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अहमदाबाद। अध में सफलं जन्म, अध में सफला क्रिया अध में सफलं गात्रं, जिनेन्द्र तव दर्शनात् -महामूल्यवान् मनुष्य का जन्म हमें मिला। जैन कुल में हमारा जन्म हुआ। हम पुण्यशाली हंै। परमात्मा के दर्शन से जन्म तो सफल हुआ, क्रिया भी सफल हुई, हमारा देह भी धन्य बन गया। आत्मारामजी, स्थानकवासी संप्रदाय से मूर्तिपूजन में आए। दीक्षा दाता ने कहा, सिद्धाचलजी के दर्शन जरूर करना और उन्होंने प्रार्थना के रूप में काव्य लिखा है। अब तो पार भये हम साधो श्री सिद्धाचल दर्श करी। कहते हैं आत्मा में जब आनंद आता है तब शब्दों को ढूंढने नहीं पड़ते, आनंद सहज से आ जाता है। आत्मारामजी ने पहली बार जब परमात्मा के दर्शन किए थे तब उन्हें भी कैसा आनंद आया होगा।
शास्त्रकार महर्षि फरमाते है, साधूनां दर्शनं पुण्यं साधु के दर्शन से पुण्य की प्राप्ति होती है। दो मित्र रास्ते से पसार हो रहे थे। रास्ते में साधु मिले प्रथम मित्र ने कहा, अरे भगवान! मुंडित साधु, कहा मिल गई। अपशुकन हुआ ौर वह वहां से निकल गया। दूसरे ने भी साधु के दर्शन किए। मन हर्ष से भर गया। साधु के शुकन हुए जिस काम के लिए गया था उसमें उसे 15 लाख का फायदा हुआ शाम को दोनों मित्र इकट्ठे हुए। पहले वाले का मुंह उतरा हुआ था। दूसरे वाले मित्र ने कहां, क्या बात है, उदास क्यों हो? भैया। क्या बताऊं सुबह कोई मुंडन किए हुए साधु मिले उनके अपशुकन से 15 लाख का मुझे नुकसान हुआ। दूसरे ने कहा, भैया! मैंने भी तो साधु के दर्शन किए थे। मैंने दर्शन करके शुकन माना तो मुझे फायदा हुआ।
पूज्यश्री फरमाते है व्यक्ति के भाव पर निर्भर है वह जिस प्रकार से सोचता है उस प्रकार से उसे फल मिलता है। वस्तु कैसी भी हो महत्तव का नहीं, हमारे विचार कैसे है वह अगत्य का है।
कोयंबतूर में पू. गुरूदेव विक्रम सूरीश्वरजी महाराजा अंजनशला का के लिए मुकाम से निकले। बिल्ली आड़ी आई। पुजारी साथ में था। साहेब! अपशुकन हुआ। गुरूदेव बिना कुछ कहे अपने रास्ते निकले। मंदिर पहुंच अंजनशला का की विधि चालु हुई और इस ओर मुनिसुव्रत स्वामी की प्रतिमा से अमीझरणा होने लगी। पूजारी को आश्चर्य चकित हुआ। हम जिस प्रकार सोचेंगे उस प्रकार हमें फल मिलेगा। हमेशा सोच पॉजिटिव रखो।
आत्मारामजी दादा आदिनाथ के दर्शन करके आनंद से झूम उठे, और अपने काव्य को गुनगुनाने लगे। अब तो पार भये हम साधु....
लोग पूछते है देव बड़ा या श्रद्धा बड़ी देव तो बड़ा ही होना चाहिए साथ ही श्रद्धा भी जरूरी है। श्रद्धा से ही कार्य बनता है। मानव का जन्म को भोग सुख-ऐश आराम मौज-मस्ती-धंधे में लोगों को फंसाने के लिए नहीं मिला है बल्कि यह मानव भव आत्मा से परमात्मा बनने के लिए ही मिला है। जिस प्रकार से श्रद्धा, परमात्मा पर रखी जाती है वैसा श्रद्धा हम नहीं रखते है इसीलिए हम सफलता नहीं पा रहे है 
भरूच में एक श्राविका ने मासक्षमण तप किया उस भाविका को डायबीटिश की बिमारी थी। डायबीटीश कभी हीट तो कभी लोव हो जाता था।  उस श्राविका को सिफ चार पांच उपवास हुआ थे। स्वजन, उस श्राविका को पारणा करने के लिए मजबूर करने लगे परंतु श्राविका भी गजब श्रद्धा वाली थी। किसी की बात उसने नहीं सुनी। मासक्षमण पूरा करके ही रही लोग उसी श्रद्धा से ताजुब हो गए। किसी से उस श्राविका को पूछा, इतना डायबीटीश होने के बावजूद आपने यह तप कैसे पूरा किया? तब वह कहती है ये प्रभाव सिर्फ देव गुरू धर्म का है। 
आत्मारामजी ने 21 साल तक स्थानकवासी संप्रदाय में रहकर साधु जीवन का पालन किया। पंजाब जैसे शहरे में रहे। कहते है, पूर्व के काल में पंजाब की ओर विहार करना भी होता तो, किसी भी प्रकार की व्यवस्था उस जमाने में नहीं थी ऐसे प्रदेश में रहकर वे सद्गुरू सदतीर्थ को पाने हेतु प्रचंड शकित एवं हिम्मत से वे वहां से निकलकर गुजरात आए। 
आदिनाथ के दर्शन करके निष्कपट भाव से परमात्मा को कहां, 22 साल तक स्थानकवासी संप्रदाय में रहकर पत्थर की मूर्ति समझकर नहीं पूजा। मैंने खूब निंदा भी की थी। अब मैं अपने पाप को धोने आया हूं शुद्ध सम्यक्त्वी बना हूं। अब इस भवसागर से डरूंगा नहीं। कहते है आस्था एवं श्रद्धा के बल से जो व्यक्ति सिद्धाचल की यात्रा करता है उसकी आत्मा का उत्थान जरूर होता है। कहते है, जिस तरह आत्मारामजी ने निखालसता से परमात्मा के पास पाप का कबूल किया तथा गुरू के पास भव आलोचना की बस इसी तरह आप भी अपने जीवन दौरान आपसे भी जो पाप हुआ है उसका देव गुरू के समक्ष प्रकट करके आत्मा से परमात्मा बनें।