
अहमदाबाद। महामंगलकारी मनुष्य जन्म को पाकर सौभाग्यशाली आत्माएं जिन्होंने जैन धर्म को पाया है वे आत्माएं अपने अन्य सभी कार्य को गौण करके एक ही कार्य को मुख्य मानते है वह है जिनवाणी का। एक ही कार्य को मुख्य मानते हैं वह है जिनवाणी का श्रवण। जिनवाणी के श्रवण से हर क्षण नव्यता एवं भव्यता आती है। जमीन के अंदर किसी ने बीज बोया, धीरे-धीरे अंकुर निकले। कोमल पत्ते आए। डालियां आई। योग्य समय पर पुष्प आए और आखिर में फल से वृक्ष भर गया। सृष्टि का यह महान अंकुर विकास को पाया इसी तरह।
अहमदाबाद में बिराजित प्रखर प्रवचनकार, संत मनीषि, गच्छाधिपति प.पू.आ. देव राजयश सूरीश्वरजी महाराजा श्रोताजनों को संबोधित करते हुए फरमाते हैं हमारे जीवन का विकास भी प्रतिक्षण प्रतिपल होना ही चाहिए। कहते है, इस विकास के लिए महापुरुष का संग एवं जिनवाणी का श्रवण जरूरी है। महापुरुषों का सत्यंग एवं जिनवाणी का श्रवण हमारे जीवन में होगा तो हम वृक्ष की तरह प्रतिक्षण वृद्धि को पाएंगे।
उत्तराध्ययन सूत्र की मनोहरी वाणी हमारे दिल को स्पर्श कर जाती है। शास्त्रकार महर्षि ने फरमाया हमारे पास महान शास्त्रों के साथ साथ महान शक्ति भी है। वह है मन की शक्ति वचन की शक्ति एवं काया की शक्ति। कहते है मन-वचन एवं काया की शक्ति एक ऐसे प्रकार का शस्त्र है जो मारने का काम भी करता है तथा तारने का काम भी करता है। संकल्प तथा विकल्प में फंसा हुआ मन जब मनोगुप्ति का मालिक बनता है तब मन को नियंत्रण में लाया है। मन को इस तरह से नियंत्रण में लाना है कि दूसरा किसी प्रकार का विचार ही न आए। विश्व को जिस प्रकार से चलना है वह तो अपना काम करता रहेगा हमें हमारी आत्म शक्ति का विकास करना है। आत्म शक्ति के विकास के लिए जो हमेशा तत्पर रहता है वहीं अपनी मन शक्ति का कंट्रोल कर सकता है। मन को वश में करने से कर्मो का नाश होता है। इन मन शक्ति के कंट्रोल से कितनों का जीवन पावन हो गया है। एक सुंदर दृष्टांत है प्रसन्न चंद्र राजर्षि काउसग्ग ध्यान में स्थिर खड़े है उसी समय दो सैनिक उस स्थान से पसार होकर प्रसन्नचंद्र राजर्षि पर पड़ा एवं मन में बूरे विचार आने लगे यहां तक कि उन विचारों से उन्होंने सातवीं नरक का आयुष्य बांधा कुछ ही श्रणों के बाद परिवर्तन। राजर्षि के मन में आया अरे मैं साधु होकर इतने बूरे विचार किए पश्चाताप करते हुए केवलज्ञान की प्राप्ति हुई इस ओर श्रेणिक राजा भगवान से पूछ रहे थे कि राजर्षि यहां से मृत्यु पाकर कहां जाएगे? तब भगवान ने जवाब दिया थ सातवीं नरक लेकिन राजर्षि ने मनोगुप्ति को वश में किया तो केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। ये मनोगुप्ति शस्त्र हमें कर्मों के साथ लड़ता रहता है तथा वश में रखने से कर्मों का संहार भी करता है।पूज्यश्री फरमाते है मन को अच्छी तरह से तालीम देने के लिए सोलह भावनाओं का निरंतर ध्यान धरते रहना है तभी मन गुप्ति में आएगा। मन के शस्त्र से हमें नुकसान भी है फायदे भी होते है।
दूसरा शस्त्र वचन का शस्त्र है। वचन के शस्त्र से स्वयं को नुकसान कम हो सकताहै लेकिन ओरों के लिए नुकसान कारी है. हमें बोलने की शक्ति मिली है किसलिए किसी का खराब बोलता? किसलिए सावध वचन बोलना? आपसे पाप हो भी गया हो तो कभी भी पाप की अनुमोदना नहीं करना। परिवार समाज देश एवं दुनिया को भी इस पाप में नहीं जोडऩा। कहते है, वचन शक्ति के दुरूपयोग से एक शक्ति पूरी दुनिया को उल्टे मार्ग में चला सकती है। कोई भी वचन बोलते वक्त ध्यान रखना आपका वचन स्व पर के कल्याण के लिए हो सभी को प्रिय लगे ऐसा हो किसी जीव का नुकसान न हो। हरेक आत्मा को शांति मिले ऐसे मधुर वचन हो। किसी ने कहां है, काग किसी का धन न हरे कौआ किसी का धन नहीं चुराता फिर भी लोग जैसे ही वह किसी के घर की छत्त पर बैठता है लोग उसे उड़ा देते है। कोयल किसी को न दे कोयल किसी को कुछ देती नहीं मगर उसके मीठे स्वर को लोग सुनने के लिए लालायित हो जाते है। खराब स्वर से शत्रु बनते है तथा अच्छे आवाज से मित्र। वचन बोलो तो ऐसे कि आप पूरी दुनिया पर साम्राज्य चला सके।अब बात आई कायगुप्ति की। वचन से भी ज्यादा काया की शक्ति कम है। पहले आदमी हाथ में लकड़ी रखता था अब हाथ में बाण रखने लगा है ऐसे ऐसे शस्त्र बन रहे है जिस शस्त्र से लोगों का सर्वनाश हो रहा है। परमात्मा की नव अंग की पूजा की स्तुति बोलते वक्त प्रार्थना करना मेरी काया अमृतमय बनें।
बस इन मन-वचन एवं काया के शस्त्र से सुंदर भावों का प्रकटीकरण हो, संयम की आराधना हो वचन की शुद्धि हो, पाप का निरोध हो तथा पाप के आश्रवों आते हुए बंद हो तथा इन शस्त्रों को काबू में रखकर शीघ्र मोक्ष की प्राप्ति हो यही शुभाभिलाष।