व्यवस्था का यों विवाद दर विवाद उल झे रहना न्याय व्यवस्था और लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध हो सकता है. लोकतंत्र का गिरता ग्राफ पिछले कुछ समय से लोकतंत्र के गिरते ग्राफ में भारत एक मुख्य उदाहरण बन कर उभर रहा है.

अभी कुछ ही रोज बीते होंगे जब वल्र्ड फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी. इस रिपोर्ट की संवेदनशीलता न सिर्फ मोदी के औथेरिटेरियन सरकार चलाए जाने के रवैए से थी बल्कि भारत का सब से मजबूत स्तंभ कहे जाने वाले न्यायालय की कार्यवाहियों को भी संदेहों में धकेले जाने से थी. रिपोर्ट में कहा गया, 'मोदी कार्यकाल में भारत की ज्युडिशियल स्वतंत्रता भी प्रभावित हुई है.Ó इस प्रकार की रिपोर्ट अपनेआप में भारत की न्याय व्यवस्था और लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है. फिलहाल देश में तथाकथित प्रतिनिधिक जनतंत्र है जहां देश के वयस्क नागरिक अपने प्रतिनिधि चुनते हैं और चुने प्रतिनिधियों को जनता वह तमाम जिम्मेदारियां और अधिकार सौंप देती है जिस से वे राज्य व्यवस्था चला सकें. लेकिन जिम्मेदारियां और अधिकार बहुत बार सत्ता को तानाशाही तक भी ले कर जा सकते हैं, इसलिए इन प्रतिनिधियों को निरंकुश और तानाशाह होने के खतरे से बचाने के लिए संविधान को सर्वोच्च स्थान दिया गया और देश में केंद्रीय सरकार और इकाइयों की सरकारों में शक्तियों का विभाजन कर संघीय ढांचा खड़ा किया गया, साथ ही, अगर संविधान में किसी भी प्रकार के आमूल परिवर्तन करने हों तो उस के लिए दोनों सदनों में उचित बहुमत की जरूरत का प्रावधान लाया गया.

इन सब की निगरानी के तौर पर स्वतंत्र न्यायिक व्यवस्था (सुप्रीम कोर्ट) को मुख्य जिम्मेदारी सौंपी गई जो संघीय ढांचे को संविधान के दायरों में बांध कर रख पाए और केंद्र को निरंकुश होने से रोक पाए. लेकिन समस्या यह है कि इन दिनों खुद सुप्रीम कोर्ट का स्वतंत्र चरित्र शक के घेरे में है. जिसे संविधान की रक्षा का फर्ज निभाना है वह खुद अपनी रक्षा करने के लिए जू झ रहा है. आज भारत का संबंध उन देशों से जोड़ा जा रहा है जहां दक्षिणपंथी सरकारों को वहां की मेजोरिटेरियन जनता ने चुना है ताकि उन्हें किसी संवैधानिक सीमाओं में बंधने की जरूरत न पड़े और यह अधिकार लोकतंत्र के बाकी स्तंभों को जर्जर कर सके. 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद तमाम तरीके से ये बातें सामने आईं कि किस प्रकार मौजूदा सरकार लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमलावर रही है.

लेकिन देश के लिए अधिक निराशा का विषय यह रहा कि विभिन्न संस्थाओं पर किए गए इन हमलों से सुरक्षा देने में न्याय व्यवस्था विफल रही. बल्कि, यह कहा जा सकता है कि आपातकाल के बाद से आज फिर उच्चतम न्यायालय अपने सब से कठिन समय से गुजर रहा है और यह सिर्फ इसलिए कि सुप्रीम कोर्ट में आज फिर से जजों का ढुलमुल व कमजोर व्यक्तित्व इंदिरा काल से भी अधिक खराब स्थिति में पहुंच चुका है जहां सरकारी फरमान पर जजों की नियुक्ति की गई, ट्रांसफर किया गया और सरकार के दबाव में रहना पड़ा.