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हर्ष वी पंत 
चीन के दिनोंदिन उभार के कारण वैश्विक ढांचे में उथल-पुथल जारी है। जब भी बड़ी शक्तियों का उदय या अस्त होता है तब ऐसी हलचल स्वाभाविक है, लेकिन मौजूदा मामले में दिलचस्प यह है कि उसमें आमसहमति एक सिरे से दूसरे सिरे की ओर केंद्रित हो रही है। पिछले वर्ष की शुरुआत तक पश्चिमी देशों में नीति नियंता आश्वस्त थे कि बीजिंग के साथ कडिय़ां जोडऩे के अलावा कोई और विकल्प नहीं। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के चीन को लेकर कड़े रुख का वे उपहास उड़ाया करते थे। अब ट्रंप की वे कोशिशें आखिर कामयाब होती दिख रही हैं, जिसमें वह कोविड-19 के लिए चीन पर निशाना साधते थे। शायद वह पड़ाव आ गया है, जब दुनिया यह महसूस कर रही है कि महामारी के लिए चीन से जवाब तलब किया जाए। यकायक सर्वसम्मति की दिशा बदल गई। जानकार अब चीन-अमेरिका के बीच संघर्ष के आसार तक देखने लगे हैं। अतीत में संवाद की बात करने वालों के आकलन बदल रहे हैं।
जी-7 या नाटो के मंच के निशाने पर चीन
कुछ जानकार मान रहे थे कि बाइडन प्रशासन चीन को लेकर संभवत: ट्रंप पूर्व दौर के स्तर पर जाएगा, लेकिन अमेरिका-चीन संबंधों के मामले में इसका उलटा ही दिख रहा है। चाहे जी-7 समूह हो या नाटो का मंच, सभी के निशाने पर अभी चीन है। दो साल पहले तक ऐसी स्थिति की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। आखिर पश्चिम की नींद टूट ही गई। अमेरिका और यूरोप, दोनों को दशकों तक चीन की अनदेखी करने की कीमत महसूस होने लगी है। पश्चिमी देशों में अब चीन को लेकर पुरानी नीतियों पर गंभीरता से पुनर्विचार किया जा रहा है। चीन के मसले पर समान विचारधारा वाले देशों में तत्परता की भावना भी बलवती हुई है। इसी कड़ी र्में ंहद-प्रशांत क्षेत्र में शक्ति संतुलन के लिहाज से भारत वैश्विक आकर्षण की धुरी के रूप में उभरा है।
 जहां दुनिया भर के नीति-नियंता भारत को साधने की आवश्यकता महसूस कर रहे हैं, वहीं वैश्विक मीडिया के एक वर्ग में बड़ी अजीबोगरीब दलील दी जा रही है, जिसमें नए वैश्विक संतुलन की खोज में भारत को कथित कमजोर कड़ी बताया जा रहा है। यह धारणा कोविड की दूसरी लहर से निपटने में भारत की नाकामी पर आधारित है, जिसने भारतीय राज्य की अक्षमताओं को उजागर किया। यह दलील एक ऐसे दौर में प्रचारित की जा रही है, जब भारत वास्तव में उन सबसे मुखर आवाजों में से एक के रूप में उभरा है, जो चीन से द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर जिम्मेदारी से पेश आने की मांग कर रही हैं। यह अचानक ही घटित नहीं हुआ है, बल्कि कई वर्षों से उसकी पूर्वपीठिका तैयार हुई है। चीनी आक्रामकता के खिलाफ नीतिगत सर्वसम्मति में नई दिल्ली की भूमिका को अनदेखा करने वालों का रुख भारत की क्षमताओं की जानकारी से कम इस बात को अधिक इंगित करता है कि या तो उन्हें भारत की चीन नीति के बारे में नहीं मालूम या फिर वे हालिया वैश्विक रुझानों से अनभिज्ञ हैं। 
कोविड की दूसरी लहर से निपटने में भारत की मुश्किलों में कुछ भी नया नहीं है। जब भी भारत के उदय की बात आती है तो उसमें देश की क्षमताओं का अभाव हमेशा से एक अवरोध रहा है, लेकिन बीते कुछ महीनों से चीजें बहुत बदली हैं। भारत ने दिखाया है कि आपदाओं से निपटने में उसकी क्षमताएं बेहतर हो रही हैं। उसने कोविड की पहली लहर का कई विकसित देशों के मुकाबले कहीं बेहतर तरीके से सामना किया। फिर दूसरी लहर को भी काफी कम समय में काबू कर लिया। वास्तव में भारत का प्रदर्शन तो उन चुनौतियों के बीच होना चाहिए, जिसका सामना बेहतर स्वास्थ्य ढांचे वाले देश अभी भी कर रहे हैं। 
जबसे दूसरी लहर ने भारत में दस्तक दी तबसे वैश्विक और भारतीय बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने कहना शुरू कर दिया कि अब तो भारत की कहानी खत्म। इस विमर्श में इस पहलू को अनदेखा किया गया कि पिछले डेढ़ साल से भारत जहां एक ओर महामारी से निपट रहा है वहीं दूसरी ओर उसने सीमा पर चीनी आक्रामकता को जवाब दिया। जब महामारी से निपटने को लेकर अमेरिका जैसे दिग्गज देश अपने देश से बाहर नहीं देख पा रहे थे तब भारत उससे जुड़े वैश्विक विमर्श के केंद्र में था। साथ ही साथ अपनी सीमा पर चीनी सैनिकों को मुंहतोड़ जवाब देने में भी लगा था। 
चीन के खिलाफ भारत का कड़ा रुख पिछले कुछ अर्से से भारतीय सामरिक भाव-भंगिमा का अहम भाग रहा है। यहां तक कि जब पश्चिम बीजिंग से गलबहियां करने में लगा था, उस दौरान भी नई दिल्ली कई मोर्चों पर चीन को चुनौती देने में जुटी थी। भारत ही दुनिया का पहला बड़ा देश था जिसने शी चिनफिंग की महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव परियोजना को हिंसक एवं आक्रामक परियोजना करार देकर उसका विरोध किया था। भारत की आलोचना आज इस परियोजना को लेकर वैश्विक सहमति का हिस्सा बन गई है। इसी तरह चीन के कड़े विरोध के बावजूद अगर हिंद-प्रशांत को व्यापक स्वीकृति मिली तो यह भारत के उत्साही प्रयासों के बिना संभव नहीं थी। यदि नई दिल्ली ने विदेश नीति विकल्पों को लेकर सोच स्पष्ट न की होती तो क्वाड की संकल्पना सिरे नहीं चढ़ पाती। 
स्पष्ट है कि भारत ने कई मोर्चों पर चीन को कड़ी चुनौती दी और महामारी का वैश्विक समाधान निकालने में दुनिया को दिशा भी दिखाई। नि:संदेह इसमें भारत के राष्ट्रीय हितों की महत्वपूर्ण भूमिका रही, परंतु उसने वैश्विक समुदाय को प्रेरित भी किया। जब विश्व की बड़ी शक्तियां चीन की चुनौती के खिलाफ एकजुट हो रही हैं तब उन्हें भारत के रूप में एक मजबूत और भरोसेमंद मित्र दिख रहा है। वैश्विक मीडिया के कुछ तबकों को भले ही यह असहज लगे, लेकिन विश्व की जो बड़ी शक्तियां, जिनका पहले से ही भारत की ओर झुकाव है, वे अवश्य उसे एक सम्मोहक साझेदार के रूप में देखती हैं। अपनी तमाम घरेलू चुनौतियों के बावजूद भारत चीन के खिलाफ खड़ा होकर एक वैश्विक लीडर के रूप में अपनी अपेक्षित भूमिका निभाने के लिए तत्पर है। यही इस दौर की हकीकत है। वैश्विक सामरिक समीकरणों को वह पहले से ही चुनौती दे रहा है। उभरते वैश्विक शक्ति संतुलन में इसका गहरा प्रभाव होगा। इस आकलन में भारत एक मजबूत कड़ी है, जो लगातार और मजबूत होती जाएगी।