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पूरी दुनिया में आज की सबसे बड़ी पर्यावरणीय चर्चा का अहम हिस्सा विकसित एवं विकासशील देशों की बढ़ती सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की दर है. बेहतर होती जीडीपी का सीधा मतलब उद्योगों की वृद्धि के साथ ऊर्जा की बढ़ती खपत का पर्यावरण पर प्रतिकूल असर है। ऐसे विकास का सीधा प्रभाव जीवनशैली पर पड़ता है। आरामदेह वस्तुएं आवश्यकताएं बनती जा रही हैं। कार, एसी व अन्य वस्तुएं ऊर्जा की खपत पर दबाव बनाती जा रही हैं।
सच तो यह है कि अच्छी जीडीपी एवं विलासिता का लाभ दुनिया में बहुत से लोगों के हिस्से में नहीं आता है, पर इसकी कीमत सबको चुकानी पड़ रही है। भारत जैसे विकासशील देश में जीडीपी की बढ़ती दर 85 प्रतिशत लोगों के लिए कोई मायने नहीं रखती। वर्तमान जीडीपी अस्थिर विकास का सामूहिक सूचक है। इसमें केवल उद्योगों, ढांचागत बुनियादी एवं आंशिक खेती को विकास का सूचक माना जाता है। इसमें खेती को छोड़कर बाकी सभी सूचक समाज के एक खास हिस्से का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। यह भी सच है कि वर्तमान जीडीपी 85 प्रतिशत लोगों का सीधा नुकसान भी कर रही है। बढ़ते औद्योगिकीकरण के दबाव के फलस्वरूप प्रत्यक्ष रूप से दो प्रकार की भ्रांतियां पैदा हुई हैं। पहला तो जीडीपी को ही संपूर्ण विकास का विकल्प समझा जा रहा है और इसकी आड़ में जीवन से जुड़े हवा, पानी, मिट्टी के लेखा-जोखा को लगातार नकारा जा रहा है।
विगत दो दशकों में दुनिया की बढ़ती जीडीपी की सबसे बड़ी मार पर्यावरण- हवा, पानी, एवं जंगलों की स्थिति पर पड़ी है। इसका परिणाम आज मौसम बदलाव, ग्लोबल वार्मिंग, सूखती नदियां, उजड़ती उपजाऊ मिट्टी आदि के रूप में सामने है। व्यापारीकरण की सभ्यता ने इस अवसर को भी नहीं छोड़ा, जिससे क्षीण होते प्राकृतिक संसाधनों की हालत और बिगड़ती चली गयी। शायद ही किसी ने सोचा था कि बंद बोतलों में भी कभी पानी बिकेगा। प्रकृति प्रदत्त यह संसाधन बोतलों में बंद न होकर नदी, नालों, कुंओं व झरनों में होता, तो प्राकृतिक चक्र पर इसका विपरीत प्रभाव न पड़ता। रासायनिक खादों के बढ़ते प्रचलन ने जहां उपजाऊ मिट्टी की गुणवत्ता पर असर डाला है, वहीं प्राकृतिक रूप से उगनेवाली वानस्पतिक संपदा पर भी इनका विपरीत प्रभाव पड़ा है। वनों के अंधाधुंध एवं अवैज्ञानिक दोहन से अपने घर-बाहर को सजाने की विलासितापूर्ण सभ्यता ने जीवन को कई तरह की मुसीबतों में डाल दिया है। इसकी गंभीरता पर राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न चर्चाओं में चिंता जतायी गयी है और इसके लिए बढ़ती जीडीपी को भी जिम्मेदार समझा गया है। जीडीपी को ही हर देश अपने विकास का मापदंड समझता है। विकसित देश विकासशील देशों की बढ़ती जीडीपी से चिंतित हैं क्योंकि इसका सीधा संबंध कार्बन उत्सर्जन से है। विकासशील देश विकसित देशों के खिलाफ लामबंदी कर अपना विकास करना चाहते हैं। पर्यावरण की आड़ में आर्थिक समृद्धि की लड़ाई लड़ी जा रही है। अगर जीडीपी के सापेक्ष जीवन की आवश्यकताओं को भी महत्व दिया जाये, तो मानव जीवन के संकट का प्रश्न कभी खड़ा नहीं होगा। नदियों ने लगातार अपना पानी खोया है, चाहे वे बरसाती नदी हों या हिम नदियां। इसका सबसे बड़ा कारण नदियों के जलागम क्षेत्रों का वन-विहीन होना है। गत दशकों से देश में पानी का संकट गहराता जा रहा है। पानी की बढ़ती खपत भी चिंता का विषय है। पिछले कई दशकों से मिट्टी की जगह रसायनों ने ली है। मनुष्य भोजन कम व रसायनों का ज्यादा उपयोग करने को विवश है। कल-कारखानों, गाडिय़ों, एयर कंडिशनरों के उत्सर्जन ने प्राणवायु के गुणों पर प्रतिकूल असर डाला है।


महानगरों में लगे डिजिटल डिस्पले बोर्ड हर पल विषैले गैसों की वर्तमान स्थिति का खुलासा करते हैं। इस तरह का विकास, जो आवश्यक संसाधनों की अनदेखी कर अन्य दिशा में कुठाराघात कर रहा हो, को हम अपना लक्ष्य मान बैठे हैं। देश के 15 प्रतिशत लोग ही तथाकथित जीडीपी के आंकड़ों से लाभान्वित हो रहे हैं। इसे सराहा नहीं जा सकता।

हमारे देश के 45 प्रतिशत लोग आज भी कई मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित हैं। उनके पास रहने के लिए न घर है, न बिजली, न शौचालय और न ही रोजगार। दिन-प्रतिदिन बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। आम आदमी का सीधा संबंध रोटी, कपड़ा, हवा, पानी, बिजली व रोजगार से है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि भौगोलिक परिस्थितिवश एवं यातायात के साधनों से अलग-थलग पड़े गांवों का चूल्हा-चौका भी प्रकृति की ही कृपा पर निर्भर है। दुनिया में अब भी गांवों की आर्थिकी का आधार वहां उपलब्ध संसाधनों की स्थिति से आंका जाता है।

घास, जलाऊ लकड़ी, वनोत्पादन, पानी, पशुपालन, कृषि आदि का सीधा संबंध प्रकृति से है। बढ़ती जीडीपी से इनका कोई लेना-देना नहीं है। एकतरफा आर्थिक विकास के प्रतिकूल प्रभाव से जो गांव अपने प्राकृतिक उत्पादों की निर्भरता से जिंदा थे, वे आज अपने अस्तित्व के लिये जूझ रहे हैं। प्राकृतिक उत्पादों की कमी का प्रभाव देश एवं विश्व की पारिस्थितिकी पर भी पड़ा है।

ऐसे में आवश्यक हो जाता है कि विकास की परिभाषा मात्र उद्योगों, ढांचागत बुनियादी विकास व सेवा क्षेत्र के अलावा जीवन से जुड़े अति आवश्यक संसाधनों की प्रगति से भी जुड़ी होनी चाहिए। इसमें आर्थिकी के अलावा पारिस्थितिक संतुलन बनाये रखने के मापदंड भी तय होने चाहिए। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के साथ-साथ सकल पर्यावरण उत्पाद (जीईपी) का भी विकास में समानांतर उल्लेख होना आवश्यक है।

बढ़ते जीडीपी के साथ बढ़ती जीईपी संतुलित विकास को मजबूती प्रदान करेगी। यह सारी दुनिया के लिए आवश्यक है कि वे जीडीपी के साथ जीईपी की भी पैरवी कर अपने संतुलित विकास की चिंता करें, अन्यथा जीडीपी एवं जीईपी का बढ़ता अंतर दुनिया के असंतुलित विकास का सबसे बड़ा कारक होगा। अब इस तरह की चर्चा देश एवं संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलनों में होनी निहायत जरूरी है। जीईपी के आंकड़ों में देश में प्रतिवर्ष वनों की वृद्धि, मिट्टी क्षरण के रोकथाम के प्रयत्न, मात्रा, वर्षा के पानी का संरक्षण व पानी, हवा के शुद्धीकरण के प्रयत्नों को भी दर्शाना जरूरी होगा।

इसके सफल क्रियान्वयन के लिए देश व राज्यों में विभागीय स्तर पर जिम्मेदारी निर्धारित है, जो सांख्यिकी विभाग के साथ जीईपी का आंकड़ा तैयार करने में सहायक होगी। मात्र जीडीपी के साथ अब हम और ज्यादा समय सुखी नहीं रह सकते। जीईपी वर्तमान समय की आवश्यकता है। घटती-बढती व स्थिर जीईपी ही अंधाधुंध बढ़ती जीडीपी के विकास को सही आईना दिखा सकती है।