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डॉ. दिनेश चंद्र सिंह 
राजा-प्रजा के बीच कितना मधुर व भरोसे का सम्बन्ध होना चाहिए और इससे क्या-क्या लाभ हुए हैं, इस बात के दृष्टांत भारतीय इतिहास में अनेक हैं। इसके विपरीत, जब शासक-शासित के बीच जनसेवा की बजाए जनशोषन-उत्पीडऩ की प्रवृति हावी हो जाती है तो इसके कितने बड़े व भयावह दुष्परिणाम हुए हैं, इस बात के उदाहरण भी हमारे इतिहास में भरे पड़े हैं। यह दोनों स्थितियां हमारे तल्ख वर्तमान के लिए कुछ सीख हैं तो कुछ सबक भी।
चाहे पुरातन राजतंत्र हो या फिर आधुनातन लोकतंत्र, यथा राजा तथा प्रजा की कहावत को दोनों चरितार्थ करते आये हैं। राजतंत्र में शक्ति बल और लोकतंत्र में संख्या बल, शासन की प्रवृत्ति पर चाहे जितनी भी हावी रही हो और इसे संतुलित करते रहने के चाहे जितने भी यत्न किये गए हों। लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जब जब जनता को सुख, शांति, सुरक्षा की गारंटी मिली, वह हर विपरीत परिस्थितियों में भी अपने राजाओं या शासकों के साथ खड़ी दिखी। लेकिन जब जब जनता में असुरक्षा और अभाव की भावना घर कर गई, तो उसने अपने निरंकुश शासकों को भी नहीं बख्शा। भारतीय लोक गाथाएं भी इन बातों से भरी पड़ी हैं।
ऐसी परिस्थिति में महान सम्राट पृथ्वीराज चौहान और महाप्रतापी राजा महाराणा प्रताप किसी भी राजव्यवस्था के लिए आदर्श समझे जाते हैं। अब यह हमारे ऊपर निर्भर है कि हम उन्हें जातीय, साम्प्रदायिक या क्षेत्रीय घरौंदे में समेटे रखने की निरर्थक कोशिश करते हैं, या फिर उनके राष्ट्रीय व सनातन जनसरोकारों से देश-प्रदेश को अवगत करवाकर उन्हें युग युग तक जनप्रिय और प्रतिष्ठित बनाये रखते हैं। ताकि हमारी भावी पीढ़ी उनसे प्रेरणा ले और जनउत्पीडन अथवा गुलामी की किसी भी आसन्न परिस्थितियों का जमकर प्रतिकार करे।
लोक महाकाव्य रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं कि "मुनि तापस जिन्ह ते दुखु लहहीं, ते नरेश बिनु पावक दहहीं।। मंगल मूल विप्र परितोषु। दहई कोटि कुल भूसुर शेषु।।" उनकी यह अवधारणा हर युग में राजा प्रजा सम्बन्धों पर सटीक बैठती है। वाकई, इतिहास के पन्ने को अंतिम समय की प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच भी अपने अनुकूल बनाकर हमारे गौरव की रक्षा करने वाले देश व समाज सजग प्रहरी सम्राट पृथ्वीराज चौहान हर भारतीय के लिए शूरवीरता के प्रेरणा स्त्रोत समझे जाते हैं।
उनके बारे में कहा जाता है कि वो शब्दभेदी बाण चलाने की कला में दक्ष थे। जब उन्हें उनके विजेता दुश्मन की सभा में दंडित करने के लिए उपस्थित किया गया था तो वहां मौजूद उनके मित्र व शुभचिंतक कवि चंद ब्रह्मभट्ट बरदाई (पृथ्वीराज रासो पुस्तक के रचयिता) ने सिर्फ इतना संकेत दिया कि "चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण। ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको चौहान।।" बस, इतना सुनते ही उन्होंने अपना धनुष-बाण चला दिया और उनका दुश्मन आक्रांता महमूद गोरी उसी सभा में ढेर हो गया और हाहाकार मच गया।
ऐसा इसलिए सम्भव हुआ, क्योंकि वो न केवल शब्दभेदी बाण की कला के जानकार थे, बल्कि सनातन संस्कृति के रक्षक के रूप में वीर शिरोमणि सम्राट पृथ्वीराज चौहान के नाम से पुकारे जाते थे। कहने का तातपर्य यह कि इस समय शब्दभेदी बाण की कला भले ही नहीं है, परंतु कलमभेदी ताकत की क्षमता लोकतंत्र में जनता द्वारा चुनी हुई हरेक सरकार के मुखिया को प्राप्त है। लिहाजा, वर्तमान युग में हम सभी अपनी ताकत को एकजुट करने के लिए, लोकतांत्रिक तरीके से ही सही, पर अपनी प्रतिष्ठा एवं शक्ति को संगठित कर महान सम्राट पृथ्वीराज चौहान की उत्कृष्ट वैभवशाली एवं अतीत की गौरवमयी परंपरा की रक्षा कर सकते हैं।
इसलिए आज हमें यह संकल्प लेना होगा कि हम संगठित होकर अपने साथ साथ उनकी भी सहायता करें, जो निश्चित रूप से आज की लोकतांत्रिक व्यवस्था में हमारे साथ आकर, हमारे समाज के लोगों को चुनें एवं हमारे चुने हुए समाजसेवी पुरुष निष्ठापूर्वक सबकी शक्ति को बढ़ाकर महाराजा पृथ्वीराज चौहान एवं महाप्रतापी महाराणा प्रताप जैसे वीर योद्धाओं की याद मनसा, वाचा, कर्मणा दिलाएं।
कहना न होगा कि वंश या जन्म के आधार पर जितने भी प्रतापी योद्धा हुए, वह अपनी जातीय श्रेष्ठता पर अतीत की गौरवमयी परंपरा को अक्षुण्ण नहीं रख पाए। अपितु उसी वंश, परिवार अथवा जाति के राजाओं-महाराजाओं ने उनकी लंका लगा दी। ऐसे में प्रतापी, राष्ट्रभक्त, शौर्य, बलिदान एवं त्याग की प्रतिमूर्ति, जननायक और अतीत, वर्तमान एवं भविष्य के आदर्श पुरुष सम्राट पृथ्वीराज चौहान और महाराजा महाराणा प्रताप को भी उनके परिवार, उनके वंश के अन्य प्रतापी राजाओं ने उनके खिलाफ विदेशी आक्रांताओं का साथ देकर इनके गौरव को छीन करने की भरसक कोशिश की।
लेकिन तत्कालीन राजवंश में जनता की अगाध श्रद्धा ने अपने प्रतापी राजाओं की हर तरह से मदद करके उनकी रक्षा की। क्योंकि वे लोग अपने राजाओं के त्याग, बलिदान एवं भेदभाव रहित जनसेवा की भावना से प्रभावित थे। ऐसे लोगों में तत्कालीन जनजाति यानी वनों एवं जंगलों में रहने वाली तथाकथित छोटी जाति, जिसे मैं उन्हें छोटी जाति का नहीं मानता हूं, ने अपने शौर्य, पराक्रम, त्याग तथा अपने राष्ट्र की सेवा के प्रति निहित जनभागीदारी की अगाध भावना ने उनके राजाओं की बाहरी आक्रमण से रक्षा की।
दरअसल, ऐसी जनजाति के लोग संगठित और गुरिल्ला युद्ध के माध्यम से, अपने परंपरागत शस्त्रों की धारदार व लड़ाकू युद्ध शैली में प्रयोग होने वाले विभिन्न प्रकार के परंपरागत हथियारों, जिनमें तीर-धनुष, कुल्हाड़ी, भाले, तलब, बल्दी, गुलेल मुद्गगढ़, सोठा, लाठी, डंडा, जाल, पत्थर, बारूद के गोले, कांच के टुकड़े से बने बम, सुतली बम आदि से अपने चहेते राजाओं-महाराजाओं की रक्षा करने, करते रहने में सफलता प्राप्त की। क्योंकि इनके अनेक ऐसे अस्त्र-शस्त्र हुए, जिनको भलीभांति चलाना एवं इनके वार के प्रहार को रोकना केवल वही जानते थे। इसलिए वो अपने राजा के सैन्य हितों की हिफाजत के लिए मक्कारी या इलकपट से दुश्मनों की सेना में गुप्त रूप से अथवा साजिश से शामिल हो जाते थे।

ऐसे लोग अपनी स्वाभाविक स्वतंत्रता के दृष्टिगत अपनी भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप, बिना राजतंत्रीय हस्तक्षेप की भावना के इनके हित साधक, सुरक्षित व संरक्षित रखने वाले अपने राजाओं का आपातकालीन परिस्थितियों में खुलकर तन-मन-धन व मनसा वाचा कर्मणा साथ देते थे। ऐसा करके ये अपनी निजी स्वतंत्रता व अपने भौगोलिक राष्ट्रीयता की सीमाओं के प्रतीक राजघरानों की रक्षा के प्रति सदैव सजग रहते थे। ऐसे ही लोगों ने शौर्य, बलिदान एवं त्याग की प्रतिमूर्ति सम्राट पृथ्वीराज चौहान एवं महाराणा प्रताप को अपना पूर्ण सहयोग दिया था, जिसके कारण वह इतिहास में अजर-अमर हैं।

कहना न होगा कि आगे आने वाली पीढिय़ां उनकी इसी कार्यशैली यानी जनता के प्रति बिना भेदभाव यानी धर्म, जाति, क्षेत्र या वंश के आधार पर कोई दुराव नहीं करने की भावना ने उन्हें जनप्रिय बनाया। वे लोग अपने क्षेत्र या राज्य की सेवा के प्रति एकनिष्ठा रखते थे और जनहित चाहने के कारण ही आपदा या विषम परिस्थितियों में अपनी भोली भाली परंतु स्वाभिमानी जनता का सहयोग पाने में हमेशा सफल रहते थे। इस नजरिए से हमारे दोनों युगपुरुष महाराजा पृथ्वीराज चौहान एवं महाराणा प्रताप अपनी संपूर्ण राष्ट्रीयता भाव के चलते अपना प्राण देने वाले करोड़ों भारतीय जनता के हृदय के सम्राट हैं।

इसलिए दोनों युगपुरुष महान सम्राट, राष्ट्रप्रेमी, त्याग व बलिदान की प्रतिमूर्ति सम्राट पृथ्वीराज चौहान एवं महाराजा महाराणा प्रताप की विनम्रता एवं सहृदयता से नमन करते हुए उनकी चरण वंदना करता हूँ व उनके श्री चरणों से आशीर्वाद चाहता हूं। क्योंकि आपके दर्शन की कुछ धूल मेरे व्यक्तित्व में भी समाहित हो जाए और मुझे मेरी माटी कर्मभूमि एवं राष्ट्रभूमि के प्रति निष्ठा एवं कर्मठता से कार्य करने की अभेद्य शक्ति एवं ऊर्जा का संचार मेरे मन मस्तिष्क में हो जाए, ताकि उसी भाव से जनहित साधा जा सके।

वहीं, एक विनम्र अपील-अनुरोध उन क्षत्रिय बंधुओं से है कि राष्ट्र की इन अमूल्य धरोहर को अपनी कुल, वंश, परंपरा के साथ जोडऩे के इतर इनके राष्ट्रीय स्वरूप को पूर्ण निष्ठा एवं सामाजिकता से प्रचारित एवं प्रसारित करें। जिससे राष्ट्र की महान विभूति आने वाले कालखंड में भी उसी आदर एवं श्रद्धा भाव से जनमानस में अपना स्थान बनाए, जिस प्रकार हजारों वर्षों की काल खंड की अवधि व्यतीत हो जाने के पश्चात भी राष्ट्र में मर्यादा पुरुषोत्तम राम का स्थान है। क्योंकि उपरोक्त दोनों के त्याग एवं बलिदान की कहानी कलियुग में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के समकक्ष न भी हो, परंतु कम नहीं आंकी जा सकती है।

ऐसे राष्ट्र की धरोहर महान सम्राट पृथ्वीराज चौहान व महाराणा प्रताप को हृदय से नमन। क्योंकि, काफी दिनों से कोरोना वायरस से उतपन्न परिस्थितियों पर अपने विचार अभिव्यक्त करने के पश्चात मेरा मन हुआ कि आज मैं अपने राष्ट्र की धरोहर, त्याग, बलिदान, शौर्य एवं राष्ट्रीयता के प्रतीक महान योद्धाओं की राष्ट्र एवं जनता के प्रति अटूट प्रेम एवं त्याग की कहानी का वर्णन किया जाए, ताकि समकालीन पीढ़ी कुछ सीख सके, उनसे प्रेरणा ले।

नि:सन्देह, महाराजा पृथ्वीराज चौहान और महाप्रतापी महाराणा प्रताप जैसे राजाओं को जनता ने विषम परिस्थितियों में भी अपना सहयोग दिया। समाज के सभी वर्गों ने उनको खुले दिल से समर्थन एवं सहयोग क्यों दिया, इसके पीछे एक विचारणीय संदेश या भाव प्रस्तुत करने के लिए मुझे रामचरितमानस की यह पंक्तियां अपने भाव एवं अर्थ में उद्धृत करने योग्य लगती हैं:- "जासु राज प्रिय प्रजा दु:खारी, सो नृप अवसि नरक अधिकारी।" गोस्वामी तुलसीदास की यह भावना हर युग के राजाओं पर सटीक बैठती है। हमारे लोकतंत्र को भी इससे सबक लेनी चाहिए।

वाकई, इतिहास के सम्बन्धित कालखंड में उपरोक्त दोनों राजाओं के पूर्वजों या स्वयं राजाओं ने भी अपने कार्यकाल में प्रजा को कभी भी दु:खी नहीं रखा, अपितु अपनी न्यायप्रियता से भेदभाव रहित उत्कृष्ट शासन व्यवस्था दी, जिसके परिणाम स्वरुप प्रतिकूल परिस्थितियों में उनके राज्य के सभी वर्गों ने, सभी प्रजा ने अपनी अपनी योग्यता व क्षमता के साथ राजाओं का साथ दिया, जिससे वे अक्सर विजयी रहे। लिहाजा, जनता की सहायता एवं राजाओं के प्रताप, शौर्य, बलिदान, त्याग तथा राष्ट्र के प्रति प्रेम व समर्पण ने दोनों कालखंड की प्रजा एवं राजाओं को अमर बना दिया है। यह विचार आज भी प्रासंगिक एवं जन उपयोगी है। काश! हम उन्हें समझ पाते और सबक लेते।जय हिंद, जय भारत।