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अहमदाबाद। आराधना करने का मौसम नजदीक आ रहा है। चातुर्मास पर्व का काउंटडाउन शुरू हो चुका है। आराधना करने के लिए अपने मन को तैयार करना है। जिनशासन में अनेक प्रकार के पर्व बताए गए है। अनेक पर्वों में सबसे अधिक दिनों तक मनाया जानेवाला पर्व यदि कोई है तो वह है चातुर्मासिक पर्व जैसे कोई भी त्यौहार के लिए आनंद से उत्साह से तैयारी करते है वैसे इस आध्यात्मिक पर्व के लिए अपने मन की भूमिका को स्पष्ट करना है।
अनेक प्राचीन तीर्थोंद्धारक, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयश सूरीश्वरजी म.सा. उपस्थित भाविकों को संबोधित करते हुए फरमाते है कि कोई भी प्राप्त हुए अवसर को समझने की भूमिका यानि सम्यग् दर्शन मनुष् य भव का सुंंदर एवं सुवर्ण अवसर प्राप्त हुआ है तो अब उसे समझकर सफल बनाना अपने हाथ में है। कोई एक व्यक्ति यदि किसी चीज का दुरूपयोग करें तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि उस चीज का कोई मूल्य नहीं है। इसका अर्थ यह है कि उस चीज का मूल्य समझने की समझ शक्ति तथा बुद्धि उस व्यक्ति में नहीं है। महामूल्यवान मनुष्य भव की प्राप्ति महापुण्याई से हुई उसमें भी श्रेष्ठ ऐसा जैन धर्म मिला फिर भी आराधना करने का मन ना हो तो समझना मूल्य समझने की शक्ति नहीं है। कई बार पुष्प पूजा, चंदन पूजा, जल पूजा अभि,ेक आदि करते-करते मन भाव विभोर बन जाता है प्रभु की द्रव्य पूजादि करते इतना आनंद होता है तो प्रभु के विचारों के पास पहुंच जाये तो कितना आनंद होता। सर्वज्ञ बनने के पूर्व परमात्मा की भी मन की भूमिका कुछ रही होगी। उसे समझने की आवश्यकता है। प्रभु की बात सही लगे तो केवल उसे स्वीकारता नहीं लेकिन उसे कर लेना चाहिए। किसी भी आत्मा को मोक्ष सुख पाना हो तो संयम ग्रहण करना अनिवार्य है। पूज्य श्री फरमाते है कि मनुष्य भव की सार्थकता संयम ग्रहण करने में ही है। कोई तीर्थंकर की आत्मा भी संयम ग्रहण किये बिना मोक्ष नहीं जाते। इसी संयम जीव को अपनाने के लिए कई वर्षों पूर्व एक सोलह वर्ष का नौजवान युवान तैयार हुआ। सुधर्मा स्वामि के मुखारविंद से सुने जिनवाणी से वैराग्य भाव उत्पन्न हुआ और उस मार्ग पे चलने कि तीव्र तमन्ना हुई। यह नौजान और कोई नहीं परंतु जंबु चरम केवली जंबु स्वामी ही थे। उन्होंने अपने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया कि चाहे कुछ भी हो जाये इस भव में संयम लेकर ही रहूंगा। माता-पिता की आज्ञा बिना संयम जीवन अंगीकार नहीं कर सकते थे अत: वे अपने माता-पिता से आज्ञा प्राप्त करने निकले। शास्त्रकार भगवंत फरमाते है कि अपने पास कोई भी चीज निरंतर नहीं रहती। सत्ता-संपत्ति कुछ भी स्थायी नहीं रहती और मृत्यु भी कब डेरा डालकर ले जाये कुछ पता नहीं चलता। तालाब को पाल बांधकर उसके प्रवाह को रोका जा सकता है लेकिन नदी को पाल भी नहीं बांधी जा सकती तथा उसके प्रवाह को भी रोक नहीं सकते। वैराग्य भी नदी की तरह निरंतर बहती ही रहता है यदि उसे रोकने की कोशिश की जाये तो वह बाजू में से दूसरा रास्ता ढूंढ लेता है। पूज्यश्री फरमाते है कि कोई भी दृष्टांत पढ़ते सुनते समय उस महानुभव के मन के भावों को समझने की कोशिश कर जिससे अपने विचारों में भी परिवर्तन आ सके। कलिकाल की यह सत्य घटना है एक बालिका को दीक्षा ग्रहण करने की तीव्र तमन्ना थी परंतु उसके पिताजी ने कहा कि इसकी कुंडली में विवाह का योग है तो क्यूं दीक्षा दूं? बस उनके हठ के कारण वह बिचारी संसार में फंसी। विवाह के पूर्व ही उसने अपने पति से कह दिया था कि मैं आपको कोई शरीर का स्पर्श करने नहीं दूंगी। आपकी जो इच्छा हो, जो योग्य लगे वह करना। फिर भी वह लड़का माना नहीं और विवाह होने के पश्चात् एक वर्ष तक उसे अलग-अलग तरीके से समझाने की मनाने की बहुत कोशिश की परंतु वह अपने निर्णय पे अटल रही। आखिर में वह पति थक गया और अपनी पत्नी को संयम मार्ग पे आगे बढऩे की अनुमति प्रदान की और आज वे साध्वीजी भगवंत संयम की आराधना साधना उपासना में आगे बढ़ रहे है। इसी संदर्भ में पू्ज्यश्री ने फरमाया कि मनुष्य केवल अपने श्वासोश्वास से ही नहीं बल्कि उत्साह से जीता है। जिस दिन उत्साह मर जाये तो समझना आध्यात्मिक मृत्यु हो गई है। आत्मा की अध्यात्म लक्ष्मी को प्राप्त करने का अनमोल अवसर यानि चातुर्मास पर्व। इस चातुर्मास पर्व दरम्यान आराधना कर शीघ्रातिशीघ्र आत्मा से परमात्मा बनें।