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निर्मल रानी
उत्तर प्रदेश विधानसभा में फऱवरी -मार्च के दौरान विधानसभा के आम चुनाव होने प्रस्तावित हैं। 403 सदस्यों वाली उत्तर प्रदेश विधानसभा देश के सबसे बड़े राज्य की सबसे अधिक सदस्यों वाली विधान सभा तो है ही, साथ ही लोकसभा की 80 सीटें रखने वाला यह राज्य केंद्र में सरकार बनाने में भी अपनी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इसी  लिये अन्य राज्यों की तुलना में उत्तर प्रदेश के चुनाव व इसके परिणामों पर पूरे  देश की नजऱें टिकी रहती हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश की योगी सरकार कोरोना संकट की घोर असफलता,बड़ी संख्या में ऑक्सीजन की कमी के चलते हुई मौतों,नदियों किनारे तैरती लाशों,क़ानून व्यवस्था की बदतर स्थिति ,बेरोजग़ारी,मंहगाई,किसान आंदोलन जैसे संकटों व इनके कारण जनता में उपजे रोष का सामना तो ज़रूर कर रही है परन्तु राज्य में विपक्षी दलों का एकजुट न होना योगी व भारतीय जनता पार्टी की सरकार के लिये सबसे बड़ी राहत का सबब है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी से एक प्रकार से उत्तर प्रदेश में चुनावी शंखनाद कर दिया है। राज्य के मुख्यमंत्री,उप मुख्यमंत्री समेत सभी मंत्री अपनी रणनीति के अनुसार अभी से चुनावी जनसभाएं करने लगे हैं। परन्तु विपक्षी दल अभी तक संगठित होने के बजाय एक दूसरे विपक्षी दल से ही बढ़त पाने की उल्टी सीधी व अवसरवादी रणनीतियाँ बनाने में मश्ग़ूल हैं।
मनुवाद और मनुस्मृति के विरुद्ध सबसे प्रखर आवाज़ बनने वाली बहुजन समाज पार्टी ने अपने दल के स्वभाविक विरोधी वर्ग से संबंध गांठने की अत्यंत अवसरवादी रणनीति तैय्यार की है। कल तक 'तिलक तराज़ू और तलवार -इनको मारो जूते चार' जैसा सामुदायिक स्तर पर नफऱत फैलाने वाला नारा लगवाकर  आज फिर दलित +ब्राह्मण एकता की दुहाई रही है। कल तक मंदिरों व देवी देवताओं की पूजा करने से दलित समाज को रोकने व स्वयं को जि़ंदा देवी बताकर अपने ही ऊपर चढ़ावा चढ़ाने  की अपील करने वाली मायावती ने अपने ख़ास सहयोगी सतीश मिश्रा को अयोध्या -काशी -मथुरा जैसी धर्मनगरियों सहित प्रदेश के अनेक जि़लों में दलित ब्राह्मण सम्मलेन आयोजित करने का जि़म्मा सौंपा है। इसमें अयोध्या का सम्मलेन जय श्री राम के नारों से शुरू होकर जय श्री राम के  नारों पर संपन्न भी हो चुका है। मायावती ब्राह्मण व दलित मतों के गठजोड़ के बल पर उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने के सपने देख रही हैं। उन्हें विपक्षी एकता इसलिए मंज़ूर नहीं क्योंकि ऐसा करने से उनका मुख्यमंत्री पद का दावा ख़तरे में पड़ सकता है। और भाजपा सरकार रहे या न रहे कम  से कम उन्हें मुख्यमंत्री पद से कम कुछ भी मंज़ूर नहीं। मायावती की यही ख़्वाहिश विपक्षी दलों की एकता के लिए भी हानिकारक है और भाजपा व योगी सरकार के लिए यही सुखद है। उधर मुख्यमंत्री पद के दूसरे प्रमुख दावेदार अखिलेश यादव जिनकी समाजवादी पार्टी कभी मुस्लिम+यादव समीकरण के बल पर प्रदेश में सरकार बनाने का सफल प्रयोग करती रही है वह भी मायावती की ही तरह ब्राह्मण मतों को लुभाने के लिए एक बड़ी राज्य व्यापी रणनीति बना रही है। यानि अखिलेश एक तीर से दो शिकार खेलने की तैयारी में हैं। एक तो मायावती के पक्ष में कम से कम ब्राह्मण मत पड़ सकें और कम सीटें आने की स्थिति में  मायावती के मुख्यमंत्री पद के दावे में पलीता लग सके। दूसरे अखिलेश के पक्ष में ब्राह्मण मतों व सीटों की बढ़ौतरी हो ताकि वे मुख्यमंत्री पद के मज़बूत दावेदार के रूप में उभर सकें। इसी रणनीति के तहत वे कांग्रेस जैसे बड़े दल से चुनाव पूर्व गठबंधन के लिए तैयार नहीं क्योंकि कांग्रेस को ज़्यादा सीटें देनी पड़ेंगी जबकि प्रदेश के छोटे क्षेत्रीय दल कम सीटों पर ही समझौते के लिए तैयार हो सकते हैं। यहां मायावती व अखिलेश यादव दोनों ही के साथ समान अवसरवादी सोच यह है कि दोनों ही खुलकर मुसलमानों के वोट चाह तो रहे हैं परन्तु मांगना नहीं चाह रहे। क्योंकि उन्हें डर है कि कहीं कांग्रेस की ही तरह भाजपा उनपर भी मुस्लिम तुष्टीकरण की कालिख पोत कर उन्हें भी हिन्दू मतदाताओं के बीच अप्रासंगिक न कर दे। अन्यथा यदि अखिलेश वास्तव में मुस्लिम हितैषी थे अथवा हैं तो उन्हें असदुद्दीन ओवैसी के उस प्रस्ताव को स्वीकार करना चाहिये था कि समाजवादी पार्टी यदि मुस्लिम व्यक्ति को मुख्यमंत्री पद देने का वादा करे तो  एआईएमआईएम+ सपा गठबंधन हो सकता है। परन्तु जब सारा खेल ही मुख्यमंत्री पद और स्टेट प्लेन का है तो अखिलेश ऐसी 'हिमाक़तÓ आखिऱ करें ही क्यों ?
राज्य में एक और अवसरवादी राजनैतिक परीक्षण असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम तथा उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र तक सिमटी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के मध्य हुआ है। सुहैल देव हिन्दू अर्ध पौराणिक कथाओं के राजा बताये जाते हैं। सुहैल देव् की जाति को लेकर अभी तक स्पष्ट नहीं कि वे वास्तव में राजभर समुदाय से थे अथवा राजपूत। बहरहाल यह ज़रूर बताया जाता है कि बहराइच में सैय्यद सालार मसूद ग़ाज़ी से उनका युद्ध हुआ था जिसमें मसूद ग़ाज़ी मारे गये थे। एक बड़े वर्ग का मानना है कि मसूद ग़ाज़ी फ़क़ीर भी थे। लिहाज़ा सुहेलदेव से जंग में उनकी हत्या के बाद बहराइच में उनकी मज़ार स्थापित हुई। आज उसे शहीद हजऱत सैय्यद  सालार मसूद ग़ाज़ी की दरगाह के नाम से जाना जाता है। यहाँ हर वर्ष जून में एक महीने से भी अधिक समय तक का विशाल मेला लगता है जिसमें लाखों की संख्या में ग़ाज़ी बाबा के अनुयायी व श्रद्धालु दूर दराज़ से आते हैं। इन श्रद्धालुओं में मुस्लिम कम परन्तु हिन्दू श्रद्धालुओं की संख्या अधिक होती है। पिछले दिनों जब ओवैसी ने बहराइच में अपने पार्टी कार्यालय का उद्घाटन किया उस समय वे इस दरगाह पर भी गये और अपना खिऱाज-ए-अक़ीदत पेश किया। परन्तु जिस सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी से ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने गठबंधन किया है उसका तो अस्तित्व ही सैय्यद सालार मसूद ग़ाज़ी के विरोध पर आधारित है ? सुभासपा सैय्यद सालार मसूद ग़ाज़ी को आक्रांता,लुटेरा,गज़ऩवी का भांजा भतीजा और जाने क्या क्या बताती रही है। जबकि मसूद ग़ाज़ी समर्थक हिन्दू व मुसलमान उन्हें महान संत व चमत्कारी फ़क़ीर बताते हैं। ऐसे में निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि एआईएमआईएम व सुभासपा का गठबंधन दो विपरीत ध्रुवों का गठबंधन है। संभव है कि उत्तर प्रदेश में  चुनाव पूर्व अवसरवाद की पराकाष्ठा के इसी प्रकार के और भी परीक्षण देखने को मिलें।और इस तरह के अवसरवादी व अप्राकृतिक गठबंधनों के बावजूद यदि भाजपा सत्ता में वापसी करती है तो इसका श्रेय भाजपा की कारगुज़ारियों को नहीं बल्कि इसी अवसरवादी बिखरे विपक्ष को ही दिया जाएगा।