अहमदाबाद। उत्तराध्ययन सूत्र एक महान सूत्र है। आज के अध्ययन का नाम सम्यक्त्व-पराक्रम। साधक किस बिन्दु से साधना प्रारंभ करें? संवेग से? धर्म श्रद्धा से? स्वाध्याय से? त्याग से? वगैरह तब जवाब मिलता है, किसी भी सम्यक् बिन्दु से प्रारंभ की हुई साधना साध्य को परम ऊंचाई को प्राप्त कराती है क्योंकि भीतर में साधना की जड़े प्रत्येक महानता से जुड़ी हुई है।
अहमदाबाद में बिराजित प्रखर प्रवचनकार संत मनीषि, गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयश सूरीश्वरजी महाराजा श्रोताजनों को संबोधित करते हुए फरमाते है इस अध्ययन में प्रश्नोत्तर की हारमाला है जिसका सुंदर जवाब भगवान महावीर स्वामी ने दिया है। इस एक एक प्रश्न के सुंदर जवाबों के ऊपर विचारणा करेंगे जीवन पावन बन जाएगा। उत्तराध्ययन सूत्र के पूरे अध्ययन में अनेक गुणों की बात बताई है मगर पराक्रम जैसा गुण का वर्णन तो सिर्फ इस अध्ययन में ही बताया है। सम्यक्त्व को पराक्रम बताया है शास्त्रों के मुताबिक जो हमें धर्ममहल बनाना है उस धर्म महल की नींव सम्यक्त्व है। एक सहज जिज्ञासा है कि संयम-स्वाध्याय त्याग संवेग, धर्म श्रद्धा आलोचना आदि से जीव को क्या प्राप्त होता है? इनके उद्देश्य क्या है? इस अध्ययन में इन विषयों से संबंधित 73 प्रश्न तथा उनके समाधान बताए है। प्राय: उत्तराध्ययन में चर्चित सभी विषयों पर प्रश्न है तथा प्रत्येक विषय की सूक्ष्म चिंतन के साथ गंभीर चर्चा की गई है प्रत्येक प्रश्न एवं उसका समाधान आध्यामिक भाव की दिशा में एक स्वतंत्र विषय है। प्रश्न छोटे है सूत्रात्मक है, उत्तर भी छोटे है किन्तु गंभीर वैज्ञानिक है।
प्रवचन की धारा को आगे बढ़ाते हुए पूज्यश्री फरमाते है हमारे दिमाग में कैसे कैसे आग्रह होते है कि दुनिया कैसी होनी चाहिए उस कल्पना को छोड़कर, तत्व कैसे है उसका स्वीकार हम करते है। हम हमारे मानसिक कल्पना से विश्व को अनादिकाल से आत्मा में कर्मों और कषाय लगे है एक चिंतक अथवा मुमुक्षु इसका बराबर ख्याल रखे तो संघर्ष करने जैसा है। पूर्ण मन एवं पूर्ण भावना से आत्मा की सुषुप्त शक्तिओं को वें यदि जागृत करे तो अवश्य सम्पूर्ण वातावरण ही बदल जाएगा। संवेग के बाद निर्वेद आता है पराक्रम जैसे ही आया धर्म श्रद्धा पैदा होती है। श्रद्धा के बगैर आत्मा में पराक्रम प्रकट नहीं होता है।
धर्म के लिए अनेकानेक लोग विवेचन करके बताते है वत्थु सहावो धर्म वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। धर्म के ऊपर जिनको श्राद्धा हो जाती है उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। साढ़े बारह वर्ष तक भगवान महावीर के जीवन में भयंकर से भयंकर उपसर्ग आए उन्होंने सहन किया। आत्मा यदि धर्म को अच्छी तरह से समझ जाए और उस धर्म पर यदि वह श्रद्धा करे तो कोई उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता है।
आपने खूब धंधा भी किया, नौकरी भी की सेवा भी की लक्ष्मी नहीं मिलती एक कहावत है साहसे वसते लक्ष्मी साहस करने से ही ल्क्ष्मी तुम्हारे पास टिककर रहती है। आज तक जिस दिशा में कभी गए नहीं, कभी उस दिशा का नायोनिशान सुना कभी गए नहीं और कोई कहे आपको उस दिशा में जाना है यदि आपमें साहस रहा तो आप उस दिशा में जाकर जरूर सफल बनोंगे। ऐसा साहस धर्म श्रद्धा से ही आता है। मुमुश्रु को कोई कितने भी प्रश्न करते है वे भी धर्म पर श्रद्धा रखने से ही साहस करके संयम पथ पर आगे बढ़े है।
शास्त्रकार महर्षि फरमाते है धर्म श्रद्धा से किस चीज की प्राप्ति होती है धर्म श्रद्धा से जीव सुख की प्राप्ति करता है। शांता वेदनीय से सुख की प्राप्ति होती है शांता तो शरीर को अनुकूल संयोग पैदा कराता है।
सुख का भास जहां होता है वहां मोहनीय कर्म का उदय है। मोहनीय कर्म का उदय शरीर को अनुकूल हो उस ओर ले जाता है जहां शांता मिले वहीं गति होती है। कहते है जिस खाज रोग हुआ है उसे खुजली बहुत आती है। एक भाई को खाज रोग हुआ वह खुजली कर रहा था अचानक उनकी दृष्टि सामने बैठे एक वृद्ध पर पड़ी। वह वृद्ध काली टोपी को ब्रश से साफ कर रहा था। उस टोपी पर लगा मेल उस ब्रश से साफ हुआ और वह टोपी उजली हो गई। भाई साहेब को विचार आया उस ब्रश को खुलजी करूं हो गई। भाई साहेब को विचार आया उस ब्रश को खुजली करूं तो वायद मेरा खाज चला जाएगा। इस उद्देश्य से उसने वृद्ध से ब्रश मांगा। वृद्ध ने कहां इस ब्रश को लेकर क्या करोंगे? तुम्हारे पास तो टोपी नहीं है। आग्रह करने पर वृद्ध ने उस भाई को अपना ब्रश दिया। भाई साहेब ब्रश से खुजली करने लगे। कुछ पल तक तो अच्छा लगा। दूसरी बार उस खाज पर ब्रश लगाया खून निकलने लगा। भाई साहेब चिल्लाने लगे तब वृद्ध ने कहां उस ब्रश से खुजली नहीं खाई जाती।
शास्त्रकार महर्षि फरमाते है आपको जो मोह पैदा हुआ, विषय सुख की वासना पैदा हुई वह दूसरा कुछ नहीं मन में पैदा हुआ खाज रोग है। धर्म के ऊपर जिसे श्रद्धा है उसका जीवन शांता एवं सुख से भरा है शांता एवं सुख के बीच में भी कितने को वैराग्य आता है। संवेग एवं निर्वेद को जिन्होंने समझा है ऐसे कितने व्यक्ति सुख से विरक्त बने हुए सोचते है यदि मुझे अच्छी तरह से जीवन जीना है तो मैं किसी को है यदि मुझे अच्छी तरह से जीवन जीना है तो मैं किसी को दु:ख नहीं पहुंचाऊंगा। सच्चे सुख का वैरागी श्रमण धर्म साधु धर्म की ओर आगे बढ़ता है। साधु में मान मिले मुस्कुराते नहीं अपमान मिले घबडाना नहीं। आत्मा में मान मिले प्रकट हो उसके लिए प्रयत्न करना है। जितने महापुरूषों भूतकाल में हो गए उन सबके जीवन से यही सार लेना है धर्म पर श्रद्धा रखोंगे सम्यक्त्व आएगा। सम्यक्त्व आने के साथही पराक्रम आएगा बस इस पराक्रम से जीवन सफल बनाकर शीघ्र आत्मा से परमात्मा बनें।
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