अहमदाबाद। भारत देश एक संस्कृति प्रधान देश है। जहां संस्कृति के लिए मातृ देवो भव पितृ देवो भव गुरूदेवो भव अतिथि देवो अब आदि सूत्र बोले जाते है सिखाये जाते है। आर्यावर्त संस्कृति को अपनाने के लिए अपने भारत देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी जब इलेक्शन में जीते तब सर्वप्रथम उनके उपकारी माता के चरण स्पर्श करने गये।
ऐसे जीवनदात्री-संस्कारदात्री माता के उपकारों का वर्णन करते हुए प्रभावक प्रवचनकार, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयश सूरीश्वरजी म.सा. फरमाते हैं कि जनी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी अर्थात माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी अधिक महत्वपूर्ण है। इसलिए माता के प्रति सदैव अहोभाव-आदरभाव तथा कृतज्ञभाव रखना चाहिए। इसका कारण भी यही कि यदि अपने के कोई सुई जितनी छोटी चीज देकर कहे कि इसे एक मिनिट भी अपने से दूर मत करना तो वह अपने लिए असंभव होता है। तो जिस मां ने अपनी संतान को नौ-नौ महीनों तक खुद की कुक्षि में धारण किया केवल इतना ही नहीं साथ में महीनों तक खुद की कुक्षि में धारण किया। केवल इतना ही नहीं साथ में उसका पालन-पोषण और संस्कारों का सिंचन करना कोई आसान कार्य नहीं। यह कठोर परिश्रम कठिन साधना केवल स्त्री शक्ति ही कर सकती है. स्त्री शक्ति का विश्लेषण करते हुए पू.गुरूदेव ने फरमााया कि स्त्री में प्रेम-करुणा-वात्सवलय होना सहज है इसके साथ स्त्री क सहनशीलता की मूर्ति भी है तो स्त्री परिवर्तन ला सके ऐसी प्रेरणा मूर्ति भी है। स्त्री में वंशवृद्धि की शक्ति छुपी हुई है। स्त्री स्वभाव से ही कोमल ह्रदयवाली होती है। चाहे वो पशु हो या मानव स्वरूप में हो स्त्री सहजता से ही मृदु होती है। घर में भी जब पिता-पुत्र के बीच भेदरेखा उत्पन्न होती है या वैमनस्यता होती है तब स्त्री उन दोनों के बीच समाधान-सुलेह का मार्ग निकालती है। इस तरह से मातृशक्ति स्वरूपा स्त्री महाशक्तिवाहिनी है। भक्तामर स्त्रोत में भी एक घटना का वर्णन आता है। एक बार सिंह हिरणी के बच्चे को खाने आता है तब नवजात शिशु की रक्षा करने हेतु हिरणी सिंह के सामने हमला करने का प्रयत्न करती है। इस घटना से यह ज्ञात होता है कि मां का वात्सलय कितना अद्भुत एवं अनुपम है।
इसी संदर्भ में पूज्यश्री ने वर्तमान में वैश्यिक महामारी कोरोना के बीचभी कैसे मातायें अपनी संतान की अनुपम सेवा करती है उसका वर्णन किया। वर्षों पूर्व एक लड़के को भयंकर चेपी रोग हुआ। डॉक्टरों ने उसकी मांग को उससे दूर रहने का निर्देश किया। प्रतिदिन वह माता आती और अपने पुत्र को दूर से देखकर उसे मिल न पाने के अफसोस से लौट जाती। यह उसका नित्यक्रम बन चुका था पर एक दिन उसके अंदर बहता मातृत्व, प्रेम और वात्सलय उसे किसी की परवाह किये बिना अपने पुत्र के पास खींच ले गया और वह उसे भेंट पड़ी। उसने अपने पुत्र को वात्सलय से न्ह्ला दिया। इस तरफ हास्पिटल के स्टाफ, नर्स सभी उस स्त्री को डॉटने लगे-बोलने लगे कि यह आपने क्या किया? आपको ना बोला था न कि अपने पुत्र को छूना मत? क्यूं किया ऐसा? तब वह बोल उठी मैं उसकी मां हूं। उसके बिना रह पाना मेरे लिये अत्यंत कठिन है फिर भी आपके कहने पर इतने दिन उसके बिना रही। तब नर्सों ने समझाते हुए कहा कि आप भी इस भयंकर रोग का शिकार ना बनें इसलिये हम आपको आपके पुत्र से दूर रखना चाहते थे और कोई कारण नहीं है। तब वह मां बाहोशी से कहती है कि भले मैं उस रोग से ग्रस्त हो जाऊं लेकिन अब मैं उसके बिना नहीं रह सकती। इसलिये मुझसे ऐसा कृत्य हो गया।
इस घटना से यही समझ आता है कि मां का प्रेम-स्नेह-वात्सलय अविरत स्त्रोत की तरह बहता ही रहता है। पूज्यश्री फरमाते है कि बचपन में बालबुद्धि के कारण शायद माता के उपकारो को समझ नहीं पाते किंतु जैसे जैसे बड़े होते है वैसे भूतकाल के संस्मरणों से वे यादें मीठी लगती है और माता-पिता के अनंत उपकारों का एहसा होता है। शास्त्रकार भगवंत फरमाते है कि दुष्प्रतिकारौ मातापितरौ अर्थात् माता-पिता के उपकारों का ऋण चुकाना प्राय: असंभव है। ऐसे अनंत शक्ति के स्त्रोत सम माताृ-पिता के चरणो में जितना अर्पण करे उतना कम ही है। शास्त्रों में कहा गया है कि अपने स्वयं दीक्षित बनकर अपनी माता को यदि संयमी बनायें तो शायद उनके उपकारों का ऋण चुकाकर आत्मा को धन्य-पुण्य बनाकर शीघ्र आत्मा से परमात्मा के मार्ग पे आगे बढ़ सकें।
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