अहमदाबाद। सदाचार और परोपकार की परंपरा से सुभोभित ऐसी भारतीय संस्कृति में माता-पिता की सेवा को मुख्य स्थान दिया गया है। मातृ देवो भव पिंत देवो भव के उद्गारों से संस्कारों का सिंचन किया जाता है और माता-पिता को गुरू समान माना जाता है। जिस देश में ऐसे महान-दिव्य संस्कार दिये जाते है उस देश में आज के आधुनिकता का भौतिकता का प्रवाह युवा पीढिय़ों के सर चढ़कर बोल रही है जिसके कारण माता-पिता जैसे महान व्यक्तित्व के स्वामी को वृद्धाश्रम में भेज दिया जाता है।
मौलिक चिंतक, गीतार्थ गच्छाधिपति जैनाचार्य प.पू. राजयश सूरीश्वरजी म.सा. इस दयनीय परिस्थिति के बारे में विचार करते हुए फरमाते है कि आज की परिवर्तित संस्कृति को देखकर आंखों में से आंसुओं की धारा बहने लगती है। आज का यह परिवर्तित चित्र हताशा जनक अवश् य है किंतु अत्यंत निराशाजक नहीं है। अर्थात् अभी भी ऐसे सुसंस्कारी, आदर्श संतान इस देश में विद्यमान है जो इस संस्कृति को चार चांद लगा सकती है। वृद्धाश्रम समाज का लांछन स्वरूप है। लेकिन कितने ही युवान जिन्हें माता-पिता के उपकारों का, उनके महत्व का ज्ञान हो गया हो वे वृद्धाश्रमों में अपना अमूल्य समय तथा महामूल्यवान संपत्ति का दान करके उन निराधार वृद्धों की दिल से सेवा कर उनके अंतर के आशीर्वाद को प्राप्त करते है। तमाम धर्मों के धर्म गुरूओं की तथा समस्त जैनाचार्यों की एक ही बात है कि माता-पिता की सेवा ही मोक्ष मार्ग का सुंदर एवं प्राथमिक प्रकाश है। प्रभु वीर की अंतिम देशना श्री उत्तराध्ययन सूत्र में भी मोक्ष मार्ग का सुंदर निर्देश किया है जो अत्यंत विचारणीय है। गुरू और वृद्धों की सेवा प्रथम मोक्ष मार्ग है अत: माता-पिता एवं वृद्धों की सेवा का अवसर मिले तो कभी कुचना नहीं चाहिए। हजार कार्य हो तो भी उन्हें छोड़कर माता-पिता एवं वृद्धों की सेवा अवश्य करनी ही चाहिए। सेवा करने से जो अंतर के आशीर्वाद प्राप्त होते है उससे जीवन में गति-प्रगति एवं उन्नति होती है।
कई लोग गुरू भगवंतों को घर पे पधारने की आग्रहभरी विनंति करते है। गुरू भगवंतों के पावन पगले, श्री संघ के पवित्र पदार्पण आदि घर में कराते है किंतु यदि उस घर में माता-पिता की सेवा नहीं की जाती हो तो इन सभी का कोई अर्थ नहीं है जंगल में कोई किसी को याद नहीं करता। कोई प्राणी दूसरे प्राणीयों को परस्पर याद नहीं करते लेकिन मात्र इंसान ही ऐसा है जिसे परस्पर एक दूसरे के हौसले की प्रेम की प्रीति की हिमत की आवश्यक होती है। उसमें भी जिस माता ने नौ-नौ महिनों तक निरंतर चौबीस घंटों तक अपने कुक्षी में रखा उनकी महत्ता तो कुछ अलग ही होती है। परंतु आज परिस्थिति इतनी दयनीय बन चुकी है कि उस उपकारी माता के लिए आज चौबीस मिनिट भी हम निकाल नहीं पाते। ऐसे मनुष्य मनुष्य नहीं होते।
याद करो उस श्रवण कुमार को जिसने एक मिनिट भी कोई विचार किये बिना केवल अपने वृद्ध तथा अंध माता-पिता की तीर्थ यात्रा की इच्छा पूर्ण करने के लिए खंधों पे कावड़ में माता-पिता को बिठाकर तीर्थ यात्रा हेतु निकले। ऐसे आदर्श व्यक्तित्व का इस अवसर पे स्मरण अवश्य हो ही आता है। कुछ ऐसै ही आदर्शवादी सिद्धांतों का पालन करने वाले भारत देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी भाग्य चमक रहा है। इसके पीछे का रहस्य उनकी मां से प्राप्त हुए अंतर के आशीर्वाद ही है। अपनी कार्य व्यस्तता के बीच भी वे अपनी असीमोपकारीमाता को मिलने उनके आशीर्वाद लेने अवश्य पहुंच ही जाते। यहीं भारत देश की महिमावंत महान संस्कृति है। अत: शास्त्रों में भी कहा गया है कि माता-पिता की सेवा मोक्ष मार्ग का प्राथमिक प्रकाश है।
उत्तराध्ययन सूत्र प्रभु महावीर के नाम से जुड़ा हुआ है। जिन परमात्मा ने अपने माता के गर्भ में ही यह संकल्प किया कि मेरे हलन-चलन बंद होने से मेरी उपकारी माता इतनी आकुल-व्याकुल और विह्वल बन गई हो तो उनके रहते हुए मैं यदि संयम ग्रहण करूंगा तो क्या होगा? और ऐसे उपकारी वात्सल्यमयी माता की सेवा का अपूर्व लाभ- अद्भुत अवसर को मैं छोडऩा नहीं चाहता अत: उनकी संपूर्ण सेवा करके उनके अवसान के पश्चात् ही मैं संयम ग्रहण करूंगा। जगत के कोई भी धर्म गुरू यही कहते है कि माता-पिता की अपूर्व सेवा की प्रथम कत्र्तव्य है तथा मोक्ष मार्ग का सुंदर प्रकाश फैलाने वाला भी है। अत: माता-पिता की सेवा कर सभी धन्य-पुण्य बनकर मोक्षगामी बनें।
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