संसद के मानसून सत्र की शुरुआत के ठीक पहले पेगासस को लेकर हुए खुलासे से यह तो तय था कि विपक्ष को सरकार के खिलाफ एक मजबूत मुद्दा मिल गया है, और वह संसद में सरकार को पूरी तैयारी के साथ घेरने की कोशिश करेगा। लेकिन जिस तरह से पिछले सात दिनों से दोनों सदनों की कार्यवाही बाधित हो रही है, वह आने वाले दिनों में बेहतर संसदीय बहस को लेकर बहुत उम्मीद नहीं बंधाती। ऐसे में, लोकसभा अध्यक्ष की नाखुशी समझी जा सकती है। कल उन्होंने सांसदों को नारेबाजी की प्रतिस्पद्र्धा से बचने और सदन में जनता के मुद्दे उठाने को कहा। यह संसद का बुनियादी कार्य-व्यापार है। मगर नारेबाजी ऐसी सभी अपेक्षाओं पर हावी रही और सदन सुचारू रूप से काम न कर सके। इस संसद सत्र का महत्व इसलिए अधिक है कि देश महामारी से अब भी जूझ रहा है। दूसरी लहर की भयावहता और तीसरी की आशंका के बीच देशवासी इस सत्र से एक सामूहिक आश्वस्ति चाहते हैं कि उन्हें अब त्रासद अनुभवों से नहीं गुजरना होगा, पर ऐसा लगता है कि दोनों पक्षों की निगाह में इसकी कोई अहमियत ही नहीं है।
सत्ता और विपक्ष में तनातनी कोई नई या अनोखी बात नहीं है। यह तो संसदीय लोकतंत्र की प्रक्रियागत खूबी है और यदि यह सकारात्मक रही, तो इससे देश व व्यवस्था को सही दिशा ही मिलती है। लेकिन यह टकराव जब संवादहीनता की ओर मुड़ जाए या जिद का मसला बन जाए, तो इसका खामियाजा अंतत: जनता व लोकतंत्र को उठाना पड़ता है। इस सत्र में विपक्ष सरकार को कई ज्वलंत मुद्दों पर एक तरह से वॉक ओवर दे रहा है। महामारी के दौरान व्यवस्थागत कमियों, महंगाई, किसान आंदोलन, अर्थव्यवस्था की हालत, चीन के साथ सीमा विवाद, बेरोजगारी, ऐसे कई मसले हैं, जिन पर देश के लोग स्वस्थ बहस चाहते हैं, ताकि सरकार के जवाब और उसकी तैयारियों से भविष्य की तस्वीर साफ हो सके। पर पिछले सात दिनों का ज्यादातर समय तो अमूमन कार्यवाहियों के स्थगन की भेंट चढ़ गया। एक सफल लोकतंत्र सत्ता व विपक्ष की सक्रिय सहभागिता से ही सुर्खरू होता है। इसके लिए किसी अन्य देश की ओर देखने की जरूरत भी नहीं है। इसी देश में इसकी कई नजीरें मिल जाएंगी। पूर्व में ऐसा कई बार हुआ है, जब किसी मसले पर सत्ता और विपक्ष के बीच गतिरोध पैदा हुआ, तब संसदीय कार्य मंत्री और सदनों के नेताओं ने आपस में बातचीत करके रास्ता निकाला और संसद का सुचारू संचालन हुआ। पर तब एक-दो दिन के गतिरोध के बाद ही शीर्ष स्तर से गंभीर प्रयास शुरू हो जाते थे। दरअसल, पिछले एकाधिक दशकों से जनतांत्रिक जिम्मेदारियों पर राजनीतिक हितों को मिल रही वरीयता ने सत्ता पक्ष और विपक्ष में दूरियां पैदा की हैं। यही कारण है कि कई सारे विधेयक बिना बहस के ही सदनों से पारित हो जाते हैं, बल्कि अब तो संसदीय समितियों की बैठकों से भी विमर्श के बजाय बहिष्कार की खबरें आने लगी हैं। ये सारी तफसीलें उस लोकतंत्र के लिए फख्र की बात नहीं हो सकतीं, जो अब 75 का होने जा रहा हो। भारत को अपनी संसदीय परिपक्वता से न सिर्फ दुनिया के आगे नजीर पेश करनी चाहिए, बल्कि पड़ोस के कमजोर गणतंत्रों का मार्गदर्शन भी करना चाहिए। पर संसद सुचारू काम करे, तब तो इसकी सूरत बने!
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