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अहमदाबाद। परम मंगलमय शास्त्रों का सर्जन हमें हर क्षण ज्ञान की भेंट कराता है। कहते है जब शास्त्रों की बात सुनते है तब मन को ऐसा लगता है जैसे वह शुद्ध चीज में से निकलकर अनंत आकाश में विचरण कर रहा है। इसीलिए विचारवान् पुरुष निरंतर सुंदर वाचन, महापुरुषों का सत्संग, शास्त्रों का वाचन करता रहता है। एक बात समझ लो कि पेट है तो उसे भोजन देना ही पड़ेगा, जीना है तो सांस लेना ही पड़ेगा, प्यास लगी है तो पानी पीना ही पड़ेगा, इन सब के लिए हम कुछ न कुछ व्यवस्था करते है और समय भी निकालते ही है, भोजन की व्यवस्था, पानी की व्यवस्था, हवा की व्यवस्था करते हो परंतु, हमारे जीवन का परिवर्तन लाने के लिए क्याों न हम समय को निकाले?
शास्त्रों की बातें अनंतकाल से चलती आई है एवं उसका अनंतकाल के सत्यों के साथ जब अनुसंधान होगा तब हमारे में भी अनंतता प्रगटेगी। इस अनंतता को प्रगटाने के लिए देव-गुरू के शरण में हमें जाना पड़ेगा।
अहमदाबाद में बिराजित प्रखर प्रवचनकार, संत मनीषि, गच्छाधिपति प.पू.आ. देव राजयश सूरीश्वरजी महाराजा श्रोताजनों को संबोधित करते हुए फरमाते है एक छोटा पुल था छह वर्ष की लड़की अपने पिता के साथ पुल पर से जा रही थी। पिता ने पुत्री से कहां, बेटा। पुल छोटा है तो तुं मेरा हाथ पकड़ ले। पुत्री ने पिता से कहां, पिताजी मैं आपका हाथ  नहीं पकडूंगी। आप मेरा हाथ पकड़ लिजिए तब पिता ने पूछा बेटा! ऐसा क्यों? पिता मैं तो छोटी हूं।  मैं आपका हाथ पकडूंगी तो हो सकता है, कभी मैं किसी कारण से छोड़ भी दूं लेकिन पिता जी मुजे आप पर पूरा विश्वास है कि आप मेरा हाथ नहीं छोड़ेगे बस, इसी तरह हमारे पास हाथ पकडऩे के योग्य गुरू तत्व है। गुरू का हाथ पकड़ लेना बराबर है लेकिन, हमारे में ऐसी योग्यता हो कि गुरू ही हमारा हाथ पकड़ ले, जिससे कभी हमारा पतन न हो, संसार में भटकना ना पड़े, कभी किसी कार्य में निष्फलता न मिले। गुरू के विनय से ज्ञान की भी प्राप्ति हो सकेगी।
उत्तराध्ययन सूत्र में रोज नया प्रश्न आता है और परमात्मा महावीर ने हमें हरेक प्रश्न का सुंदर जवाब दिया है। कहते है भक्त प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त है? पूज्यश्री फरमाते है पहले हमें भक्त का अर्थ समझना पड़ेगा। महापुरूषों देखतेहै किजीवन आराधना करने के लिए ही है। जिनके जीवन में ज्ञान की दर्शन की चारित्र की आराधना हीं तथा जिस शरीर से विशिष्ट प्रकार का तप न हो सके तथा कोई भी क्रिया उत्साह से न हो सके उस शरीर के लिए शास्त्रकार महर्षि फरमाते है जो किसी काम का नहीं उसे छोडऩा ही बेहतर है उदाहरण के तौर पर, आपके घर पर किसी व्यक्ति को नौकरी पर रखा है और वह व्यक्ति आपको कहता है, मैं कुछ काम नहीं करूंगा। क्या आप उस व्यक्ति को नौकरी पर रखोंगे? नहीं बस, इसी तरह आपका शरीर भी पंचाचार में से एक भी आराधना नहीं कर सकता है, समझ लेना उसे भी छोडऩे का अब समय आ गया है।
पूज्यश्री फरमाते है महामुनि आहार को क्रम पूर्वक दूर करने का प्रयत्न करते है पहले आहार-पानी का बंद करते हुए समाधि में रहकर शरीर को कहते है तुझे इस जगह को खाली करना पड़ेगा। कितने संथारों करते है कोई इस अनशन भी कहते है। कितने आत्महत्या करते है। आत्महत्या भयंकर पाप है, आत्मा का त्याग वह पाप नहीं है। आत्महत्या से शरीर का नाश, भक्त प्रत्याख्यान से भी शरीर का नाश है लेकिन एक चोरी है तो दूसरा दान है।आत्महत्या का नाश है लेकिन एकचोरी है तो दूसरा दान है। आत्महत्या वह आत्र्तध्यान है, जबकि बलिदान देना वह एक महान साधना है। कितने लोग देश के लिए, राष्ट्र के लिए, कितने के प्राणों को बचाने के लिए अपने प्राण का त्याग करते है। ये चीज आत्महत्या नहीं है। हम यदि अच्छी तरह से सोचे तो हमारे जीवन का अंत भी समय पूर्वक हो सकता है। एक गांव से दूसरे गांव जाने में कितना आनंद आता है तैयारियां करते है बस, इसी तरह इस शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को धारण करना है। शास्त्रकार फरमाते है पुनर्जन्म की श्रद्धा वाले मृत्यु से डरते नहीं है उन्हें आत्मविश्वास है ये शरीर हम छोड़ेंगे तो नया शरीर मिलेगा। मकान को 40-50 वर्ष हुए। रिनोवेशन करवा रहे हो। मकान को बदल रहे हो, उसका दु:ख नहीं क्योंकि मकान मालिक से एग्रीमेंट हुआ खाली करोंगे तो जगह कुछ ज्यादा मिलेगी। रिनोवेशन में आनंद है इसी तरह भगवान के वचन में आनंद मानने वाले को मृत्यु वह रिनोवेशन  है, उससे डरते नहीं है। क्योंकि उस आत्मा का मोक्ष नजदीक है। शास्त्रकार फरमाते है परंपरा से मूर्ति पूजक संघ को संथारा चलता नही है फिर भी आहार त्याग की छूट दी है। सद्भाव प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है? सद्भाव प्रत्याख्यान (सर्व संवर स्वरूप भाव) से जीव अनिवृत्तिकरण शुक्ल ध्यान के चतुर्थ चरण को प्राप्त करता है। अनिवृत्ति की दशा में शेष जो चार आघाती कर्म को क्षीण करते है उसके पश्चात् वह सिद्ध-बुद्ध-मुत होता है सर्व दु:खों का अन्त करके मोक्ष में सदाकाल आनंद को पाता है।