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अहमदाबाद। उत्तराध्ययन सूत्र के सम्भक्त पराक्रम अध्ययन में आज का स्वाल है मुक्ति से जीव को क्या प्राप्त होता है? कहते मुक्ति शब्द का संस्कृत में दो अर्थ बताए है। सर्व कर्म से मुक्त हो जाना यानी मुक्ति तथा दूसरा अर्थ यह भी होता है कि किसी भी प्रकार से लोभ नहीं करना। दुनिया का हरेक व्यक्ति किसी न किसी प्रकार से धंधा करके अरबों, करोडों, लाखों रुपए इकट्ठा करता है। सम्पूर्ण पैसों का तो वह भोग नहीं करता और जब वह इस दुनिया को छोड़कर चला जाता है, तब वह अपने साथ भी कुछ नहीं ले जाता है। सिकंदर ने पूरी जिंदगी संपत्ति इकट्टा करने में ही बिताई। इस दुनिया को छोडऩे से पहले उसने फरमान किया कि जब मेरी अर्थी निकले तब मेरे हाथ को बांध मत देना, बल्कि मेरे हाथों को खुला रखना ताकि लोगों को मालूम पड़े कि मैंने इतना कुछ इकट्टा करने के बावजूद खाली हाथ ही इस दुनिया से विदाई ले रहा हूं।
 अहमदाबाद में बिराजित प्रखर प्रवचनकार, संत मनीषि, गच्छाधिपति प.पू.आ. देव राजयश सूरीश्वरजी महाराजा श्रोताजनों को संबोधित करते हुए फरमाते हैं कि किसी भी चीज पर ममत्व नहीं रखना। ममत्व नहीं रहने पर कोई भी चीज आसानी से छूट जाती है। फलानी चीज को छोड़ते वक्त दु:ख नहीं लगता है। आपके पास धन हो रत्न हो या हीरा हो ये सभी परलोक साथ नहीं आएगा। जैन साधु इस लोभ से दूर रहने के लिएधन का कभी स्पर्श नहीं करते है। पूर्व के काल में धातु को भी धन कहा जाता था साधु जब भी अपनी विशिष्ट क्रिया करते है उस क्रिया दौरान धातु का स्पर्श नहीं करते है। एक सुंदर दृष्टांत समझाते है गुरू ने कुछ ऐसी साधना की जिससे, उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई। वह सिद्धि भी ऐसी कि जब भी कोई इच्छा करते गुरू धन की वर्षा करते थे। एक बार गुरू एवं शिष्ट कहीं बाहर निकले। मार्ग में उन्हें चोर मिले। चोरों की टोली ने धमकाकार गुरू से कहां, आपके पास जो कुछ भी हो उसे सीधी तरह से निकालकर दे दो। गुरू ने कहां, मेरे पास तो पैसे नहीं है। कहते है, सिद्धि मिलाने के बाद उसे पचाना बहुत मुश्किल है। चोरों को दिखाने हेतु गुरू ने अपनी सिद्धि से धन की वर्षा करके चोरों को दिखाया। शिष्यों ने गुरू को ईशारे से खूब रोकने की कोशिश की लेकिन कुतूहल से उन्होंने धन की वर्षा करके दिखाया।
शास्त्रकार महार्,ि फरमाते है जिनमें कुतूहल है उन्हें कभी सिद्धि नहीं मिलती है। मानलो सिद्धि प्राप्त भी हो गई वह ज्यादा दिन नहीं टिकती है। सिद्धि टिककर भी रहे तो उस व्यक्ति का पतन होकर ही रहता है उसका कभी उत्तान नहीं होता है। चोरों ने जबरदस्ती करके गुरू के पास से सिद्ध किया हुआ मंत्र लेकर चले गए। इस ओर चोर कुछ ही दूरी पर गए कि उन्हें अन्य चोर मिले। उन चोरों ने अपनी ताकात दिखाकर उस सिद्ध मंत्र को चोर लिया और वे फिर से उस गुरू के पास गए।
चोरों ने गुरू को कहां, धन की वृष्टि करो तब गुरू ने जवाब दिया। भाईयों! जीवन में एक ही बार सिद्धि प्राप्त की जा सकती है अब मुझ से नहीं होगा। अशक्य बात को सुनते ही चोरों को गुस्सा आया। शिष्यों वहां से भागकर चले गए। चोरों ने धन की वर्षा न करने से गुरू का गला काट दिया। धन के ढेर पड़े  रहे, चोरों का आपस में झघडऩे से कितनों की मृत्यु हो गई।शास्त्रकार महर्षि फरमाते है अर्थ (धन) ही अनर्थों का मूल है। जितनी आवश्यकता है इतना ही धन रखकर जिन्हें जरूर है उन लोगों को देने में हिचकिचाना नहीं। मुक्ति याने निर्लोभिता अकिंचनता। साधु अपरिग्रही है इसीलिए हमेशा वे शांति का जीवन जीते है और वे आनंद में रहते है। पूज्यश्री फरमाते है कोई भी व्यक्ति जब जन्म लेता है तब उसके सरीर पर वस्त्र नहीं होते है एवं मृत्यु के वक्त भी कुछ साथ नहीं ले जाएगा यहां तक की अरबोंपति की मृत्यु हुई। स्वजन संबंधी उस मृत शरीर के पास आकर उसके हाथ में रही हुई सोने की अंगूठी भी निकाल देते है। और उसे धोकर शुद्ध कर लेते है।
पूज्यश्री फरमाते है इस पैसों का अनर्थ भयंकर है। साधु यदि सावधानी न रखे तो अग्यारह वे गुणस्थानक (उपशम श्रेणी) पर चढ़ा हुआ लोभ से नीचे गिर सकता। उसका पतन शक्य है। किसी ने पूछा साहेब! साधु के पास हीरा नहीं, रत्न नहीं फिर भी उन्हें लोभ किस पर होा है। लोभ विचित्र है। एक छोटे से कपड़े पर भी यदि साधु ममत्व रखा मेरी मुहापति बिगड़ जाएगी इसलिए मैं किसी को नहीं दूंगा ऐसा ममत्व जो करता है वह साधु उपशमश्रेणी पर चढ़ा हुआ अग्यारहवें गुणस्थापक से पहले गुणस्थानक पर आ सकता है। परमात्मा को प्रार्थना करना है, कभी लेनदेन की हेरा फेरी करनी पड़े तो लोभी नहीं बनंूगा। बैंक के मैनेजर के पास करोड़ों रूपिये आते है करोड़ों कोई ले भी जाते है तब वे अपने मन में एक ही विचार करते है जो पैसे जमा हुए वे मेरे नहीं है, जो पैसा सामने वाला व्यक्ति उठाकर ले जा रहा है वे भी मेरे नहीं है। इस तरह से व्यक्ति जब राग द्वेष के बिगैर तथा निर्लोभी बनता है तब वह आत्मा महान बनकर आत्मा से परमात्मा बनता है।