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अहमदाबाद। प्रत्येक क्षेत्र में कुछ न कुछ खासियत होती है। जैसे स्पोटर््स ब्रांड के लिए एडिडास, नाइक, प्यूमा आदि प्रसिद्ध है। ट्रेडिशनल वेयर के लिए रेमन्ड, मेलान्ज, बीबा आदि ब्रांड प्रसिद्ध है। विवाह के उपलक्ष्य में खरीदी करने के लिए जोधपुर, कोलकाता, मुंबई, जयपुर, दिल्ली आदि अलग-अलग स्थान जिस कारीगरी के स्पेशलिस्ट हो वहां उस चीज की खरीदी करते हैं। ठीक उसी तरह प्रभु यह संसार भी आधि-व्याधि और उपाधि के लिए प्रसिद्ध है तो प्रभु के वचन, आगम सूत्र वैराग्य और समाधि प्राप्त कराने के लिए प्रसिद्ध है।
आगम सूत्रों के ज्ञाता, वैराग्य पथ दर्शक, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयश सूरीश्वरजी म.सा. ने उपस्थित धर्मानुरागी आराधकों को संबोधित करते हुए फरमाया कि आधि-व्याधि और उपाधि से घिरा हुआ ये संसार है जो हमें हमारी इच्छा मुताबिक कुछ नहीं करने देता। आधि यानि मन की चिंता। संसार में रहता हुआ एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जो चिंतामक्त हो। एक बार किसी व्यक्ति पे प्रसन्न होकर देव ने वरदान दिया कि जाओ तुम्हें इतनी संपत्ति और वैभव मिले कि सात पीढ़ी तक कोई कमी ना रहे। फिर भी उसे चिंता ही हो रही थी। कारण पूछने पर बताया कि मेरी आठवीं पीढ़ी का क्या होगा? पूज्यश्री ने इस छोटी सी बात से यह समझाया कि मानव का स्वभाव हो गया है चिंतित रहना चिंतामुक्त नहीं होना। इस चिंता के लिए कबीरजी ने भी कहा है कि:-
चिंता से चतुराई घटे, घटे रुप गुण ज्ञान
चिंता बड़ी अभागिनी, चिंता चीता समान
अर्थात् चिंता करने से व्यक्ति की चतुराई, रूप, गुण, ज्ञान घटता है और अंत में मृत्यु तक भी ले जाती है। व्याधि यानि शरीर में उत्पन्न होते हुए रोग। प्राय: प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न कुछ शारीरिक व्याधि तो होती ही है। ऐसे तो बहुत कम पुण्यशाली आत्मायें होती हैं जो रोग मुक्त हो। उपाधि यानि कोई न कोई तकलीफ जिसके कारण अपनी धारणा के मुताबिक कार्य न हो पाये।
शास्त्रकार भगवंत फरमाते है कि आधि-व्याधि-उपाधि भले हो लेकिन समाधि तक पहुंचा जा सकता है। समाधि तक पहुंचने हेतु मार्गदर्शन देते हुए पूज्य गुरूदेव ने कहा कि परमात्मा के शरण को स्वीकार करने से आधि-व्याधि उपाध से मुक्त हो सकते है। परमात्मा के शरण स्वीकार करने का अर्थ यही कि प्रभु के प्रति अपार प्रीति और विश्वास रखना। जब शरणागत भाव आता है तब संभालने की, रक्षण करने की जिम्मेदारी प्रभु की है उनके अधिष्ठायक देवी-देवता की है। कितने ही लोग अलग-अलग बनताहै। शास्त्रओं में सुदर्शन सेठ की बात आती है। अभया रानी ने कार्योत्सर्ग में लीन सुदर्शन सेठ पर बलात्कार का झूठा आरोप लगाया। राजा ने अपने कत्र्तव्य पालन स्वरूप सेठ जी को बहुत पूछा कि क्या जो रानी कह रही है वह सत्य है? सेठ जी मौनधारण करके खड़े रहते है। उनकी चुपी के कारण फांसी की सजा सुनाना वो राजा की मजबूरी थी। उन्होंने मन ही मन परमात्मा का शरण स्वीकार कर लिया अत: उन्हें विश्वास था कि प्रभु उन्हें अवश्यमेद बचायेंगे, संभालेंगे।
राजा ने आदेश दे दिया कि सेठजी को फांसी पे चढ़ा दो। चारण शरण स्वीकारते हुए सेठ जी तो प्रभु पर अटल श्रद्धा रखके नवकार का स्मरण करने लगे और वहीं एक चमत्कार का सर्जन हुआ। फांसी के बदले वहां सिंहासन प्रगट हुआ और चारों तरफ आश्चर्य छा गया। इससे यही समझना है कि प्रभु के शरण का स्वीकार करने से अपनी सारी मुसीबतें यूं ही दूर हो जाती है। परमात्मा तो अपनी परम कृपा की वृष्टि करने हेतु सदैव तैयार ही होते है बस अपना निर्णय निश्चित होना चाहिए। पूज्यश्री ने बताया कि जिनको परमात्मा पे पूर्ण श्रद्धा होगी है प्रभु उन्हें अवश्य सहाय करते है इंगलीश में भी एक कहावत है
'त्रह्रष्ठ ॥श्वरुक्कस् ञ्ज॥ह्रस्श्व ङ्ख॥ह्र ॥श्वरुक्क ञ्ज॥श्वरूस्श्वरुङ्कश्वस्'
अर्थात् परमात्मा तो उन्हें सहाय करने तत्पर ही रहते है जो स्वयं की सहाय कर सके, आसपास के लोगों की सहाय करें। परमात्मा की परम कृपा के सहारे शीघ्र परमात्मा पद को प्राप्त करें यही मंगल भावना।