पंडित बिरजू महाराज, प्रसिद्ध नृत्य गुरु
भारत और भारतीय कलाओं से भगवान श्रीकृष्ण का बहुत गहरा सरोकार है। यह पवित्र कलात्मक सरोकार या संबंध आध्यात्मिक भी है और व्यावहारिक भी। वाद्य यंत्रों की बात करें, तो भी श्रीकृष्ण ही आधार हैं। अगर बांसुरी की एक वाद्य के रूप में शुरुआत हुई, तो उन्हीं से हुई। 64 कलाओं के देवता कहलाने वाले कृष्ण की बांसुरी से खूब संगीत प्रवाहित-प्रसारित हुआ। संगीत के साथ ही नृत्य से भी वह गहरे जुड़े थे। यह सुविदित है कि उनके प्रेम-भक्ति पूर्ण महारास में संगीत और नृत्य, दोनों की प्रधानता थी। शास्त्र बताते हैं कि कृष्ण के सौजन्य से ही पूरे ब्रज में संगीत-नृत्य की गूंज उठती थी और आज भी उठती है।
ब्रज के कन्हैया का संबंध भारतीय कलाओं से बहुत लंबे समय से चला आ रहा है और ऋषि-मुनियों ने भी इसे पूरे भक्ति भाव से आगे बढ़ाया। ऋषि-मुनि जब श्रीकृष्ण का ध्यान करते थे, तब गाने-नाचने को स्वत: प्रेरित हो जाते थे। श्रीकृष्ण की प्रेमपगी छाया में ही संगीत, नृत्य के अनेक पद-ग्रंथ रचे गए। बाद में सूरदास जैसे कवि हुए, जिन्होंने कृष्ण की महिमा में एक से एक पद लिखे। उनकी रचनाओं में कृष्ण के मोहक बालरूप और वृंदावन की कुंज गलियन की चर्चा बड़ी खूबसूरती से होती है। सूरदास अपनी रचनाओं में श्रीकृष्ण के प्रेरक स्वरूप को साकार कर देते हैं।
सर्वज्ञात है कि हमारी परंपरा में या तो श्रीकृष्ण ने नृत्य किया या महादेव शिव ने। पुराणों के समय से इन दोनों देवताओं को नर्तक नाम से भी पुकारा जाता है। यह संभव है कि श्रीकृष्ण को शिवजी से ही संगीत-नृत्य का ज्ञान मिला हो। श्रीकृष्ण ने आम जनमानस को लुभाने के लिए बहुत सहजता से अपने कला ज्ञान का प्रयोग किया।
कला जगत कृष्ण के बिना अधूरा है और विशेष रूप से कथक नृत्य और कृष्ण का प्रगाढ़ संबंध है। हमारे इष्टदेव कृष्ण ही हैं। बहुत पुराने समय से हम लोग उनकी पूजा करते आ रहे हैं। पूजा की यह विधि आज भी वही है। हम आज भी श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर पूरे भक्ति भाव से उनकी पूजा करते हैं। समय बदल गया, पहले लखनऊ में, मुझे याद है, मेरे यहां बहुत धूमधाम से श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का आयोजन होता था। आज जन्माष्टमी को भले एक दिन तक समेट लिया गया हो, लेकिन पहले मेरे शहर लखनऊ में ही आयोजन छह दिन तक निरंतर चलता था। रोज पंडित जी के साथ मिलकर हम बहुत भावपूर्ण पूजा करते थे।
आयोजन में बड़े-बड़े कलाकार, संगीतकार, नर्तक आते थे और अपनी प्रस्तुति भी देते थे। श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम दर्शाने के लिए ही वह कार्यक्रम होता था। मेरे पिता, दादा की खूब व्यस्तता हो जाती थी, छह दिन तक केवल श्रीकृष्ण उत्सव की धूम रहती थी। जो भी आयोजन में आता, खाली हाथ नहीं जाता, साथ में चावल, आटा, दाल, घी इत्यादि ले जाता था। बाहर से जो कलाकार देखने आते थे, उन्हें भी वहां गाना-बजाना करना पड़ता था। याद है, बड़े-बड़े कलाकार आते थे, लेकिन अब वह आयोजन नहीं रहा। तब हम कलाकारों को श्रीकृष्ण ही परस्पर जोड़ने का काम करते थे। बाबा उस आयोजन में खुद ही सबकी सेवा करते थे, बर्तन तक मांजते थे। भाव ऐसा होता था, मानो सचमुच भगवान ने बाल रूप में अवतार ले लिया हो। लखनऊ छूट गया। दिल्ली रहने लगा। मेरी बड़ी इच्छा है कि फिर से लखनऊ में कुछ कर सकूं।
कथक नृत्य ही नहीं, भारत में जो अन्य शास्त्रीय नृत्य शैलियां हैं, उनमें भी कृष्ण के महत्व को माना गया है। हम कलाकार दक्षिण के हों या उत्तर के या पूरब के, कृष्ण की गाथाओं का प्रदर्शन और गायन हरेक ने किया है। अपनी-अपनी भाषा में सब गाते रहे हैं, लेकिन कृष्ण को कोई भुला नहीं पाया। कृष्ण की चर्चा और उनके प्रसंग पूरे कला जगत में विद्यमान हैं। त्यागराज जी ने भी कृष्ण को देखा, मीरा ने भी देखा, सूरदास ने देखा, हर किसी ने अपनी दृष्टि से कृष्ण प्रेम को समृद्ध किया। यहां तक कि मुसलमान भक्तों-कवियों ने भी कृष्ण के प्रेम में बड़े सुंदर पद कहे। अपने देश में गंगा-जमुनी तहजीब रही है और सब इसमें समान रूप से भागीदार रहे हैं।
पहले जिस तरह से जन्माष्टमी मनाई जाती थी, उसमें फर्क आया है। अब आयोजन छोटे होते हैं, लेकिन पूजा की विधियां वही हैं, जो सदियों पहले थीं। हम लोग अभी भी मानते हैं, छठी के दिन तो विशेष आयोजन रहता है। पकवान बनते हैं, सौंठ के लड्डू भी बनते हैं। पहले ये लड्डू खूब बनते और बंटते थे, लेकिन अब सगुन भर के लिए थोड़े बना लिए जाते हैं। पुराने लखनऊ में कृष्ण की मान्यता आज भी बहुत है। पहले के दौर में भी मथुरा, वृंदावन में खूब कार्यक्रम होते थे और आज भी होते हैं। वहां कृष्ण को समर्पित अनेक कलाकार मंडलियां हैं। भारतीय विद्याओं और भारत को श्रीकृष्ण से अलग करके नहीं देखा जा सकता। वह हर जगह हैं।
श्रीकृष्ण को निहारते, उनसे सीखते, उनको अपने अभिनय-नृत्य में उतारने की कोशिश करते मुझे इतना समय हो गया। अक्सर मैं तैयार होकर जब खड़ा होता हूं, तो सोचता हूं, हे भगवान, अब मुझे नचाओ। उनसे सीखने को अभी कितना कुछ है। आज लोगों और विशेष रूप से युवाओं को मेरा यही संदेश है कि कृष्ण का जो पूरा जीवन बीता है, उसका अवश्य ध्यान करें। भगवान ने अपने जीवन में बहुत छोटी उम्र में ही कितने बड़े-बड़े कार्य किए थे। जीवन में निरंतर संघर्ष करते रहे, जूझते रहे, लेकिन सदा मुस्कराते रहे। अपने माता-पिता को कैद से सुरक्षित छुड़ा लिया। सबको सुख दिया। सबके दुख को काटा। कालिया नाग सहित न जाने कितने असुरों को मार्ग से हटाया, ब्रज के लोगों को सुरक्षित किया। कृष्ण को अपने ध्यान में जरूर लाना चाहिए। हमारे बीच कृष्ण की ऐसी मनमोहक मूर्ति है कि उन्हें देखने मात्र से ही सबको सुख मिलता है। उनका आनंद लेना हो, तो शांत भाव से उनके सामने बैठ जाओ और उनकी महिमा व चरित्र को याद करो। उन्हें पढ़ो, समझो, तो शक्ति मिलेगी और सुख होगा।
(ये लेखक के अपने निजी विचार हैं)