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संजय गुप्त
मोदी सरकार की दूसरी पारी में अगस्त 2019 को गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में यह कहकर देश सहित दुनिया को चौंका दिया था कि अनुच्छेद 370 और 35-ए को जम्मू-कश्मीर से हटाया जा रहा है और लद्दाख को अलग कर दो केंद्र शासित प्रदेश बनाए जा रहे हैं। उन्होंने यह फैसला लेते समय यह आश्वासन दिया था कि जैसे ही हालात सुधरेंगे, जम्मू-कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल कर दिया जाएगा। यह चौंकाने वाला फैसला अवश्य था, लेकिन सच यह है कि 370 एक अस्थायी अनुच्छेद था। स्वतंत्रता उपरांत यह जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के बाद कश्मीरी नेता शेख अब्दुल्ला को संतुष्ट करने के लिए लाया गया था। इस अनुच्छेद के तहत जम्मू-कश्मीर को जो विशेषाधिकार मिले, उनसे इस राज्य ने एक विशिष्ट दर्जा हासिल किया। इसके तहत संसद द्वारा पारित कानून सीधे राज्य में लागू नहीं हो सकते थे। धीरे-धीरे इस विशिष्ट दर्जे ने अनेक विसंगतियों को जन्म दिया और बाद में यह अलगाव और आतंक की जमीन तैयार करने का भी कारण बना। अनुच्छेद 370 के कारण कश्मीर की जनता और वहां के नेताओं का एक वर्ग खुद को भारत से अलग मानने लगा। इससे कश्मीर घाटी मुख्यधारा से लगातार कटती गई और वहां अलगाववादी जड़ें जमाने लगें। इन्हीं अलगाववादियों ने बाद में आतंकवाद की पैरवी शुरू कर दी।
भाजपा अपने जनसंघ काल से ही अनुच्छेद 370 का विरोध करती आ रही थी, क्योंकि वह भेदभाव का जनक था और जम्मू-कश्मीर को मुख्यधारा में लाने में बाधक था। इसे अन्य राजनीतिक दल भी समझ रहे थे, लेकिन संकीर्ण राजनीतिक कारणों से वे ऐसा कहने से बचते थे, जबकि भाजपा के हर घोषणा पत्र में यह उल्लेख होता था कि समय आने पर इस अनुच्छेद को हटाया जाएगा। आखिरकार यह समय 5 अगस्त 2019 को आया, जब इस अनुच्छेद को निरस्त किया गया, तब कांग्रेस सहित कई दलों ने मोदी सरकार को आड़े हाथों लिया। विश्व के कुछ देशों ने भी इस पर आपत्ति जताई, लेकिन मोदी सरकार अपने निर्णय पर अडिग रही और उसे भारत का अंदरूनी मामला बताती रही। अंतत: विश्व को भी यह समझ आया कि यह वास्तव में भारत का आंतरिक मामला है। माना यह जा रहा था कि अनुच्छेद 370 हटाने के बाद कश्मीर में अराजकता फैलेगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।  
सच तो यह है कि पिछले डेढ़ वर्ष में वहां हालात इतनी तेजी से बदले कि फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती की भागीदारी वाले गुपकार गठबंधन को भी अपनी सोच बदलने के लिए विवश होना पड़ा। पिछले दिनों वे प्रधानमंत्री की ओर से बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में जिस आतुरता से शामिल हुए, वह कश्मीर के बदले हुए माहौल का ही नतीजा है। इस सर्वदलीय बैठक में प्रमुख कश्मीरी नेताओं में से महबूबा मुफ्ती ने ही अनुच्छेद 370 की वापसी की मांग की, बाकी ने इस मसले को न उठाना ही बेहतर समझा। 
प्रधानमंत्री के आवास पर सर्वदलीय बैठक जैसे माहौल में हुई, वह मोदी सरकार की कामयाबी का परिचायक है। इस माहौल के लिए मोदी सरकार की ओर से जम्मू-कश्मीर में उठाए गए तमाम कदम जिम्मेदार हैं। सबसे पहले तो आतंकवाद पर लगाम लगाई गई और फिर माहौल ठीक देखकर जिला विकास परिषद के चुनाव कराए गए। इसके साथ ही वहां विकास के कई काम शुरू किए गए और वे अनेक फैसले लागू किए गए, जो अनुच्छेद 370 के कारण अमल में नहीं आ पा रहे थे। केंद्र सरकार ने अपने कदमों के जरिये वहां की जनता को यह आभास भी कराया कि वह उसके हितों की रक्षक है और शांतिपूर्ण माहौल में लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुरू करने को तैयार है। 
सर्वदलीय बैठक में जम्मू-कश्मीर में जल्द चुनाव कराने और राज्य का दर्जा बहाल करने की जो मांग हुई, उससे मोदी सरकार को कोई परेशानी नहीं। सच तो यह है कि खुद मोदी सरकार भी चुनाव कराना चाहती है। वह यह आश्वासन भी दे रही है कि हालात सुधरने पर राज्य के दर्जे को बहाल कर दिया जाएगा। 
जब अनुच्छेद 370 को हटाया गया था तो न केवल यह कहा गया था कि हिंदूवादी मोदी सरकार कश्मीर के मुसलमानों को दबाना चाहती है, बल्कि यह भी कि वह देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की दिशा में कदम बढ़ा रही है। अब इन सारे मिथ्या आरोपों की हवा निकल गई, क्योंकि मोदी सरकार जम्मू-कश्मीर के लोकतांत्रिक अधिकार देने को भी तैयार है और पूर्ण राज्य के उसके दर्जे को बहाल करने को भी। यह सब दर्शाकर मोदी सरकार न केवल अपनी राजनीतिक सूझबूझ और दूरदर्शिता का परिचय दे रही है, बल्कि भविष्य की रूपरेखा भी सामने रख रही है। उसकी यह राजनीतिक सूझबूझ उसकी साख बढ़ाने और विरोधी दलों के इस दुष्प्रचार की हवा निकालने वाली है कि वह जम्मू-कश्मीर को मनमाने तरीके से चलाना चाहती है। अब जहां कश्मीर की जनता को भी यह समझ आ रहा है कि अनुच्छेद 370 उनके हितों की रक्षा में सहायक नहीं था, वहीं पाकिस्तान को भी यह पता चल रहा है कि उसे कश्मीर में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं। शायद पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के लोग भी इस नतीजे पर पहुंचने के लिए बाध्य होंगे कि भारत अपने हिस्से वाले कश्मीर का कहीं अधिक प्रतिबद्धता से विकास कर रहा है।
 ऐसे में यह जरूरी है कि महबूबा मुफ्ती जैसे नेता पाकिस्तान का राग अलापने के बजाय जमीनी हकीकत को समझें।
370 का मामला उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन

फिलहाल 370 का मामला उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन है। वहां फैसला जो भी हो, इसके आसार कम हैं कि उसकी वापसी हो सकेगी, क्योंकि किसी अस्थायी अनुच्छेद को स्थायी रूप देना न तो न्यायसंगत है और न ही संविधानसम्मत। शायद यही कारण रहा कि सर्वदलीय बैठक में यह सहमति बनती दिखी कि जम्मू-कश्मीर में परिसीमन के बाद विधानसभा चुनाव कराए जाने चाहिए। पहले गुपकार गठबंधन के नेता परिसीमन की पहल का विरोध कर रहे थे, लेकिन अब वे उसमें मददगार बनते दिख रहे हैं।

मोदी सरकार परिसीमन के बाद जम्मू-कश्मीर में चुनाव कराने के लिए प्रतिबद्ध

माना जा रहा है कि परिसीमन की प्रक्रिया जम्मू और कश्मीर में असंतुलन को दूर करने का काम करेगी। मोदी सरकार परिसीमन बाद जम्मू-कश्मीर में चुनाव कराने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाकर न केवल देश को, बल्कि दुनिया को यह संदेश देना चाहती है कि उसका इरादा इस राज्य को मुख्यधारा में लाना है, न कि आतंकवाद का हवाला देकर उसे केंद्रशासित प्रदेश बनाए रखना या फिर उस पर परोक्ष रूप से शासन करना।