अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद यानी एआइसीटीई ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी सहित आठ भारतीय भाषाओं में कराने की पहल की और सरकार द्वारा इसे मंजूरी प्रदान कर दी गई। अंग्रेजी के अतिरिक्त अन्य भाषाएं हिंदी, तमिल, तेलुगु, बांग्ला, मराठी, कन्नड़, मलयालम और गुजराती हैं। वास्तव में इस बात पर खेद प्रकट किया जाना चाहिए कि यह कार्य अभी तक क्यों नहीं हुआ था। हम क्यों अपनी ही भाषाओं का तिरस्कार कर अंग्रेजों द्वारा थोपी हुई भाषा में लगातार पढ़ते-पढ़ाते रहे? सरकारों ने इस विषय को ही छोड़ दिया और नौबत यह आ गई कि एक आम धारणा बन गई कि तकनीकी विषय तो अंग्रेजी में ही पढ़े जा सकते हैं। इसके लिए कई जिम्मेदार कारण हैं, जिनमें से एक जिम्मेदार कारण अंग्रेजी के अतिरिक्त अन्य भाषाओं में तकनीकी शिक्षा की पुस्तकों का अनुपलब्ध होना भी है। यह चिंताजनक विषय है। लेकिन अगर पहले इस दिशा की ओर दृढ़ इच्छाशक्ति से कार्य किया गया होता तो शायद इतना विलंब न होता। देर से ही सही, यह एक सकारात्मक पहल है, क्योंकि मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण कर पाना अपेक्षाकृत ज्यादा आसान होता है।
विचार विनिमय का एकमात्र साधन भाषा है। स्वाभाविक रूप से मनुष्य अपनी मातृभाषा का अर्जन पहले करता है। किसी भी व्यक्ति के लिए मातृभाषा सीख लेने के बाद उस भाषा में अर्जन की प्रक्रिया अन्य भाषा की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक सरल होती है। जब हम मातृभाषा में चीजों को सीखते हैं तो वह हमारे लिए प्राथमिक होती है, क्योंकि इसके लिए हमारे मस्तिष्क को अनुवाद की प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ता है। इसके विपरीत जब हम मातृभाषा के अतिरिक्त अपनी द्वितीयक या तृतीयक भाषा में विचारों को ग्रहण करते हैं तो पहले उसे अपनी मातृभाषा में बदलते हैं, तब उसको ग्रहण करते हैं। यही कारण है कि मातृभाषा में मस्तिष्क की ग्राह्यता सर्वाधिक होती है।
अफसोस की बात है कि भारत के हिंदी और अन्य स्थानीय भाषा-भाषी क्षेत्र अंग्रेजी के वर्चस्व को स्वीकार कर चुके हैं। खुद हिंदी भाषी होने के बावजूद उनमें हिंदी के लिए हीन भावना विद्यमान है और यही मानसिकता अंग्रेजी के वर्चस्व का कारण है। भारत में आज तकनीकी शिक्षा की भाषा केवल अंग्रेजी में है और कहीं न कहीं यह भारत के युवाओं को तकनीकी शिक्षा से आसानी से जोडऩे में बाधक है। भाषाई दिक्कतों की वजह से आज बहुत से युवा इस क्षेत्र को अपनाने में हिचकिचाते हैं। भारत के अधिकतर युवा ग्रामीण पृष्ठभूमि से ही आते हैं। वहां उनके लिए उनकी अपनी क्षेत्रीय भाषा दैनिक जीवन का हिस्सा होती है। वे अपनी भाषा में सहज होते हैं। अंग्रेजी जैसी दूसरी भाषा को कई बार वे मजबूरी में सीखते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि बिना अंग्रेजी के उनका भविष्य बहुत उज्ज्वल नहीं हो सकता।
ताजा निर्णय से दूसरी भाषा को मजबूरी में सीखने की स्थिति दूर होगी। जो अपनी रुचि या शौक से सीखना चाहते हैं, उनके लिए विकल्प सदैव ही खुले हुए हैं। दूसरी बात, भारत के हिंदीभाषी और अन्य भाषा-भाषी क्षेत्रों में यह अवधारणा बना दी गई है कि तकनीकी की भाषा अंग्रेजी है। ऐसा इसलिए हुआ कि सरकारों ने हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में तकनीकी शिक्षा प्रदान करने के कोई ठोस प्रयास नहीं किए। नतीजतन, अंग्रेजी का इस क्षेत्र की शिक्षा में प्रभुत्व बना रहा। तीन-चार वर्ष पहले भोपाल के अटल बिहारी वाजपेयी शिक्षण संस्थान ने सबसे पहले इंजीनियरिंग की पढ़ाई हिंदी भाषा में शुरू करने का फैसला किया और उसका खूब स्वागत हुआ। मगर समुचित तैयारी न होने और हिंदी भाषा में पुस्तकों की पर्याप्त उपलब्धता न होने के कारण वह हौसला ठंडा हो गया। हमें उस भूल से इस फैसले को सुधार कर सही नीति के साथ आगे बढऩे का प्रयास करना चाहिए। अगर हमने उस गलती से अभी सीखा नहीं तो अंग्रेजी की वकालत करने वाले यह बात फिर से शुरू कर सकते हैं कि ऐसे प्रयास पहले किए गए, लेकिन वे सफल नहीं रहे।अंग्रेजी की पुस्तकों को अन्य भाषाओं में अनुवाद करने के लिए सेवानिवृत्त प्रोफेसर और शिक्षकों की मदद ली जा सकती है। अनुवाद करते समय अगर हम अपनी भाषा में लचीलापन रखेंगे तो वह ज्यादा बेहतर होगा। बहुत से अवधारणात्मक शब्द, जिनका हिंदी या क्षेत्रीय भाषा में कोई रूपांतरण नहीं है, उसे अंग्रेजी के उसी स्वरूप के साथ स्वीकार किए जाने में भाषाई कट्टरता का परिचय न देते हुए आगे बढऩा होगा। अभी तो हमारा प्राथमिक उद्देश्य अपनी भाषाओं में इस तरह की तकनीकी शिक्षा को प्रारंभ कर दिए जाने पर जोर देने की होनी चाहिए।
अगर हम ऐसा कर पाने में सफल हुए तो हम वर्तमान समय में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों की शिक्षा गुणवत्ता में जो अंतर देख रहे हैं, धीरे-धीरे उसे भी पाट पाने में सफल हो सकेंगे। शहरी युवा अंग्रेजी के साथ गांवों की युवाओं की अपेक्षा अधिक सहज हैं, इसीलिए वे अनेक विषयों को अंग्रेजी में आसानी से ग्रहण करते हैं। पुस्तकों के अतिरिक्त अन्य तकनीकी माध्यमों जैसे स्मार्ट फोन, टैबलेट या कंप्यूटर पर इन विषयों में उपलब्ध सामग्री की भाषा अंग्रेजी ही है। ग्रामीण युवाओं का संकट द्विस्तरीय है। एक तो उनके पास तकनीकी के साधन कम हैं, दूसरा जिसके पास साधन है भी, उसकी भाषा अनुकूल न होने के कारण वह अपेक्षाकृत पीछे रह जाता है। जब क्षेत्रीय भाषाओं में पुस्तकें उपलब्ध होंगी तो स्मार्टफोन या कंप्यूटर पर भी उनके क्षेत्रीय रूपांतरण धीरे-धीरे उपलब्ध होने लगेंगे।भारत में मानविकी शाखा के भाषाई विषयों के अतिरिक्त देश के अधिकतर केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अधिकतर अंग्रेजी की अच्छी पुस्तकों के हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद बहुत कम मिलते हैं। इस वजह से अंग्रेजी के अतिरिक्त भाषा-भाषी विद्यार्थियों के लिए समस्या उत्पन्न हो जाती है। विज्ञान शाखा की शिक्षा देश के छोटे-बड़े, अच्छे-खराब विश्वविद्यालयों में लगभग अंग्रेजी माध्यम में ही दी जाती है। दरअसल, अपनी शिक्षा व्यवस्था में अभी भी हम मानसिक गुलामी के दौर से उबर नहीं पाए हैं। हमारे पड़ोसी देश चीन का उदाहरण हमारे समक्ष है, जो अपनी भाषा में ही सब कुछ करके लगातार विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र में महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर हो रहा है। विकसित देश जापान, कोरिया या जर्मनी जैसे यूरोपीय देशों ने अपनी भाषा का ही दामन पकड़े रहा और आगे बढ़ते रहे। सही है कि भारत जैसे भाषाई वैविध्य वाले देश में यह एक चुनौती अवश्य थी, लेकिन ऐसा नहीं था कि इसका कोई हल नहीं निकाला जा सकता था। अभी इंजीनियरिंग की पढ़ाई आठ क्षेत्रीय भाषाओं में करने के प्रयत्न प्रारंभ हुए हैं, जिसे आगे आठवीं अनुसूची की अन्य ग्यारह भारतीय भाषाओं में विस्तृत करने की योजना है। लेकिन भारतीय उच्च शिक्षा में यह बहुत थोड़ा सा अंश है। इसके अतिरिक्त चिकित्सा विज्ञान, प्रबंधन की पूरी शिक्षा अंग्रेजी में होती है।
संयुक्त विधि प्रवेश परीक्षा के तहत बारहवीं कक्षा के बाद पांच वर्षीय विधि शिक्षा के लिए स्थापित देश के प्रतिष्ठित विधि संस्थानों में शिक्षा का माध्यम केवल अंग्रेजी है।
इन लोकप्रिय पाठ्यक्रमों के अतिरिक्त होटल मैनेजमेंट, बायोटेक्नोलॉजी, फैशन डिजाइनिंग जैसे पाठ्यक्रमों की भाषा भी यही है। ग्रामीण या आदिवासी युवाओं को अगर हम लगातार महज भाषाई माध्यम के कारण शिक्षा से वंचित करते हैं तो यह शर्मनाक है। हमें अपनी सरकारों से ऐसी मांग लगातार करनी चाहिए कि इंजीनीयरिंग के साथ अन्य सभी पाठ्यक्रमों का संचालन अंग्रेजी के अतिरिक्त हिंदी सहित प्रमुख क्षेत्रीय भाषाओं में भी किया जाए, ताकि युवा किसी भी प्रकार की तकनीकी और अन्य किसी भी शिक्षा क्षेत्र को चुनने के पहले भाषा की बाध्यता न महसूस करें।
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