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ललित गर्ग 
रोना महामारी की दूसरी लहर ने भारी तबाही मचायी, अधिकांश परिवारों को संक्रमित किया, लम्बे समय तक जीवन ठहरा रहा, अनेक बंदिशों के बीच लोग घरों में कैद रहे, अब सोमवार से दिल्ली सहित देश के अनेक भागों में जनजीवन फिर से चलने लगेगा। कोरोना वायरस के कारण आत्मकेन्द्रित सत्ताओं एवं जीवनशैली के उदय होने की स्थितियों को आकार लेते हुए देखा गया है जिसमें दुनिया कहीं ज्यादा सिमटी और संकीर्णता से भरी उदासीन एवं अकेलेपन को ओढ़े हैं। मानवता के इस महासंकट के समय सबसे बड़ी कमी जो देखने को मिली है वो है किसी वैश्विक नेतृत्व का अभाव। जिसके न होने के कारण ही हम कोरोना वायरस के प्रकोप को बढऩे से नहीं रोक सके। कोरोना वायरस की वजह से हमारे जीवन में व्यापक बदलाव आए हैं। विशेषत: स्वास्थ एवं चिकित्सा तंत्र लडखडाया है। अर्थव्यवस्था ध्वस्त हुई, बाजार एवं उद्योग सन्नाटे में रहे, इतना ही नहीं हमारे निजी जीवन और हमारे रिश्तों पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ा है।
आज नए कोरोना वायरस का संक्रमण दो सौ दस से अधिक संप्रभु देशों में फैल चुका है। इस वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या करोड़ों में है। जबकि इस महामारी ने अब तक लाखों लोगों को काल के गाल में डाल दिया है। इसलिए अब इस महामारी को वास्तविक रूप में हम वैश्विक महामारी कह सकते हैं। हालांकि, ये संकट इतना बड़ा है कि लोग ये सोच ही नहीं पा रहे हैं कि इस महामारी के संकट के बाद जो दुनिया बचेगी, उसका रंग रूप कैसा होगा? हमारी सामाजिकता एवं पारिवारिकता क्या आकार लेगी? रोजगार, व्यापार एवं जीवन निर्वाह का नजरिया कैसा होगा? शिक्षा एवं काम करने की शैली क्या रहेगी? ये नई दुनिया दिखने में कैसी होगी? हमारे सामाजिक एवं पारिवारिक उत्सवों, शादी-विवाह का स्वरूप कैसा रहेगा? क्या ये महामारी इक्कीसवीं सदी की पहले दोराहे पर खड़ी दुनिया की चुनौती है? ये वो प्रश्न हैं जिनके उत्तर तलाशने का प्रयास कोरोना की दूसरी लहर को मात देकर आगे बढ़ते हुए हमें करने होंगे।
दुनिया मानव इतिहास के सबसे सबसे बड़े संकट एवं खतरनाक दौर से रू-ब-रू है। अगर सामने मौत खड़ी हो, तो दिमाग में मौत और उसकी विभीषिका एवं तांडव के दृश्यों के सिवा कुछ और नहीं आता। इस वक्त दुनिया ठीक उसी मोड़ पर खड़ी है। एक सीमाविहीन विश्व से अब मानवता उस दिशा में बढ़ रही है जहां पर सरहदें हमारे घरों के दरवाजों तक आ गई हैं। चलती फिरती दुनिया अब सहम कर खड़ी हो गई है। वहीं, इसके उलट साइबर दुनिया में हलचल तेज हो गई है। ईंट और पत्थरों वाली जो मानव सभ्यता पिछले कई हजार वर्षों में विकसित हुई है, और वर्चुअल मानव समाज जो इनवर्षो की देन है, वो दोनों ही नए रंग रूप में ढल रहे हैं। मानवता का इतिहास आज इन्हीं दो सभ्यताओं का मेल कराने वाले चैराहे पर खड़ा है सहमा हुआ, सिहरन एवं आशंकाओं से घिरा। आज सोशल डिस्टेंसिंग ही नई संप्रभुता है। उत्सवप्रियता से दूर एकांकीपन को जीने की विवशता को लिये अनेक भय एवं भयावहता की आशंका से घिरा। ये सभी घटनाएं अपने आप में युगांतकारी हैं। इनके पहले की दुनिया अलग थी। इनके बाद का विश्व परिदृश्य बिल्कुल ही अलग होगा।
कोरोना महामारी से दुनियाभर में तरह तरह की तबाहियों की खबरें सुनने को मिली हैं। जिनमें भारत सहित अनेक देशों में बच्चों एवं महिलाओं पर घरों की चारदिवारी में हिंसा, प्रताडऩा एवं यौन शोषण की घटनाएं बढ़ी है। एक नई तबाही का पता जापान में चला है। यह मनावैज्ञानिक संकट है अकेलापन का। महामारी से बचाव के उपाय के तौर पर अलगाव और सामाजिक दूरी का तरीका अपनाया गया था। जापान में शोध सर्वेक्षणों से पता चल रहा है कि इससे अकेलेपन की समस्या हद से ज्यादा भयावह हो गई और आत्महत्याओं की घटनाएं बढ़ गईं। संकट इतना बड़ा हो गया कि जापान सरकार को इस समस्या से निपटने के लिए एक अलग से मंत्री बनाना पड़ा। इसका नाम ही है मिनिस्टर ऑफ लोनलीनेस। कोरोना काल यानी 2020 में जापान में 6976 महिलाओं ने खुदकुशी की। यानी मनोवैज्ञानिक रूप से महामारी का सबसे ज्यादा मारक असर महिलाओं पर पड़ा। बच्चें भी कम प्रभावित नहीं हुए है। बात केवल जापान की नहीं है, बल्कि इसे एक वैश्विक समस्या के रूप में भी देखा जाना चाहिए। क्योंकि कोरोना संक्रमितों के लिए अलगाव का तरीका और कोरोना से बचाव के लिए सामाजिक दूरी का उपाय दुनिया के लगभग हर देश में अपनाया गया। यानी अभी दूसरे देशों से खबरें भले ही न आ रही हों लेकिन चिंता सभी को करनी पड़ेगी। कोरोना महामारी पर नियंत्रण पाने के लिये लगायी गयी बंदिशों एवं सामाजिक दूरी के पालन एवं अन्य सख्त हिदायतों ने हमारे जीवन को गहरे रूप में प्रभावित किया है, उसके प्रभाव एवं निष्पत्तियां लम्बे तक हमें झकझोरती रहेगी, उनसे हमें भी सावधानी बरतनी होगी।
दरअसल महामारी के दौरान दुनियाभर में जिन्होंने अपना रोजगार गंवाया, शिक्षा से वंचित हुए हैं, उनमें पुरूषों की तुलना में महिलाओं का आंकड़ा ही कम नहीं है। माना गया है कि खासतौर पर वर्क फ्राम होम की प्रक्रिया में महिलाओं पर काम का दबाव दोहरा पड़ा। घर में 24 घंटों मौजूदगी की बाध्यता ने ऑफिस के काम के साथ- साथ महिलाओं से परिवार पर अतिरिक्त ध्यान लगाने एवं घरेलू काम करने की अपेक्षाएं बढ़ा दीं और महिलाओं पर बोझ दुगना कर दिया। एक रिपोर्ट पहले ही आ चुकी है कि महामारी के दौरान पूरी दुनिया में घरेलू हिंसा और कलह की समस्या पहले के मुकाबले काफी बढ़ गई। जापान की मानसिक स्वास्थ्य की विशेषज्ञ यूकी नीशीमूरा के मुताबिक जापान के समाज में वायरस से बचाव की जिम्मेदारी महिलाओं पर ही ज्यादा डाली गई। यह देखा गया कि परिवार के स्वास्थ्य और साफ सफाई की देखरेख की जिम्मेदारी महिलाओं की ही ज्यादा रही। इसीलिए परिवार में कोरोना संक्रमण आने का अपराधबोध महिलाओं ने ही ज्यादा महसूस किया। लगभग यही स्थिति भारत में भी देखने को मिली है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक पूरी दुनिया में कमोबेश 30 करोड़ लोग अवसाद और उस जैसी मनोवैज्ञानिक समस्याओं से जूझ रहे हैं।
भारत में कोरोना महामारी के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभावों ने जीवन पर ही प्रश्नचिन्ह टांग दिये हैं। क्राइम ब्यूरों की रिपोर्ट के मुताबिक सन् 2019 में एक साल में भारत में एक लाख उनतालीस हजार लोगों ने आत्महत्याएं कीं। जिनमें अनेक विभिन्न क्षेत्रों की हस्तियां अवसाद के कारण ऐसा करने को विवश हुई है। देश में इस समस्या की तीव्रता का अंदाजा इस बात से लगता है कि सवा लाख से ज्यादा आत्महत्या करने वालों में 67 फीसद यानी दो तिहाई युवा थे। एक साल में 18 साल से 45 साल के बीच के 93 हजार युवाओं का आत्महत्या करना कम से कम गंभीर चिन्ता का कारण तो है। लंबे खिंचे लॉकडाउन से बेरोजगारी और अकेलेपन से बने हालात का अनुमान सहज लगाया जा सकता है। इस दौरान घर के भीतर रहने की बाध्यता ने लोगों को अकेलेपन में धकेला ही है। जो अपनी पढ़ाई या दूसरे कामकाज के कारण अपने परिवारो से भी अलग रहते थे, उनमें भी अवसाद एवं अकेलापन त्रासदी की हद तक देखने को मिला। भारत में इन मनोवैज्ञानिक प्रभावों एवं स्थितियों पर ध्यान देना एवं उचित कारगर कदम उठाना होगा। कोरोना महामारी की अगली लहर के प्रति सावधान होते हुए इन मनोवैज्ञानिक प्रभावों की भी पड़ताल करनी होगी।