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राजस्थान वहीं जिसे लैंड ऑफ़ किंग्स के रूप में सदियों से जाना जाता रहा है, लेकिन यहां के जालौर में मानवता को शर्मसार कर देने वाली घटना ने एक बार सोचने को मजबूर कर दिया है। राजस्थान और पानी की कि़ल्लत का सामंजस्य तो हमने कई बार सुना है लेकिन इस घटना से कई मानवीय पहलुओं पर भी ध्यान देना ज़रूरी है। 5 साल की बच्ची के साथ उसकी बुज़ुर्ग नानी प्यास से इतनी बुरी तरह तड़पी कि बच्ची की मौत तो वहीं हो गई, जबकि नानी को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। कोई सोच सकता हैं कि बुज़ुर्ग नानी और बच्ची 9 घंटे तक बिना पानी पिए रेत के टीलों के सहारे पैदल ही 25 किलोमीटर का सफऱ तय करते जा रहे थे। यह वहीं राजस्थान हैं जहां दुनिया की सबसे मशहूर ट्रेन पैलेस ऑन व्हील चलती है।
पूरी दुनिया में पानी की समस्या विकराल रूप लेती जा रही है। धरती का 70 प्रतिशत हिस्सा जलमग्न होने के बावजूद पूरी दुनिया का ढाई फ़ीसदी जल ही पीने योग्य है। तथ्य यह भी महत्वपूर्ण है कि पूरी दुनिया में 2 अरब से अधिक लोगों के पास आज भी पीने योग्य पानी की कमी है। यूनिसेफ़ की रिपोर्ट भी कहती है कि हर साल साफ़ पानी के अभाव में अशुद्ध और गंदा जल पीने वाले लगभग 16 लाख से अधिक बच्चों की मौतें हो रही हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ साफ़ और स्वच्छ पेयजल को मूलभूत मानवाधिकार भी मान चुका है लेकिन पूरी दुनिया को दरकिनार भी कर दें तो सिफऱ् अमेरिका में बोतलबंद पानी का व्यवसाय 18 बिलियन डॉलर होना चिंताजनक है। रहिमन पानी राखिये बिना पानी सब सून, पानी गये न उबरै मोती मानुष चून। रहीम के ये शब्द दिलों दिमाग़ में तो हैं लेकिन अमल में कब आएंगे इसका कोई पता नहीं। जैसे-जैसे भारत की जनसंख्या बढ़ रही हैं साफ़ जल की समस्या का प्रतिशत बढऩा लाज़मी है। पानी, आवास, स्वच्छता जैसे मुद्दों पर देश की सरकारें आखऱि किस स्तर पर कार्य कर रही है इसका आंकलन उन्हें ख़ुद करना चाहिए।
मौजूदा हादसा राजस्थान का भले ही हैं लेकिन ऐसी मौतें किसी भी प्रदेश में हो सकती हैं, क्योंकि यह समस्या वैश्विक है। हमें समाधान के लिए युद्धस्तर पर योजनाएं बनाई जानी चाहिए। नहीं वो दिन दूर नहीं जब कोरोना जैसी महामारी के लिए जूझ रहे नागरिक पानी से होने वाली मौतों पर भी अपनों को खो देंगे। कम से कम इस महामारी ने हमें सचेत होने का संदेश तो दे ही दिया है।
आप किसी भी गली, मुहल्लों, नुक्कड़, शहर, क़स्बों में देखेंगे तो पाएंगे कि पानी का व्यवसाय करने वालों की भीड़ सी होने लगी है। क्या इन पानी के व्यवसायियों को सरकार खुले तौर पर व्यवसाय करने की छूट दे रखी है। अगर ऐसा है तो समाज के हरेक व्यक्ति का पानी के व्यवसाय में बराबर का हक़ होना चाहिए। आप सोचिए कि किसी मुहल्ले में पानी को प्यूरिफ़ाइ करने का मशीन लगी है और उसी मुहल्ले में पानी की भी कि़ल्लत है तो सरकार या स्थानीय प्रशासन इसे कैसे देखेगा? यह सामाजिक बराबरी के अंतर्गत आता है? अगर नहीं तो प्रति व्यक्ति पानी की खपत का रेसियो निकालते हुए क्या उस पर कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए। क्योंकि आखऱि में वो मानवाधिकार का उल्लंघन ही तो है।
10 रुपए से लेकर 500 रुपए के बोतल बंद पानी को आप खरीदते हैं। यह वही पानी है जिस पर प्रत्येक मनुष्य का बराबरी का हक़ है। सरकारों को इस व्यवसाय पर गम्भीरता से विचार करने की ज़रूरत है। देश के कई सामाजिक संगठन और सरकारें जल संरक्षण पर कार्य कर रही हैं। राजस्थान में भी तालाब, नाड़ी, झीलों, बावड़ी, कुई, झालरा, टोबा, खड़ीन या जोहड़ आदि के माध्यम से जल संरक्षण किया ही जा रहा होगा। लेकिन इनकी वर्तमान में प्रासंगिकता की बात करें तो शायद राज्य सरकारों के पास ख़ुद इन्हें सहेजने में कितना सफल हैं यह कह पाने में असफल होंगे। पूरी दुनिया को जल संरक्षण के लिए प्रेरित कर सकते की क्षमता रखने वाला राजस्थान ख़ुद इन मुद्दे पर शांत रहता है। रेगिस्तान होने के बावजूद उन्हें भारत की पांच सबसे ज़्यादा झीलों वाले राज्य में शुमार होने का मौक़ा विरासत में मिला है। राजस्थान में किसी की पानी से मौत हो जाए इसमें भले ही एकबारगी अचम्भा न हो लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में कोई बच्ची पानी से तड़प कर मर जाए इस पर ज़रूर अचंभा होगा। और यह वही देश हैं जहां पानी के नाम पर ही करोड़ों रुपए का व्यवसाय भी चल रहा है। दरअसल यह पानी की जमाख़ोरी करने वाले लोगों का ही व्यवसाय है, जिसके चलते पानी की कालाबाज़ारी हो रही है और पानी की कमी से देश में आमजन की मौतें हो रही हैं।
राजस्थान के मुद्दे पर पड़ोसी राज्यों ने भी प्रदेश की सरकारों को कोसना शुरू कर दिया है जबकि उन्हें ख़ुद अपने प्रदेश में भूख और ऑक्सीजन की कमी से हुई मौतों पर कोई चिंता नहीं है। ख़ुद दुनिया की सबसे ज़्यादा पूज्यनीय नदी गंगा के लगातार अशुद्ध होने की जि़म्मेदारी लेनी चाहिए थी तो वो उससे पीछा छुड़ा रहे हैं। जवाब देने से पीछे भाग रहे हैं। उनके ही प्रदेश में नदियों के संरक्षण पर कोई एक ढंग का प्रयास होता हुआ नहींं दिखा रहा। मूलभूत ज़रूरतों की कमी से हो रही मौतों पर राजनीति नहीं बल्कि हमें सचेत होना होगा, क्योंकि कोरोना की आफ़त से एक नागरिक के तौर पर मैंने तो यही महसूस किया है। बाकि आपकी मूलभूत ज़रूरतें ही दूसरी हो तो क्या ही कहा जाए।